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भारत के नेताओं के कारण देश विभाजन था!

भारत विभाजन का सच्चा इतिहास बस तीन वाक्यों में है — मुस्लिम लीग ने उस की माँग की; कांग्रेस ने उसे स्वीकार किया; अंग्रेजों ने उसे क्रियान्वित किया। राष्ट्रवादी आंदोलन के नेताओं ने कोलतार पोत कर अपने को और‌ हिन्दू समाज को अंधा बना लिया। बिना किसी तैयारी और क्षमता के केवल अंग्रेजों को हटाने और गद्दी लेने की सनक ने पंजाब, बंगाल, और कश्मीर की वह दुर्दशा की जिस की कोई कल्पना भी नहीं कर सका था।.. वस्तुत: हिन्दू नेताओं ने मुस्लिम लीग, उस के दावों, उस की हिंसा, या जिन्ना — किसी पर कभी खुल कर, गंभीरता, सत्यनिष्ठा से विचार तक किया हो, इस का कहीं विवरण नहीं मिलता।

 भारत विभाजन अंग्रेजों ने नहीं किया -2

जिस इस्लामी मतवाद, और उस के नेताओं को दोष देने से बचने के लिए हिन्दू नेता विभाजन का दोष अंग्रेजों को देते रहे हैं, उन्होंने अपनी चाह या समझ कभी नहीं छिपाई। वे ठसक से इस्लामी श्रेष्ठता का अपना घमंड दर्शाते रहे। तब भी और आज भी, जब अंग्रेजों को गये आठ दशक होने को आए। जिन मौलाना आजाद या देवबंदियों को ‘राष्ट्रवादी’ बताकर हिन्दू नेताओं ने सिर पर उठाए रखा है — क्यों कि उन्होंने विभाजन का विरोध किया था — उन्होंने साफ कहा था कि वे पूरे हिन्दुस्तान पर इस्लामी राज चाहते हैं। तब उन्हें कल्पना भी न थी कि हिन्दू नेता ऐसे वज्र-मूढ़ होंगे कि विभाजन बाद भी बचे भारत में करोड़ों मुसलमानों के साथ-साथ तमाम इस्लामी के सरंजाम, संस्थान, और गतिविधियाँ यथावत‌ रहने देंगे जिन ने विभाजन करवाया था! उन्होंने सहज समझा था कि विभाजन के बात बचे भारत से इस्लाम निष्कासित हो जाएगा। यह वे नापसंद करते थे। लिहाजा विभाजन भी उन्हें नापसंद था।

उसी बात पर झूठा मुलम्मा चढ़ा कर हिन्दू नेताओं-बौद्धिकों ने उल्टे मौलाना आजाद और देवबंद को मानो विशेषाधिकार देकर फलने-फूलने का पूरा इंतजाम किया! सारा विद्वेष अंग्रेजों के लिए सुरक्षित रखा! जबकि अंग्रेजों से पहले हिन्दू दुर्गति में थे (फिर अंग्रेजों के जाते ही, जल्द ही हिन्दू हीन दर्जे के नागरिक बन गये। ‘अल्पसंख्यकों’ की तुलना में कम अधिकार वाले)। उस तथ्य को लगभग 1910 ई. तक हर हिन्दू मनीषी, विद्वान, व्यापारी, पंडित, साधु, जानता-मानता था। पर उस पर कोलतार पोत कर राष्ट्रवादी आंदोलन ने अपने को और‌ हिन्दू समाज को अंधा बना लिया। बिना किसी तैयारी और क्षमता के केवल अंग्रेजों को हटाने और गद्दी लेने की सनक ने पंजाब, बंगाल, और कश्मीर की वह दुर्दशा की जिस की कोई कल्पना भी नहीं कर सका था। यह भी उस अंधेपन का ही नमूना है कि जिस मतवाद व समूह ने यह किया — ठीक उसी को दोषमुक्त कर, अंग्रेजों को हर चीज का दोषी बताया जाता है।

असल बात यह है कि इस्लाम का मौखिक मुकाबला करना भी हिन्दू नेताओं को न तब आता था, न अब। इसलिए ब्रिटिश उदारवाद की सुरक्षित छत्र-छाया में, उसी की लानत-मलामत करके, हिन्दू नेता-बौद्धिक तब भी और आज भी वीर बनते हैं। यह उन के असली शत्रु तब और अब भी साफ देखते हैं। इस तरह, अपने ही झूठे नारे,‌ नाटक और तमाशे से मोहित हिन्दू उसी राह पर चल रहे हैं जो गत सौ सालों से उन्होंने चुन रखी है: आरामदेह झूठ का सहारा लेना और कठिन सच से भागे रहना। इतिहास का थोक मिथ्याकरण उसी का एक आवश्यक पहलू है।

इसलिए न केवल भारत विभाजन के सही विवरण,  बल्कि 11-18 वीं सदी तक देश को तमाम इस्लामी आक्रांताओं के हाथों क्या-क्या झेलना पड़ा उस पर एक पूरा पाराग्राफ भी सच या साफ पढ़ाया जाता हुआ, स्वतंत्र भारत की शिक्षा में खोजना कठिन है! उलटे इस्लाम और मुगल काल की विरुदावली पर स्कूली पाठ्य-पुस्तक में — केवल एक पुस्तक में — सौ पन्ने भी पाए जा सकते हैं!

उपर्युक्त दोनों ही प्रकार के झूठ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हिन्दू मतिहीनता की टकसाल में ढले। ऐसी आत्म-प्रवंचना में जीने वाले हिन्दू नेता, बौद्धिक और उन के अनुसार चलने को विवश समाज सदैव हारने के लिए अभिशप्त रहेगा। क्योंकि वह गलत निशाने पर तीर चलाता रहता है। फलत: असली शत्रु से निपटने में सदैव विफल। वस्तुत: 1947 का देश-विभाजन भी उसी का उदाहरण था। हिन्दू नेताओं ने मुस्लिम लीग, उस के दावों, उस की हिंसा, या जिन्ना — किसी पर कभी खुल कर, गंभीरता, सत्यनिष्ठा से विचार तक किया हो, इस का कहीं विवरण नहीं मिलता। तब वे उस समस्या से निपट ही कैसे सकते थे? ले-देकर उन्हीं अंग्रेजों के भरोसे वे जिन्ना को उपेक्षित करते रहे, जिन्हें निंदित करना उन्होंने अपनी एक मात्र टेक बना रखी थी।

यह अंग्रेज सरकार और उस के वायसराय ही थे जिन्होंने जिन्ना की माँग को सात वर्षों तक ठुकराया। साथ ही, स्वतंत्र होने‌ वाले भारत की संविधान सभा बनाई, और सत्ता हस्तांतरण के लिए अंतरिम सरकार बनाने कहा। सत्ता हस्तांतरण का समय तक, जून 1948, भी घोषित कर दिया। पर कांग्रेस के हिन्दू नेता कुछ महीने का धैर्य भी नहीं रख सके। जिन्ना को सदभाव और चतुराई से टाल-मटोल, या लेन-देन कर वह अवधि न काट सके। उलटे, यह सोच कर कि उन जिद्दी मुस्लिम नेताओं के साथ सत्ता चलाने में वे असमर्थ हो सकते हैं — कांग्रेस के दो सब से बड़े नेताओं ने गाँधीजी को बायपास कर विभाजन करने का मन स्वयं बना लिया। यह अंतिम बात लोहिया ने प्रत्यक्ष जानकारी के आधार पर लिखी है।

सच तो यह भी है कि ईस्ट इंडिया कंपनी या फिर ब्रिटिश क्राउन ने 1757 या 1858 में जिस राजनीतिक हाल में भारत को अपने हाथ में लिया था — उसी हाल में छोड़ कर भी जाते, तो भारत में कम से कम 15  स्वतंत्र रजवाड़े रहते। उस में अंग्रेजों को कोई नैतिक बाधा भी नहीं थी! आखिर, भारतीय राष्ट्रवादी तब तीन दशक से ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ ही रट रहे थे। तब अंग्रेज सामूहिक इस्तीफा देकर यों ही जा सकते थे। उन्हें क्या पड़ी थी कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग की आपसी अदावत या मेल-मिलाप की परवाह करें? फिर, ‘लुटेरों’ या ‘फिरंगी शोषकों’ से ऐसी आशा यों भी बेमेल है।

किसी भी हाल में अंग्रेजों को ‘भगाने’ या स्वेच्छा से जाते (जो हुआ) ही सब कुछ भारतीय नेताओं की जिम्मेदारी होनी थी! क्या उन्होंने कभी सोच-विचार किया था कि जब वायसराय और ब्रिटिश कमांडरों, ऑफीसरों, पुलिस कप्तानों, क्लर्कों, मास्टरों, आदि का पूरा अमला चला जाएगा — तब भारतीय नेता सब कुछ कैसे, किस भरोसे संचालित करेंगे? इस विषय पर एक भी मीटिंग या दस्तावेज कांग्रेस इतिहास के भारी-भरकम खंडों में शायद ही मिले। राष्ट्रवादी नेताओं की जीवनियों में भी अधिकांश विरुदावली के साथ परनिन्दा, उपदेश, और सदिच्छाएं ही भरी मिलती हैं। मानो उपदेश और सद्भावनाओं से ही राजकाज हाथ में लिया जाता हो!

सच यह है कि ब्रिटिश शासक जिम्मेदार, कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार और व्यवहारिक थे। उन में चरित्र था (यह स्वामी विवेकानन्द ने भी लिखा है)। उन्होंने नितांत विखंडित भारत धीरे-धीरे अपने हाथ में लिया, और डेढ़ सौ सालों में उसे एक बनाकर, अपना ‘सुंदर साम्राज्य’, ‘जेवेल ऑफ द ब्रिटिश क्राउन’  बनाया। अंततः जब जाना तय कर लिया, तब उस भारत को टूटने से बचाने का हर संभव प्रयास भी किया। जब वह विफल होता‌ रहा, कांग्रेस और मुस्लिम लीग में किसी फार्मूले पर सहमति नहीं बनी। तब ब्रिटिश सरकार ने विभाजन कर छुट्टी लेना तय किया। द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होते ही, अपनी और दुनिया की स्थिति देखकर, उन्होंने भारत से हटना तय कर लिया था। इसीलिए पाँच महीने के अंदर मार्च 1946 में कैबिनेट मिशन भेजा गया। भारत को एक रखते हुए सत्ता हस्तांतरित करने के लिए उस के दिए फार्मूले पर एक बार सहमति देकर, फिर कांग्रेस ही पीछे हट गई। यह जुलाई 1946 में हुआ।

इस तरह कैबिनेट मिशन की दो महीने की मेहनत बेकार हुई। फिर भी, वायसराय लॉर्ड वावेल ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग में कोई सहमति बनाने की कोशिश जारी रखी। ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों की अंतरिम सरकार बनाने की कार्रवाई भी मई 1946 में शुरू कर दी थी। पर भारतीय नेता ही भारत को एक रखने के लिए किसी सहमति पर पहुँचने पर विफल रहे। बल्कि कांग्रेस नेताओं ने मुस्लिम लीग से छुटकारा पाने के लिए भी विभाजन का मन बना लिया।

इस स्थिति में, मई 1946 के बाद केवल लॉर्ड वावेल रह गये जो अखंड भारत के लिए कोशिश करते पाए गये! (गाँधीजी कुछ खुद, कुछ दूसरे कांग्रेस नेताओं द्वारा निर्णायक दौर में रंगमंच से दूर हो गये थे।) सो, लॉर्ड वावेल से झुंझलाकर कांग्रेस के दूसरे सब से बड़े नेता नेहरू और ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली, दोनों ने वावेल से ही छुटकारा लेना ठीक समझा। ताकि जल्द सत्ता हस्तांतरण हो सके। तब फरवरी 1947 में लॉर्ड वावेल के बदले लॉर्ड माऊंटबेटन के वायसराय बनने और जून 1948 तक भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित करने की इकट्ठी घोषणा हुई।

यह इतिहास का तथ्य है कि उतने प्रतिष्ठित, लंबे कैरियर वाले फील्ड मार्शल लॉर्ड वावेल को अपमानित-सा करके पद से हटाया गया। उन का मुख्य, बल्कि एक मात्र कसूर यह था कि वे भारत को एक रखते हुए सत्ता सौंपने के पक्षधर थे! जब सब उस की चिन्ता छोड़ चुके थे। मुस्लिम लीग, कांग्रेस के सब से बड़े दो नेता नेहरू और पटेल, तथा ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली — भारत को विभाजित करने के लिए तैयार हो चुके थे। यही फरवरी 1947 की स्थिति थी।

लोहिया की पुस्तक ‘गिल्टी मेन ऑफ इन्डियाज पार्टीशन’ से पुष्टि होती है कि नेहरू और पटेल 1946 के अंत तक भारत का विभाजन मान लेने के लिए तैयार हो चुके थे। इसलिए, माऊंटबेटन का भी यह कहना सही है कि उन्होंने विभाजन नहीं किया। विभाजन का माँग और मंजूरी,  दोनों भारतीयों के माथे है। माउंटबेटन ने केवल उस का क्रियान्वयन किया। पर जल्दबाजी में, जैसे-तैसे किया,  जिस से बहुत अधिक तबाही हुई। इस का दोष माऊंटबेटन ने स्वीकार भी किया है। पर भारतीय नेताओं में यह ईमानदारी नहीं थी कि वे विभाजन करने का दोष स्वीकार करें। उन्होंने कपट पूर्वक उस का दोष अंग्रेजों को देना आरंभ किया। वही झूठा इतिहास आज भी प्रचलित है।

भारत विभाजन का सच्चा इतिहास बस तीन वाक्यों में है — मुस्लिम लीग ने उस की माँग की; कांग्रेस ने उसे स्वीकार किया; अंग्रेजों ने उसे क्रियान्वित किया। तमाम दस्तावेज और प्रमाण यही दिखाते हैं। पर हिन्दू नेताओं-बौद्धिकतों ने पुरानी दुर्बलता और आत्ममुग्धता की सिफत में एक सुविधाजनक इतिहास बनाकर अपने को और अपनी जनता को भुलावे में रखा है। इसीलिए, जैसे विभाजन से पहले, वैसे ही आज भी वे बार-बार कठोर वास्तविकताओं के हाथों ठोकर खाते हैं। पर अपनी भूल देखने, सुधारने के बजाए मैकाले , माउंटबेटन,  जिन्ना, आदि किसी अन्य को कोसकर इतिश्री करते हैं। राजनीति सदिच्छाओं, एकतरफा या उपदेशों से नहीं चलती। न नाटकीय अदाओं से। पर हिन्दू नेता यह सीखने से परे रहे हैं। लिहाजा सौ सालों से हिन्दू समाज बार-बार पिटता रहा है।

By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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