एक बार फिर नीतीश कुमार का समाधि लेख लिखा जा रहा है। पटना से लेकर दिल्ली तक के राजनीतिक विश्लेषक लिख रहे हैं कि नीतीश की लंबी राजनीतिक पारी का अंत आ गया है। एनडीए के सीट बंटवारे में भाजपा और जनता दल यू के बराबर सीटों पर लड़ने और चिराग पासवान की पार्टी को हैसियत से ज्यादा सीट देने के बाद यह चर्चा और तेज हुई है। एक समय नीतीश कुमार के उत्तराधिकारी माने जा रहे प्रशांत किशोर कह रहे हैं कि जनता दल यू इस बार के चुनाव में 25 से ज्यादा सीट नहीं जीतेगा और एनडीए जीत भी गया तो नीतीश मुख्यमंत्री नहीं बन पाएंगे। राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव कई वीडियो शेयर करके बता रहे हैं कि नीतीश अचेतावस्था में हैं और अब राजकाज करने में सक्षम नहीं रह गए हैं।
सहयोगी भाजपा के नेता इस मामले में नीतीश का बचाव करते हुए उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ने की बात कर रहे हैं लेकिन चुनाव के बाद उनको मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा नहीं की गई है। चुनाव से पहले दो स्तर पर नीतीश की विदाई की बात हो रही है। पहला, बिहार की जनता उनको और उनकी पार्टी को वोट नहीं देगी, चुनाव हरवा देगी। और दूसरा, चुनाव जीतने के बाद भाजपा उनको विदा कर देगी। यानी बिहार की जनता भी विदा करेगी और गठबंधन की सहयोगी भाजपा भी करेगी!
इसमें कोई संदेह नही है कि हर राजनेता की पारी का अंत होता है। ज्योति बसु से लेकर पवन चामलिंग और नवीन पटनायक जैसे नेता, जिन्होंने सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने के रिकॉर्ड बनाए वे सब एक समय विदा हुए। वैसे ही नीतीश भी विदा होंगे। उनकी लंबी और बेहद गरिमामय राजनीतिक पारी का भी अंत होगा। लेकिन क्या उस अंत का समय आ गया है? क्या इस चुनाव में ही नीतीश की विदाई हो जाएगी? ऊपर जिन दो स्तरों की बात की गई है उन दोनों पर मौजूदा चुनाव और बिहार की वर्तमान राजनीतिक स्थिति को देखने की जरुरत है। तब पता चलेगा कि नीतीश कुमार कितनी बार ऐसी स्थितियों से गुजरे हैं और कैसे हर बार हालात को मात देकर बाहर निकले हैं।
नीतीश का विदाई गीत पांच साल पहले 2020 में भी लिखा गया था, जब उनकी पार्टी 43 सीट के साथ तीसरे नंबर की पार्टी बनी। एक विदाई गीत 2014 में भी लिखा गया था, जब उनकी पार्टी लोकसभा में सिर्फ दो सीटें जीत पाई थी। उससे पहले अपनी पार्टी बना कर जब वे 1995 का पहला चुनाव लड़े और उस समय की 324 की विधानसभा में सिर्फ छह सीट जीते तब भी उनके अंत की भविष्यवाणी की गई। दूसरे चुनाव में सन 2000 में जब 36 सीट जीते तब भी अंत की घोषणा हुई और फरवरी 2005 में 55 सीट जीत कर भी सरकार नहीं बना पाए तब भी कहा गया कि अब उनका कोई भविष्य नहीं है। लेकिन उसी साल अक्टूबर में 88 सीट जीत कर उन्होंने सरकार बनाई और 20 साल से बिहार में शासन कर रहे हैं। डॉक्टर श्रीकृष्ण सिंह के बाद सबसे सम्मानित और सबसे सफल मुख्यमंत्री माने जा रहे हैं। इसलिए उनका विदाई गीत बहुत सोच समझ कर लिखना होगा। वे बहुत आसानी से विदा होने वाले नहीं हैं। न बिहार की राजनीति से और न मुख्यमंत्री की कुर्सी से!
यह सही है कि भारतीय जनता पार्टी उनको विदा करना चाहती है। लेकिन इसमें क्या नई बात है? भाजपा ने इसका प्रयास 2015 में किया था, जब रामविलास पासवान, जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा के साथ तालमेल करके चुनाव लड़ा था। इसके बाद 2020 में भी किया, जब चिराग पासवान को उम्मीदवार और संसाधन दोनों देकर नीतीश के खिलाफ लड़ाया। लेकिन दोनों बार कामयाबी नहीं मिली। भाजपा के कामयाब नहीं होने का कारण नीतीश की राजनीति है। नीतीश ने भाजपा के साथ रहते हुए पिछले 30 साल की राजनीति में यह सुनिश्चित किया कि भाजपा में कोई बड़ा नेता पैदा न हो और भाजपा का एजेंडा बिहार में स्थापित न हो। इस काम में उन्होंने लंबे समय तक भाजपा के सबसे बड़े नेता रहे सुशील मोदी का भी सहारा लिया। उनके जरिए नीतीश ने भाजपा के हर उभरते नेता को हाशिए में पहुंचा दिया। इसी तरह जब कहा जाता है कि नीतीश ने मुसलमानों को भी सुरक्षा का अहसास कराया और सांप्रदायिक तनाव नहीं पैदा होने दिया तो यह उनके सुशासन के साथ साथ उनकी राजनीति का भी एक दांव था। उनको पता था कि अगर सांप्रदायिक तनाव पैदा होगा तो उसका लाभ भाजपा को मिलेगा। इसलिए उन्होंने ऐसी स्थितियां नहीं बनने दी, जिनसे भाजपा अपने को जमा सके और एक बड़ी ताकत बन सके। नीतीश ने नेतृत्व और एजेंडा दोनों मामलों में भाजपा को अपने ऊपर निर्भर किए रखा।
इस मामले में नीतीश के सफल होने के कुछ ऐतिहासिक कारण भी हैं। असल में बिहार में उत्तर प्रदेश की तरह सांप्रदायिक विवाद का इतिहास नहीं रहा है। इसकी बजाय जाति संघर्ष का इतिहास रहा है। जातियों के बीच सामाजिक स्तर पर तनाव का इतिहास रहा है, जिससे अलग अलग जातीय समूहों का ध्रुवीकरण होता रहा है। तभी नीतीश ने इसको अपना मुख्य दांव बनाया। उन्होंने कर्पूरी ठाकुर के फॉर्मूले पर पिछड़ी जातियों को पिछड़ा और अति पिछड़ा में बांटा तो दलित जातियों को दलित और महादलित में बांटा। पिछड़ी जातियों में वे यादव और गैर यादव का बंटवारा पहले कर चुके थे। अपनी सोशल इंजीनियरिंग में उन्होंने गैर यादव पिछड़ा, अति पिछड़ा और महादलित के साथ सवर्णों को जोड़ा। इसके बाद विकास की एक दूसरी परत जोड़ी। सोशल इंजीनियरिंग और न्याय के साथ विकास यानी सुशासन की इस दो लेयर की राजनीति ने उनकी सत्ता स्थायी बनाई। राष्ट्रीय स्तर पर इसकी तुलना नरेंद्र मोदी की राजनीति से की जा सकती है, जिन्होंने जाति के साथ धर्म और गुजरात मॉडल के विकास की तीन लेयर की बिसात सजाई है, जिससे तीन बार से चुनाव जीत रहे हैं।
बहरहाल, नीतीश कुमार ने जातियों के विभाजन, विकास व सुशासन और भाजपा के एजेंडे को नियंत्रण में रख कर 20 साल सत्ता रखी। लेकिन ऐसा लग रहा है कि 2025 के चुनाव के लिए यह उनको पर्याप्त नहीं लगा तो 2022 में दूसरी बार राजद के साथ सरकार बनाने के बाद उन्होंने जाति गणना कराई। नीतीश ने पहले से जाति में बंटे बिहार में जातीय विभाजन को न सिर्फ और बढ़ा दिया, बल्कि उसको बिल्कुल नीचे तक यानी माइक्रो लेवल तक पहुंचा दिया। अब बहुत कम आबादी वाली जातियों की भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा बढ़ी है और वे सत्ता में हिस्सेदारी के लिए संघर्ष कर रही हैं। चूंकि उनके पास नेता नहीं है इसलिए उनके नेता नीतीश कुमार हैं। जब इन जातियों से नेतृत्व उभरेगा और वे अपनी जाति की पार्टी बनाएंगे और संख्या के आधार पर हिस्सेदारी मांगेंगे तब तक गंगाजी में बहुत पानी बह चुका होगा। नीतीश इन समूहों के नेता इसलिए हैं क्योंकि वे ऐसी जाति से आते हैं, जिसकी संख्या कम है और जो सामान्य रूप से दबंग या लड़ने भिड़ने वाली जाति नहीं मानी जाती है। खुद नीतीश पढ़े लिखे हैं, विनम्र हैं, ईमानदारी के मूल्य को लंबे राजनीतिक जीवन में भी बनाए रखा और परिवारवाद नहीं किया। इसलिए वे बिहार के व्यापक जातीय समूहों में स्वीकार्य हुए। इन तमाम बातों के अलावा नीतीश कुमार, उनकी पार्टी और कुछ हद तक भाजपा ने भी 2025 का चुनाव जीतने के लिए कुछ राजनीतिक, चुनावी और प्रशासनिक बंदोबस्त किए हैं। उन पर कल चर्चा करेंगे। (जारी)