जनगणना की अधिसूचना भारत के राजपत्र यानी गजेट में जारी कर दी गई है। पांच साल की देरी के बाद जनगणना होने जा रही है, जो 2026 में शुरू होकर एक मार्च 2027 को पूरी होगी। पहाड़ी और बर्फबारी वाले दो केंद्र शासित प्रदेशों, जम्मू कश्मीर व लद्दाख और दो राज्यों हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड में एक अक्टूबर 2026 संदर्भ तारीख है और बाकी देश के लिए एक मार्च 2027 को संदर्भ तारीख तय की गई है। संदर्भ तारीख का मतलब है कि उस दिन तक जन्मे बच्चे की गिनती होगी। बहरहाल, वैसे तो हर बार जनगणना खास होती है क्योंकि उससे देश की वास्तविक तस्वीर सामने आती है। उससे सिर्फ आबादी का आंकड़े पता नहीं चलता है, बल्कि आबादी की आर्थिक सेहत, सामाजिक हैसियत और शैक्षिक स्थित का भी हाल पता चलता है। लेकिन इस बार की जनगणना ज्यादा खास इस वजह से है क्योंकि आजादी के बाद पहली बार जातियों की गिनती होगी और साथ ही जनगणना के आंकड़ों के आधार पर परिसीमन का काम होगा। महिला आरक्षण को भी इसमें जोड़ लें तो इसका महत्व और बढ़ जाएगा। सोचें, आजादी के बाद पहली बार अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के अलावा दूसरी जातियां गिनी जाएंगी और पहली बार एससी और एसटी के अलावा किसी अन्य समूह को संसद और विधानसभाओं में आरक्षण दिया जाएगा। इसी तरह 1973 के बाद यानी पांच दशक के बाद लोकसभा सीटों का परिसमीन होगा।
भारत में आखिरी बार अंग्रेजों के जमाने में 1931 में जातियों की गिनती हुई थी। अभी तक उसी औपनिवेशिक सरकार के आंकड़ों के आधार पर जातियों की संख्या का अनुमान लगाया जाता है। अनुसूचित जाति और अनुसूजित जनजातियों की गिनती हर जनगणना में होती है लेकिन इस बार इनके अलावा भी बाकी जातियों की गिनती होगी। इसका मतलब है कि जो आंकड़ा अनुमानों पर आधारित है उसकी वास्तविकता सामने आएगी। कई जातियों और जातीय समूहों को लेकर बनी धारणा में बदलाव आ सकता है। ध्यान रहे आजादी के बाद भारत में आबादी बढ़ने की दर बहुत ज्यादा थी लेकिन पिछले दो दशक में स्थितियां बदली हैं। कई राज्यों और कई समूहों के बीच प्रजनन दर में कमी आई है और दो चार राज्यों को छोड़ कर ज्यादातर जगहों पर जनसंख्या बढ़ोतरी की दर रिप्लेसमेंट रेट यानी 2.1 फीसदी की दर तक पहुंच गई है। यह बात पक्के तौर पर कही जा सकती है कि पिछले एक सौ साल में जातियों का आंकड़ा बदला होगा। कुछ जातियों की आबादी औसत से ज्यादा बढ़ी होगी और कुछ जातियों की कम हुई होगी। सो, संख्या के आधार पर जातियों के वर्चस्व का मिथक भी जाति जनगणना के आंकड़ों से टूटेगा। इसका सबसे ज्यादा असर राजनीति पर होगा लेकिन समाज भी निश्चित रूप से प्रभावित होगा।
जनगणना में सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति के आंकड़े जुटाए जाएंगे। इस पर दो कारणों से सबकी नजर रहेगी। पहला कारण तो यह है कि पिछले 11 साल में यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में विकास और बदलाव का जो दावा किया जा रहा है उसकी सचाई सामने आएगी। सरकार की ओर से कहा जा रहा है कि कांग्रेस और दूसरी पार्टियों की सरकारों ने आजादी के बाद जो नहीं किया वह सब मोदी सरकार ने कर दिया है। क्या सचमुच ऐसा हुआ है, इसका पता जाति गणना के आंकड़ों से चलेगा? दूसरा कारण यह है कि आर्थिक व शैक्षिक आंकड़ों से आरक्षण की व्यवस्था पर भी असर हो सकता है। हालांकि अभी तक किसी ने कहा नहीं है कि लेकिन अगर जनगणना में पिछड़ी या दलित, आदिवासी समूहों में अगर किसी खास जाति की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक स्थिति बेहतर पाई जाती है तो उसको मिलने वाले आरक्षण पर विचार किया जा सकता है। ध्यान रहे पिछड़े, दलित और आदिवासी समूहों में कुछ जातियां ऐसी हैं, जिनका दर्जा बहुत ऊंचा हो गया है और आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था का अधिकतम लाभ उन्हीं को मिलता है, जबकि सैकड़ों जातियां हर पैमाने पर सबसे पीछे होने के बावजूद सरकार के एफर्मेटिव एक्शन के लाभ से वंचित रह जाती हैं। इस वास्तविकता से अब तक आंख चुराई जाती रही है कि मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद ओबीसी की मझोली जातियों ने आरक्षण का लगभग समूचा लाभ हड़प लिया। राजनीतिक रूप से भी सशक्तिकरण इन्हीं जातियों का हुआ। ओबीसी, एससी और एसटी की ज्यादा वंचित जातियां पहले की तरह हाशिए में ही रहीं। इस बार की जनगणना के आंकड़े आने के बाद इस स्थिति को बदलने वाले कदम उठाए जा सकते हैं।
और भी कारणों से जातियों की गिनती आने वाले दिनों में एक बड़ा मुद्दा बनने वाली है। शुरुआती खबरों में बताया गया है कि सरकार ओबीसी जातियों को एक समूह के तौर पर नहीं गिनने वाली है, बल्कि अलग अलग जातियों की गिनती होगी। ओबीसी जातीय समूह और उनके नेता इसका विरोध कर रहे हैं। उनको लग रहा है कि इससे एक समूह के तौर पर उनकी राजनीतिक और सामाजिक हैसियत घटाने का काम किया जा रहा है। हालांकि ऐसा होता नहीं है। क्योंकि सबको पता है कि कौन कौन सी जाति ओबीसी श्रेणी में है। बाद में उनको एक साथ मिला कर उनका आंकड़ा बताया जा सकता। बिहार में हुई जाति गणना में भी इस किस्म का विवाद हुआ था। मल्लाहों के नेता मुकेश सहनी ने आरोप लगाया था कि मल्लाहों की उप जातियों को अलग अलग कर दिया गया, जबकि यादव और कुर्मी की उपजातियों को एक साथ गिना गया। बाद में मुकेश सहनी ने मल्लाह जाति की सभी उपजातियों को एक साथ रख कर उनका आंकड़ा अखबारों में पूरे पन्ने का विज्ञापन देकर प्रकाशित कराया था। ऐसा ही कुछ जनगणना के बाद ओबीसी समूह कर सकते हैं।
दूसरी समस्या आंकड़ों की शुचिता को लेकर उठने वाले सवालों से आएगी। कर्नाटक में जाति गणना के आंकड़ों को लेकर यह विवाद हो चुका है। वहां लिंगायत और वोक्कालिगा दोनों आरोप लगा रहे हैं कि उनकी आबादी कम बताई गई है और ओबीसी की आबादी ज्यादा बताई गई है। गौरतलब है कि जाति गणना के समय ओबीसी समुदाय के सिद्धारमैया मुख्यमंत्री थे। ऐसे ही बिहार में जाति गणना के समय कुर्मी जाति के नीतीश कुमार मुख्यमंत्री थे और तेजस्वी यादव उप मुख्यमंत्री थे। मुकेश सहनी ने इन दोनों पर निशाना साधा था और कहा था कि अति पिछड़ा समाज के मल्लाहों को उपजातियों में बांट दिया गया, जबकि ताकतवर यादव व कुर्मी के साथ ऐसा नहीं किया गया। ऐसे ही अब भाजपा की सरकार जाति गणना करा रही है तो इसके लिए तैयार रहना चाहिए कि कई समूहों की ओर से इसके आंकड़ों पर सवाल उठाए जाएंगे। हिंदुत्व की राजनीति इससे कैसे प्रभावित होती है और किस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस मंडल और कमंडल की राजनीति को एक साथ साधते हैं वह भी देखने वाली बात होगी।
जातियों की गिनती के अलावा दूसरी अहम बात परिसीमन की है। 1973 के बाद भारत में लोकसभा सीटों का परिसीमन नहीं हुआ है। अटल बिहारी वाजपेयी के समय संविधान में एक संशोधन के जरिए लोकसभा सीटों पर लगाई गई रोक को जारी रखा गया था और कहा गया था कि 2026 के बाद होने वाली जनगणना के आधार पर ही परिसीमन होगा। सो, 2026 के बाद जनगणना हो रही है और उसके अंतिम आंकड़े 2028 तक आएंगे, जिनके आधार पर परिसीमन के काम हो सकता है। ध्यान रहे यह काम अंतरिम आंकड़ों के आधार पर नहीं होगा। तभी परिसीमन को लेकर दोनों तरह की बातें कही जा रही हैं। यानी अंतिम आंकड़े आने में देरी हुई तो शायद 2029 के लोकसभा चुनाव से पहले परिसीमन नहीं हो पाएगा। लेकिन जब भी होगा परिसीमन का मसला उत्तर दक्षिण के विवाद को बढ़ाने वाला होगा। इसे लेकर अब उत्तर भारत के राज्य भी कमर कस रहे हैं। इस पर विस्तार से कल लिखेंगे। (जारी)