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13-06-2025 Vol 19

अब हाथ खींच लीजिए

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स्वस्थ पूंजीवाद में अपेक्षित यह होता है कि डूबती कंपनियों को आसानी से बिजनेस से निकलने का मार्ग प्रदान किया जाए, ना कि सार्वजनिक धन से उन्हें बेलआउट दिया जाए। वोडाफोन- आइडिया का हाल आईबीसी लागू करने का सटीक मामला है।

सुप्रीम कोर्ट का टेलीकॉम कंपनियों वोडाफोन आइडिया, भारती एयरटेल, और टाटा टेलीसर्विसेज को राहत ना देने का निर्णय सही दिशा में है। इस निर्णय से सबसे बड़ा झटका वोडाफोन आइडिया को लगा है। अब प्रश्न यह है कि क्या नरेंद्र मोदी सरकार फिर करदाताओं के धन से इस कंपनी का संकट मोचक बनेगी?

पिछली बार केंद्र सरकार ने इस कंपनी में 49 प्रतिशत शेयर होल्डिंग खरीद कर उसे डूबने से बचाया था। उसके बावजूद कंपनी कोई ऐसा बिजनेस प्लान नहीं बना पाई, जिससे आगे चल कर वह एडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यू (एजीआर) के तहत सरकार को अपनी देनदारी, उसे ना चुकाने पर लगा जुर्माना, और जुर्माना रकम पर लगे ब्याज को चुका सके। यह रकम अब 45,457 करोड़ रुपये हो चुकी है।

वोडाफोन आइडिया के लिए आईबीसी जरूरी

जो परिस्थितियां सामने हैं, उनके बीच कंपनी यह रकम चुका सके, यह संभव नहीं दिखता। तो एकमात्र रास्ता यह है, और जो मांग कई हलकों से उठनी शुरू भी हो गई है, कि सरकार कंपनी में अपनी शेयरहोल्डिंग बढ़ाए। मगर उस स्थिति में 50 फीसदी से ज्यादा शेयरों के साथ सरकार कंपनी की मालिक बन जाएगी।

जिस दौर में सरकार की विचारधारा कारोबार से रिश्ता ना रखने की है, उसमें यह एक अजीब विसंगति होगी। वोडाफोन-आइडिया के पैरोकारों ने दलील रखी है कि सरकार को शेयरहोल्डिंग तो बढ़ा लेनी चाहिए, मगर विशेष परिस्थिति का प्रावधान कर प्रबंधन निजी क्षेत्र में ही रहने देना चाहिए।

यह सिरे से बेतुकी दलील है। स्वस्थ पूंजीवाद में अपेक्षित यह है कि डूबती कंपनियों को आसानी से बिजनेस से निकलने का मार्ग प्रदान किया जाए, ना कि सार्वजनिक धन से उन्हें बेलआउट दिया जाए। मोदी सरकार ने सत्ता में आने के साथ ही इसी मकसद से कंपनी विघटन एवं दीवालिया संहिता (आईबीसी) बनाई थी।

स्पष्टतः वोडाफोन- आइडिया का हाल आईबीसी लागू करने का सटीक मामला है। कहा जा सकता है कि उस स्थिति में सरकार को अपने पुराने निवेश पर क्षति होगी। लेकिन डूबते बिजनेस में और रकम लगाने से बेहतर को वही जोखिम लेना होगा। यह कदम इसे भी साफ करेगा कि सरकार ने इस कंपनी को बेलआउट देकर गलत मिसाल कायम की थी।

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Pic Credit: ANI

NI Editorial

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