राजनीतिक दलों साथ आमतौर पर ऐसा होता है कि वे या तो जनादेश की गलत व्याख्या कर लेती हैं या उसे फॉर गारंटेड मान लेती हैं। कई बार उनको लगता है कि जिस मतदाता समूह ने उनको वोट दिया है वह बंधुआ है या हमेशा वोट देता ही रहेगा तो कई बार वे समझ नहीं पाती हैं कि उनकी कामयाबी में किस मतदाता समूह का कितना योगदान है। कई बार ऐसा भी होता है कि पार्टियां जिनको अपना बंधुआ मतदाता समूह मानती हैं उनको फॉर गारंटेड मान कर दूसरे समूह की चिंता में ज्यादा सिर खपाने लगती हैं। पार्टियों के इस बरताव को समझना कोई बहुत मुश्किल नहीं है। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों की सरकारों के कामकाज और उनकी नीतिगत प्राथमिकताओं से इसे बहुत आसानी से समझा जा सकता है।
पार्टियों के इस व्यवहार पर अभी विचार की जरूरत इसलिए है क्योंकि अगले वित्त वर्ष यानी 2023-24 के आम बजट के जिस आयाम की राजनीतिक नजरिए से सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है वह ये है कि इसमें मध्य वर्ग की चिंता की गई है। बजट से पहले ही इसकी चर्चा शुरू हो गई थी, जब केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था कि वे मध्य वर्ग से आती हैं। यह भी सरासर संयोग है कि उन्होंने जिस दिन अपने को मध्य वर्ग का बताया उसके दो-चार दिन बाद ही उनका एक वीडियो वायरल हुए, जिसमें दिखाया गया कि वे किसी सरकारी काम के सिलसिले में तमिलनाडु गई थीं और उसी क्रम में वे अपने पिता से मिलने अपने घर गईं। वीडियो में उनका जो घर दिखाया गया उसी पूरी तरह से मध्यवर्गीय घर नहीं कहा जा सकता है। वह मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग के बीच का घर था। उस वीडियो के सहारे यह धारणा बनाई गई कि वित्त मंत्री बेहद साधारण परिवार की हैं और इतने बड़े ओहदे पर होने के बावजूद उनका परिवार साधारण तरीके से ही रहता है। इस स्पष्ट परसेप्शन मेकिंग का असली मकसद यह स्थापित करना था कि ऐसी महिला मध्य वर्ग का ध्यान नहीं रखेगी तो भला कौन रखेगा!
ऐसी ‘मध्यवर्गीय’ वित्त मंत्री के बजट पेश करने के बाद सबसे पहली प्रतिक्रिया में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि ‘यह बजट मध्य वर्ग के सपनों को पूरा करने वाला है’। उनकी सरकार की वरिष्ठ मंत्री स्मृति ईरानी ने तो इसे मध्य वर्ग के लिए ‘बोनांजा बजट’ करार दिया। उनके मुताबिक यह मध्य वर्ग को छप्पर फाड़ फायदा देने वाला बजट है। छप्पर फाड़ तो क्या लेकिन हां, जो मध्य वर्ग केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के नीतिगत फैसलों के परिधि से दूर हो गया था उस पर इस बार विचार हुआ है। आठ साल में पहली बार आयकर की दरें बदली गईं। आयकर छूट की सीमा पांच से बढ़ा कर सात लाख रुपए कर दी गई, जिसका निश्चित फायदा मध्य वर्ग को होगा। समावेशी विकास को प्राथमिकता बता कर भी सरकार ने मध्य वर्ग को मैसेज दिया है कि वह उनकी अनदेखी नहीं कर रही है। इनोवेशन, तकनीक आदि में निवेश और उनकी बातों के केंद्र में भी मध्य वर्ग की चिंता है।
असल में 2014 में लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भाजपा ने और उसकी केंद्र सरकार ने मध्य वर्ग को गारंटेड वोट बैंक मान लिया था। इसका मुख्य कारण तो यह था कि बुनियादी रूप से सवर्ण और मध्य वर्ग भाजपा का कोर वोट रहा है। दूसरा कारण यह था कि हिंदुत्व का मुद्दा इतना प्रभावी हो चुका था कि भाजपा मान रही थी कि किसी भी जाति का मध्य वर्ग इससे बाहर नहीं जाएगा। तभी उसने उस समूह पर फोकस किया, जो पारंपरिक रूप से भाजपा का समर्थक नहीं रहा है या जिसका पारंपरिक झुकाव हिंदी पट्टी की प्रादेशिक पार्टियों की ओर रहा है। इस बात को जुलाई 2021 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार में हुई फेरबदल से समझा जा सकता है। उस बदलाव के बाद प्रधानमंत्री ने खुद कहा कि उनकी सरकार में 47 मंत्री पिछड़ा, दलित और आदिवासी समुदाय के हैं। ये समुदाय भाजपा सरकार की नीतियों के भी केंद्र में आ गया था। ऐसा होने में कोई बुराई नहीं है। आखिर ये समुदाय सदियों से वंचित रहे हैं और सरकार उनके लिए कुछ कर रही है तो उसका स्वागत होना चाहिए। लेकिन इस क्रम में मुफ्त अनाज से लेकर किसान सम्मान और प्रधानमंत्री आवास से लेकर आदिवासी कल्याण तक के विषयों की इतनी चर्चा हुई कि फोकस मध्य वर्ग पर से शिफ्ट हो गया। भाजपा की पूरी राजनीति लाभार्थी आधारित हो गई। सिर्फ उसी का वोट गिना जाने लगा। लेकिन जमीनी फीडबैक की वजह से हो या किसी और वजह से, चुनाव से ठीक पहले भाजपा को समझ में आया कि मध्य वर्ग का भी ध्यान रखना होगा क्योंकि संख्या के लिहाज से कम होने के बावजूद समाज पर असर की वजह से वह ज्यादा प्रभावी है। वह चुनाव से पहले नैरेटिव को अपने हिसाब से प्रभावित कर सकता है। इसलिए इस बार बजट में उसका ध्यान रखा गया और उससे ज्यादा ध्यान रखने का प्रचार किया गया।
इसी बात को 2009 की जीत के बाद कांग्रेस पार्टी नहीं समझ पाई थी। भाजपा ने अगर अपने सबसे पक्के समर्थकों को बंधुआ मान कर अनदेखी की थी तो कांग्रेस ने 2009 की जीत में उसकी भूमिका को ही नकार दिया था। उसने 2009 के जनादेश की गलत व्याख्या कर ली थी। उसने कभी माना ही नहीं कि मनमोहन सिंह के पांच साल के राज, उनके मध्यवर्गीय चेहरे और अमेरिका के साथ हुए परमाणु समझौते की वजह से मध्य वर्ग ने कांग्रेस को जम कर वोट दिया। अमेरिका के साथ हुए समझौते से मध्य वर्ग ने कांग्रेस को नए नजरिए से देखना शुरू किया और इसलिए 2009 में उसे वोट किया। यही कारण है कि कांग्रेस उस लोकसभा चुनाव में देश के सभी बड़े शहरों में जीती थी। राजधानी दिल्ली में सात से छह सीटें उसने जीती थीं और मुंबई की भी लगभग सारी सीटें कांग्रेस ने जीती थीं। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में कानपुर, बरेली, झांसी जैसे शहरों में कांग्रेस जीत गई थी। शहरी, सवर्ण और मध्य वर्ग ने उसे वोट किया था। लेकिन चुनाव के बाद कांग्रेस ने अधिकार आधारित नीतियों का जो सिलसिला शुरू किया उसमें उसने मध्य वर्ग की पूरी तरह से अनदेखी कर दी। इसका खामियाजा उसे चुनाव से पहले ही भुगतना पड़ गया। भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम से लेकर अन्ना हजारे के आंदोलन और चुनाव में नरेंद्र मोदी के लिए नैरेटिव बनाने के पूरे अभियान के पीछे मुख्य ड्राइविंग फोर्स मध्य वर्ग रहा।
कांग्रेस इस बात को समझ नहीं सकी या इस मुगालते में रही कि पिछड़े, दलित, वंचित को अधिकार देने वाली उसकी नीतियां उसे पहले से ज्यादा बड़ा बहुमत दिला देंगी। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। दूसरी ओर भाजपा ने इस खतरे को समय रहते भांप लिया और इसे ठीक करने का प्रयास किया। चूंकि मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा वैचारिक रूप से भाजपा के करीब है इसलिए उसकी ओर से किया गया मामूली प्रयास भी बड़े नतीजे दे सकता है।