nayaindia Dr Hedgewar and RSS डॉ हेडगेवार और रा. स्व. संघ: कहाँ से चले
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डॉ हेडगेवार और रा. स्व. संघ: कहाँ से चले, और कहाँ पहुँचे? (3)

Byशंकर शरण,
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हेडगेवार की इस आधिकारिक जीवनी से गत नौ दशकों के अनुभवों का मिलान करके एक संक्षिप्त निष्कर्ष तो मिलता ही है: नौ दिन चले, अढ़ाई कोस!…आज विशाल, सत्ताधारी, संपन्न, साधनवान संगठन बन जाने के बाद, उस आक्रामक समूह से लड़ना तो दूर, संघ के विविध नेता उस की ठकुरसुहाती, सिरोपा करते, उन के लिए संस्थान-इमारतें बनवाते और भरपूर अनुदान, और ‘पेंशन’ तक दे रहे है! संघ-परिवार के नेता देशी-विदेशी मुस्लिम नेताओं को खुश करने की खुली चिन्ता दिखाते हैं, और चिंतित हिन्दुओं को फटकारते हैं।

इस तरह, संघ से हिन्दू समाज का आशावान बने रहना घातक सिद्ध होता रहा, और आज भी हो रहा है। हर कठिन समय में असहाय दुर्गति झेलने वाले हिन्दू इलाके बार-बार यह महसूस करते हैं। वहाँ भी जहाँ संघ-भाजपा की सत्ता हो। कश्मीर, जम्मू, दिल्ली, महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार, बंगाल,आदि और संसद, विधान सभाओं में भी समय-समय पर ऐसी बातें होती रही हैं जब त्रस्त हिन्दुओं के लिए कुछ करना, लड़ना, सामने आना तो दूर – संघ के नेता एक बयान तक देने से बचते हैं। यह दशकों से लगातार जारी है। इस से केवल हिन्दुओं के शत्रुओं को लाभ होता रहा है। राजनीतिक, भौतिक, मनोवैज्ञानिक, प्रचारात्मक, आदि विविध लाभ।

बहरहाल, उक्त नौ बिन्दु कुछ सरसरी बातें हैं। यह ‘डॉ. हेडगेवार चरित’ का कोई संपूर्ण आकलन नहीं हैं। इस से निकलते कई अन्य बिन्दु भी हैं, और उक्त बिन्दुओं की भी विस्तृत चर्चा उपयोगी होगी। किन्तु डॉ. हेडगेवार की इस आधिकारिक जीवनी से गत नौ दशकों के अनुभवों का मिलान करके एक संक्षिप्त निष्कर्ष तो मिलता ही है: नौ दिन चले, अढ़ाई कोस!

आखिर जिस मुस्लिम आक्रामकता से उद्वेलित होकर, उस से प्रत्यक्ष लड़कर, हिन्दुओं के बीच लाठियाँ और वीरता साहित्य बाँटते हुए संघ का जन्म हुआ था – वह स्थिति आज भी ज्यों की त्यों, बल्कि पहले से काफी बदतर हो चुकी। इस बीच देश का लगभग तिहाई हिस्सा हिन्दू-विहीन हो गया;  देश से काट कर दो हिन्दू-विरोधी देश बन गए; बचे हुए स्वदेशी राज में भी हिन्दुओं को कानूनन दूसरे दर्जे का नागरिक बना कर उन की शिक्षा व मंदिर उन के हाथ से छीन लिए गए। यह सब ब्रिटिश राज में भी नहीं था। लेकिन उन पर लड़ना तो दूर, कोरी आवाज उठाना भी संघ के नेता छोड़ चुके। उन्हें हिन्दू के रूप में अपने दूसरे दर्जे के नागरिक होने का भान तक नहीं है! फलतः आज विशाल, सत्ताधारी, संपन्न, साधनवान संगठन बन जाने के बाद, उस आक्रामक समूह से लड़ना तो दूर, संघ के विविध नेता उस की ठकुरसुहाती, सिरोपा करते, उन के लिए संस्थान-इमारतें बनवाते और भरपूर अनुदान, और ‘पेंशन’ तक दे रहे है! संघ-परिवार के नेता देशी-विदेशी मुस्लिम नेताओं को खुश करने की खुली चिन्ता दिखाते हैं, और चिंतित हिन्दुओं को फटकारते हैं। इस तरह, अपने संस्थापक की बुनियादी बातें न केवल छोड़ चुके, बल्कि उन से ठीक उलटी झूठी बातें कहते और करते हैं।

शायद इसीलिए अपने संगठन के आरंभिक 24 साल का इतिहास एवं दस्तावेज तक मानो लुप्त कर चुके हैं। जबकि संघ से भी दशकों पुराने सामाजिक-राजनीतिक संगठनों के विविध आरंभिक दस्तावेज, भाषण, पुस्तिकाएं, प्रस्ताव, आदि उपलब्ध हैं। लेकिन संघ के 1925 से 1950 ई. के बीच का कुछ भी उस की वेबसाइट पर नहीं है। न किसी पुस्तकालय में मिलता है। यहाँ तक कि संघ के संस्थापक की बातों, उन के लेखन, भाषण, प्रस्ताव, नियमावली, आदि को भी मानो नष्ट कर दिया गया है। बल्कि, 1950 के बाद भी अपने ही संघ-लेखकों द्वारा लिखी गई गंभीर पुस्तकों, पुस्तिकाओं को भी हटाया है। क्या इसलिए कि आज संघ की उलटी चाल, या हिन्दू-हितों से दूर हो जाने के प्रमाण कम से कम दिखें? ताकि अपनी ही पुरानी निष्ठाओं से दूरतर होते जाने के विवरण  संघ के वर्तमान सदस्य भी न जान सकें।

इस अर्थ में, हिन्दू समाज के संदर्भ में संघ की वर्तमान स्थति नौ दिन चल कर अढाई कोस आगे नहीं, बल्कि बहुत पीछे, अंधेरे या गढ्ढे में जाने जैसी बात हुई लगती है! उपर्युक्त सभी आकलन केवल इसी एक पुस्तक को पढ़कर भी कोई कर सकता है।

डॉ. हेडगेवार के विचारों के प्रकाश में संघ की वर्तमान स्थिति की यह प्रस्तुति एक सामान्य अवलोकन है। हिन्दू दृष्टि से संघ की आलोचना कोई पहली बार नहीं की जा रही है। स्वयं वीर सावरकर के समय से जानकार और सचेत हिन्दुओं ने संघ में आई, और बढ़ती हुई हानिकारक प्रवृत्तियों, तथा भटकावों पर ऊँगली रखी है। किन्तु संघ नेताओं ने शुतरमुर्गी व्यवहार रखा, अर्थात् कोई उत्तर नहीं दिया। यानी आधिकारिक उत्तर।

संघ के नेता और विशेषकर निचले नेता, कार्यकर्ता आलोचनाओं के उत्तर अपने समर्थकों को बोल-चाल में ही देकर स्वयं संतुष्ट रहते हैं। इस में मनगढंत बातों, आलोचक पर लांछन, झूठे आरोप या अप्रमाणिक ऑकड़े, अथवा असंभव दलीलों का जम कर उपयोग होता है। जैसे, कि आलोचक अलाँ-फलाँ का एजेंट है; या लोभी है जिस की लालसा पूरी न हुई; या पराजित मानसिकता का है; या अपने को तुर्रम खाँ समझता है। अथवा, यह कि ‘यदि संघ न होता तो देश बर्बाद हो जाता’; ‘संघ के बल पर ही ऐसे हिन्दू बोल पा रहे हैं’; आदि। ऐसी काल्पनिक, लचर, गैर-जिम्मेदार दलीलें भी दर्शाती हैं कि आलोचनाओं पर संघ नेता निरुत्तर हैं।

उन में इतना मनोबल भी नहीं कि अपनी ही चालू नीतियों, क्रियाकलापों, बयानों, या चुप्पियों का बचाव करने के लिए भी आधिकारिक रूप से सामने आएं। बल्कि किसी सरसंघचालक  और सर्वोच्च नेताओं (जैसे, गोलवलकर, सुदर्शन, मधोक, वाजपेई, आदि) तक के कथनों या कार्यों से भी पल्ला झाड़ लेते हैं, कि वह उन का ‘व्यक्तिगत’ विचार/कार्य था, ‘संघ का नहीं’। लेकिन तब संघ का विचार-कार्य क्या है?

इस का उत्तर देने के बजाए वे टॉफी कंपनी जैसा प्रचार करते हैं, ‘संघ में आओ, खुद जान जाओ’। इस बचकानी दलील पर वे स्वयं मुग्ध रहते हैं। जबकि अनेक स्वयंसेवकों ने भी लंबे समय तक संघ में कार्य करके हताशा और विश्वासघात का अनुभव किया है। उन की बातें भी इस आलोचना को पुष्ट करती हैं। इसलिए ‘संघ मे आकर ही संघ को जान सकते’ एक मिथ्याडंबर है। ऐसी दलील सभी संगठन पर लागू होती है। तब अल कायदा, इस्लामी स्टेट, या माओवादी संगठनों की निन्दा की क्या तुक?

वस्तुतः किसी संगठन के सार्वजनिक क्रिया-कलाप, उन के नेताओं के विचार, गतिविधियाँ, आदि से उस के बारे में सही राय बनती है। उस के लिए संगठन का सदस्य बनने की कतई आवश्यकता नहीं होती। कोई नेता, दल, या संगठन खुद कुछ भी दावे करे, उस का मूल्याकंन ठोस दिखाई पड़ने वाले उस के सिद्धांत-व्यवहार-परिणामों पर ही होता है। संघ अपने को तीन लोक से न्यारे समझ कर स्वयं भले मुग्ध हो, उस के विचारों, कार्यों, और इतिहास का मूल्याकंन उसी तरह होगा, जैसे सभी संगठनों का होता है। यदि वे इस से बचते हैं, तो इस से उन की दुर्बलता ही झलकती है।

कुल मिला कर यह भारत में हिन्दू समाज की गिरती स्थिति, नेतृत्वहीनता, और संघ-परिवार का भी नैतिक ह्रास दर्शाता है। इसे इस्लामी, क्रिश्चियन संगठनों से तुलना करके भी देखा जा सकता है। संघ-परिवार केवल आकार में बढ़ता गया, परन्तु उस की विशालकाया खोखली और रोगी है। उन के नेताओं की मति भी क्षीण हुई है। इसीलिए उन से शत्रु तो क्या, अन्य छोटे-छोटे हिन्दू दल और क्षेत्रीय नेता भी नहीं डरते। दिल्ली, महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार, बंगाल आदि हर तरह के प्रातों में (जिन में कई जगह संघ के लोग सत्तासीन रहे हैं) विविध घटनाओं, और उन पर संघ-परिवार की चुप्पी  ने यह साफ-साफ दिखाया है कि वे बस कागजी ‘संगठन’ हैं। खुद अपनी प्रशंसा करने में सर्वाधिक समय बर्बाद करते हुए। चाहे हर कहीं, विविध सामाजिक स्थितियाँ कितनी भी बिगड़ती क्यों न चली जाए।

ऐतिहासिक क्रम में देखें तो संघ नेताओं के विचार, नारे, मनोबल, आदि गिरते गए हैं। जबकि इस्लामियों, मिशनरियों, वामपंथियों, यहाँ तक कि कांग्रेसियों तक के विचार और कार्य यथावत हैं। सत्ताविहीन होकर भी उन का मनोबल बड़े-बड़े राज्यों और केंद्र में भी सत्ताधारी रहे संघ-परिवार के नेताओं पर बहुत भारी है। यह एक गंभीर स्थिति है।  (समाप्त)

By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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