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बैंक खाते के बावजूद

गरीब एवं निम्न आय वर्गों का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी ऋण के लिए माइक्रोफाइनेंस संस्थाओं या स्थानीय साहूकारों पर निर्भर है। दरअसल, हाल में ये निर्भरता और बढ़ी है। साथ ही लोन डिफॉल्ट के मामले भी बढ़े हैं।

निर्विवाद रूप से भारत में सबका बैंक खाता खुलवाने का अभियान सफल रहा है। आज देश की 96 फीसदी आबादी की पहुंच बैंक खातों तक है। मगर बैंक में खाते होने का यह अर्थ नहीं है कि सभी लोगों को बैंकिंग सेवाएं भी मिल रही हों। ताजा रिपोर्टों के मुताबिक भारत के गरीब एवं निम्न आय वर्गों का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी ऋण के लिए माइक्रोफाइनेंस संस्थाओं या स्थानीय साहूकारों पर निर्भर है। दरअसल, हाल में ये निर्भरता और बढ़ी है। साथ ही माइक्रोफाइनेंस लोन पर डिफॉल्ट के मामले भी तेजी से बढ़े हैं। पिरामल इंटरप्राइजेज के एक अध्ययन के मुताबिक 2021 तक भारत की 96 फीसदी आबादी की पहुंच बैंक खातों तक हो चुकी थी। लेकिन इससे संगठित क्षेत्र से उन्हें कर्ज मिलना आसान नहीं हुआ।

बैंकों और अन्य गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थानों से ऋण कम ब्याज दर पर मिलता है। मगर ये संस्थाएं ऋण लौटा सकने की क्षमता के परीक्षण के बाद ही कर्ज मंजूर करती हैँ। इसलिए जिन लोगों के पास स्थायी नौकरी या पर्याप्त जायदाद ना हो, उनके लिए ऐसी संस्थाओं से कर्ज पाना मुश्किल बना रहता है। इसीलिए ऐसे लोगों की स्थानीय महाजनों पर उनकी निर्भरता बनी हुई है। सेंटर फॉर मोनिटरिंग ऑफ इंडियन इकॉनमी के आंकड़ों के मुताबिक 2018 से 2022-23 तक सूदखोर साहूकारों से ऋण लेने वाले एक से दो लाख रुपये सालाना आमदनी वाले परिवारों की संख्या 5.8 प्रतिशत बढ़ी।

दो से पांच लाख रुपये सालाना आमदनी वाले परिवारों की श्रेणी में संस्थागत ऋण की मात्रा 10.4 प्रतिशत बढ़ी, मगर ऐसे 12.6 प्रतिशत अधिक परिवारों ने स्थानीय साहूकारों से ऋण लिए। सा-धन नाम की एजेंसी को भारतीय रिजर्व बैंक ने माइक्रोफाइनेंस कारोबार की निगरानी की जिम्मेदारी दी है। उसके मुताबिक समय पर ऐसी माइक्रोफाइनेंस कर्ज ना चुका पाने के मामले 2024 में 3.2 प्रतिशत तक पहुंच गए, जबकि दिसंबर 2022 में ये संख्या 1.8 फीसदी ही थी। ये आंकड़े दो बातें साफ करते हैः पहला यह कि गरीब एवं निम्न आय वर्ग के परिवारों पर आर्थिक बोझ बढ़ रहा है और दूसरा यह कि बैंक खाते खुलने से उन्हें ऐसी मुसीबतों से राहत नहीं मिली है।

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By NI Editorial

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