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15-06-2025 Vol 19

कितनी लड़ाई लड़ेंगे दक्षिणी राज्य?

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तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन की आमंत्रण पर शनिवार, 22 मार्च को आठ राज्यों के मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री या उनके प्रतिनिधि चेन्नई में जुटने वाले हैं। तमिलनाडु के अलावा केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक के प्रतिनिधि इस बैठक में शामिल होंगे। इनके अलावा दो पूर्वी राज्य, पश्चिम बंगाल और ओडिशा और एक उत्तरी राज्य पंजाब को भी न्योता दिया गया है। इन राज्यों के प्रतिनिधि मुख्य रूप से लोकसभा सीटों के परिसीमन पर चर्चा करेंगे। परिसीमन के अलावा दक्षिणी राज्यों ने कई अन्य मुद्दों पर केंद्र सरकार के खिलाफ लड़ाई छेड़ी है। आंध्र प्रदेश को छोड़ कर तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और तेलंगाना में भाजपा विरोधी दलों की सरकार है। ये सभी सरकारें आशंकित हैं। उनकी आशंका कुछ तो जायज कारणों से है और कुछ राजनीतिक कारणों से भी है। कम से कम चार मसले ऐसे हैं, जिन पर इन राज्यों ने मोर्चा खोला है। एक मसला वित्त का है। दक्षिण भारतीय राज्यों का कहना है कि वे ज्यादा कर दे रहे हैं और जीडीपी में ज्यादा भागीदारी दे रहे हैं लेकिन उस अनुपात में उनको केंद्रीय बजट से कम पैसे मिलते हैं और करों में भी उनकी हिस्सेदारी कम होती जा रही है। दूसरा मुद्दा शिक्षा का है। नई शिक्षा नीति को लेकर ये राज्य केंद्र का विरोध कर रहे हैं। इससे पहले मेडिकल में दाखिले के लिए होने वाली नीट परीक्षा का भी तमिलनाडु ने विरोध किया था। नई शिक्षा नीति के मसले पर तो चार दक्षिणी राज्यों के साथ हिमाचल प्रदेश और झारखंड की दो सरकारें भी शामिल हैं। तीसरा मुद्दा भाषा का है, जिस पर लड़ाई की कमान तमिलनाडु ने संभाली है और चौथा मुद्दा परिसीमन का है, जिस पर सभी दक्षिणी राज्य लड़ने को तैयार हैं और दूसरी विपक्षी पार्टियों को भी इस लड़ाई में शामिल कर रही हैं।

इन सभी मुद्दों की अपनी अपनी जगह पर अहमियत है लेकिन उससे बड़ा सवाल यह है कि क्या इतने मुद्दों पर केंद्र के साथ टकराव का एक खास राजनीतिक व सामाजिक नैरेटिव नहीं बन रहा है, जिससे देश के लोगों में विभाजन बढ़ सकता है और वास्तविक टकराव हो सकता है? क्या इससे तमिलनाडु और दूसरे दक्षिणी राज्यों में केंद्र सरकार के बहाने उत्तर भारत के राज्यों और लोगों के प्रति नाराजगी नहीं बन रही है? तभी जरूरी मुद्दों पर केंद्र के साथ टकराव के बीच भी दक्षिण भारत के राज्यों को सावधानी बरतनी होगी ताकि टकराव उत्तर और दक्षिण का न बने। संभवतः इसी सोच में तमिलनाडु ने पहल करके पूर्वी और उत्तरी राज्यों को अपने साथ जोड़ा है। नई शिक्षा नीति के मसले पर छह राज्यों के शिक्षा मंत्रियों की वार्ता हुई, जिसमें झारखंड और पंजाब को भी रखा गया तो परिसीमन के मसले पर 22 मार्च को बुलाई बैठक में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने सात राज्यों के नेताओं को चिट्ठी लिखी है, जिसमें ओडिशा, पश्चिम बंगाल और पंजाब को भी शामिल किया है। गौरतलब है कि ओडिशा में भाजपा की सरकार है। वहां के मुख्यमंत्री निश्चित रूप से स्टालिन के बुलावे पर चेन्नई नहीं जाएंगे लेकिन उनको चिट्ठी लिख कर स्टालिन ने यह संदेश दिया है कि वे जो मसले उठा रहे हैं वह सिर्फ दक्षिणी राज्यों तक या सिर्फ गैर भाजपा दलों तक सीमित नहीं है।

बहरहाल, दक्षिण के राज्य केंद्रीय करों के बंटवारे और केंद्र सरकार के अनुदान को लेकर काफी समय से अपना विरोध जताते रहे हैं। उनका कहना है कि उन्होंने जनसंख्या के साथ साथ आर्थिकी का बेहतर प्रबंधन किया है। लेकिन इसका लाभ देने की बजाय केंद्र सरकार उनको इसकी सजा दे रही है। उनका यह भी कहना है कि वे ज्यादा राजस्व संग्रह कर रहे हैं लेकिन उसके अनुपात में उनको कम हिस्सा मिल रहा है, जबकि कम राजस्व संग्रह वाले बड़ी आबादी के राज्यों को ज्यादा हिस्सा मिल रहा है। इसका मतलब है कि जिस तरह आबादी ज्यादा होने की वजह से उत्तर भारत के राज्यों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व ज्यादा है उसी तरह आबादी और गरीबी की वजह से उनको वित्तीय मदद भी ज्यादा मिल रही है। इस सिलसिले में पिछले साल फरवरी में डीएमके के एक सांसद ने राजस्व संग्रह और राज्यों के बीच उसके बंटवारे को लेकर संसद में सवाल पूछा था। इसके जवाब में केंद्र सरकार ने बताया कि तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना और केरल ने पिछले पांच वर्षों में प्रत्यक्ष करों के माध्यम से सामूहिक रूप से 22.26 लाख करोड़ रुपए से अधिक का योगदान दिया, जबकि केवल 6.42 लाख करोड़ रुपए ही इन राज्यों को हस्तांतरित किए गए। इसके उलट, उत्तर प्रदेश ने इसी अवधि में सिर्फ 3.41 लाख करोड़ रुपए का योगदान किया और उसे 6.91 लाख करोड़ रुपए आवंटित किए गए। अप्रत्यक्ष कर यानी जीएसटी में निश्चित रूप से उत्तर प्रदेश का योगदान ज्यादा होगा।

असल में 15वें वित्त आयोग ने कर हस्तांतरण के निर्धारक के रूप में 2011 की जनगणना का उपयोग करके उत्तर और दक्षिण के विभाजन को और बढ़ा दिया। इससे पहले आयोग के कामकाज में 1971 और 2011 की जनगणनाओं का मिश्रण शामिल था, उसका उद्देश्य प्रभावी जनसंख्या नियंत्रण उपायों के लिए राज्यों को पुरस्कृत करना था। हालांकि, 2011 की जनगणना पर निर्भरता ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी, जहां उत्तर प्रदेश जैसे बड़ी आबादी वाले राज्यों को काफी अधिक हिस्सा मिलता है, जिससे कम आबादी वाले दक्षिणी राज्य नुकसान में रह जाते हैं। उत्तर प्रदेश को हस्तांतरित करों का 18 फीसदी मिला, जबकि तमिलनाडु को 4.2 फीसदी, कर्नाटक को 3.65 फीसदी, तेलंगाना को 2.13 फीसदी, आंध्र प्रदेश को 4.11 और केरल को सिर्फ 1.96 फीसदी मिलता है। ऊपर से केंद्र सरकार ने हस्तांरित होने वाले करों को स्थिर रखा है और सेस व सरचार्ज बढ़ा दिया है, जो उसके पास ही रह जाता है। प्रत्यक्ष कर पहले से केंद्र सरकार वसूलती है और जीएसटी के जरिए अप्रत्यक्ष कर वसूलने का अधिकार भी केंद्र को दे दिया गया है। ऐसे में राज्यों के पास अपने साधन से राजस्व जुटाने के विकल्प बहुत कम रह गए हैं। वे पेट्रोलियम उत्पादों और शराब से ही कर जुटा सकते हैं। कर जुटाने और बंटवारे की कमान चूंकि केंद्र के हाथ में है और केंद्र की मौजूदा सरकार उत्तर भारत के राज्यों के राजनीतिक समर्थन से बनी है तो दक्षिणी राज्यों में भेदभाव की भावना मजबूत हो रही है।

परिसीमन के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है। उनको लग रहा है कि उत्तरी राज्यों को ज्यादा आर्थिक मदद देने के बाद अब उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी पहले से ज्यादा बढ़ाया जा रहा है। अगर आनुपातिक आधार पर ही लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ती है तब भी उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में ही ज्यादा सीटें बढ़ेंगी। अगर आबादी के अनुपात में बढ़ाया गया तब तो इन राज्यों का संपूर्ण वर्चस्व हो जाएगा। इस मसले पर सात राज्यों के नेता 22 मार्च को विचार करेंगे। संसद के बजट सत्र में कांग्रेस ने भी परिसीमन के मामले पर तमिलनाडु की ओर से उठाई जा रही चिंताओं से सहमति जताई है। हालांकि अभी तुरंत परिसीमन नहीं होने जा रहा है। उससे पहले जनगणना होगी और उसके आंकड़ों के आधार पर परिसीमन होगा, जिसके बारे में अमित शाह ने कह दिया है कि आनुपातिक आधार पर सीटें बढ़ाई जाएंगी। यानी अगर संसद की कुल सीटों की संख्या 20 फीसदी बढ़ाने का फैसला होता है तो सभी राज्यों की सीटों में 20-20 फीसदी की बढ़ोतरी होगी। इस लिहाज से तमिलनाडु में आठ सीटें कम होने का जो नैरेटिव बनाया जा रहा है वह बेबुनियाद हैं। यह अलग बात है कि उत्तरी राज्यों का राजनीतिक वर्चस्व पहले की तरह मजबूत बना रहेगा। जहां तक नई शिक्षा नीति और भाषा का सवाल है तो उसमें भी राजनीति का अंश ज्यादा है और वास्तविक चिंता कम है। लेकिन ऐसा लग रहा है कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव की वजह से तमिलनाडु ने इन भावनात्मक मुद्दों को जोर शोर से उठाया है। चुनाव के बाद ये मुद्दे हाशिए में चले जाएंगे। लेकिन उससे पहले इन मुद्दों को जितनी हवा दी जाएगी, देश की एकता व अखंडता के लिए  चिंता उतनी बढ़ती जाएगी।

अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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