उत्तरकाशी और अन्य हिमालयी इलाकों की आपदाएं साफ संकेत दे रही हैं कि अब बातों से काम नहीं चलेगा। BESZ जैसे कानूनों को सख्ती से लागू करना होगा। अवैध निर्माण रोकना, दोषियों पर कार्रवाई, सड़क निर्माण में सुरक्षित तकनीक अपनाना, ढलानों को स्थिर करना, मौसम निगरानी तंत्र बढ़ाना और स्थानीय चेतावनी प्रणाली विकसित करना जरूरी है।
भारत के पहाड़ी इलाके, खासकर हिमालयी राज्य उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश, अपनी अद्भुत सुंदरता और जैव-विविधता के लिए मशहूर हैं। ये केवल पर्यटन स्थल नहीं, बल्कि गंगा, यमुना और कई बड़ी नदियों के स्रोत हैं, जो देश की जीवनरेखा हैं। लेकिन हाल के वर्षों में यहां प्राकृतिक आपदाओं की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। उत्तरकाशी में हाल की भीषण बाढ़ और मलबे के प्रवाह ने फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है — क्या हम अपने पर्यावरण और संसाधनों के साथ लापरवाही कर रहे हैं? यह हादसा, जो भगीरथी पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र (BESZ) में हुआ, प्राकृतिक कारणों के साथ-साथ अव्यवस्थित निर्माण और पर्यावरणीय असंतुलन से और भयावह हो गया। अब जरूरी है कि हम इसे गंभीरता से लें और तुरंत कदम उठाएं।
5 अगस्त 2025 को उत्तरकाशी के धराली गांव में बादल फटने से तबाही मच गई। खीरगंगा नदी के जलग्रहण क्षेत्र में आई इस आपदा ने घर, होटल, दुकानें और सड़कें बहा दीं। चार लोगों की मौत हुई और 50–100 लोग लापता हो गए। यह इलाका 2012 से BESZ के अंतर्गत है, जहां गंगा के पर्यावरण और जलस्रोतों की रक्षा के लिए खास नियम हैं। लेकिन नदी किनारे होटल और हेलीपैड बनाने जैसे अनियंत्रित निर्माण ने इस त्रासदी को और बढ़ा दिया।
यह अकेली घटना नहीं है। पिछले वर्षों में उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में बाढ़, भूस्खलन और बादल फटने की घटनाएं बार-बार हुई हैं। 2013 की केदारनाथ बाढ़ में 5,700 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी। 2021 में चमोली में बाढ़ और हिमस्खलन में 200 से अधिक लोग मारे गए या लापता हुए। जलवायु परिवर्तन से ग्लेशियर पिघलने और अचानक पानी छोड़ने (GLOF) की घटनाएं बढ़ रही हैं, लेकिन अव्यवस्थित विकास और परियोजनाओं का गलत प्रबंधन भी इन आपदाओं को और गंभीर बना रहा है।
हिमालय की भू-संरचना नाजुक है। यह भूकंप और भूस्खलन के लिहाज से संवेदनशील है। इसके बावजूद चारधाम जैसी सड़क परियोजनाएं, बड़े पैमाने पर बांध और अनियंत्रित पर्यटन इस इलाके की स्थिरता को कमजोर कर रहे हैं। उत्तरकाशी में धरासू–गंगोत्री सड़क का चौड़ीकरण और हिना–टेखला के बीच 6,000 देवदार पेड़ों की कटाई वाला प्रस्तावित बायपास, पर्यावरणविदों की चिंता बढ़ा रहा है।
चारधाम परियोजना को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कई मामले चल रहे हैं। विशेषज्ञ चेतावनी दे चुके हैं कि पहाड़ काटना, जंगल उजाड़ना और नदी किनारे निर्माण, इलाके को अस्थिर बना रहे हैं। 2023 का सिल्क्यारा सुरंग हादसा भी बताता है कि बिना सही पर्यावरणीय मूल्यांकन के परियोजनाएं मंजूर करना कितना खतरनाक है।
हिमाचल प्रदेश में भी हालात अलग नहीं हैं। शिमला में शोघी–धल्ली राजमार्ग के लिए पहाड़ काटने से भूस्खलन का खतरा बढ़ा। कभी 30,000 लोगों के लिए बना यह शहर आज 3 लाख की आबादी और लाखों पर्यटकों का दबाव झेल रहा है। कुल्लू–मनाली में भी अनियंत्रित निर्माण और भीड़ ने पर्यावरण को संकट में डाल दिया है।
जलवायु परिवर्तन का असर साफ है। ISRO के मुताबिक 1988 से 2023 तक उत्तराखंड में 12,319 भूस्खलन दर्ज हुए, जिनमें 1,100 से ज्यादा में GLOF का खतरा था। उत्तरकाशी की हालिया बाढ़ में भी विशेषज्ञों ने इस संभावना की ओर इशारा किया। वातावरण में नमी बढ़ने से बादल फटने और भारी बारिश की घटनाएं भी बढ़ी हैं। IMD के अनुसार, उत्तरकाशी में 43 मिमी बारिश हुई, जो बादल फटने की परिभाषा से कम है, लेकिन लगातार तीन दिन की बारिश ने मिट्टी को इतना भिगो दिया कि मलबा और बाढ़ का खतरा बढ़ गया।
पर्यटन इन राज्यों की अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा है। 2023 में चारधाम यात्रा में 56 लाख से ज्यादा श्रद्धालु आए, जिससे होटल, लॉज और सड़क निर्माण तेज हुआ। लेकिन यह निर्माण नदी किनारों और अस्थिर ढलानों पर हुआ, जिसने प्राकृतिक सुरक्षा कवच तोड़ दिए। 2023 में जोशीमठ में 700 से ज्यादा घरों में दरारें आईं, क्योंकि यह नगर प्राचीन भूस्खलन मलबे पर बसा है और आसपास की परियोजनाओं ने इसकी जमीन को कमजोर कर दिया।
उत्तरकाशी और अन्य हिमालयी इलाकों की आपदाएं साफ संकेत दे रही हैं कि अब बातों से काम नहीं चलेगा। BESZ जैसे कानूनों को सख्ती से लागू करना होगा। अवैध निर्माण रोकना, दोषियों पर कार्रवाई, सड़क निर्माण में सुरक्षित तकनीक अपनाना, ढलानों को स्थिर करना, मौसम निगरानी तंत्र बढ़ाना और स्थानीय चेतावनी प्रणाली विकसित करना जरूरी है। वनों की कटाई रोककर बड़े पैमाने पर पौधारोपण करना होगा और पर्यटन को नियंत्रित कर पर्यावरण-अनुकूल मॉडल अपनाना होगा।
हिमालय सिर्फ पर्यटन स्थल नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहर का हिस्सा है। इसे बचाना सरकार, स्थानीय समुदाय और हर नागरिक की जिम्मेदारी है। अब भी अगर हम न चेते, तो आने वाले सालों में ऐसी त्रासदियां और बढ़ेंगी, और कीमत हमें ही चुकानी पड़ेगी।