जनगणना की अधिसूचना जारी होने के बाद एक बार फिर परिसीमन की बहस छिड़ गई है। उत्तर बनाम दक्षिण का विवाद शुरू हो गया है। दक्षिण के राज्य परिसीमन के विचार का विरोध कर रहे हैं और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने कहा है कि इस मामले में यथास्थिति रहनी चाहिए और लोकसभा सीटों की संख्या 1971 की जनगणना के आधार पर ही फिक्स रखनी चाहिए। गौरतलब है कि 1971 की जनगणना के आधार पर 1973 में लोकसभा सीटों का परिसीमन हुआ था और उसके बाद से इनकी संख्या नहीं बढ़ाई गई है, जबकि उस समय से अभी तक देश की आबादी करीब तीन गुनी हो गई है। 1971 की जनगणना में भारत की आबादी 55 करोड़ थी, जो अब 145 करोड़ से ज्यादा है। जाहिर है आबादी के अनुपात में लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि 1971 की जनगणना के आधार पर सीटों की संख्या फ्रीज करके रखने से कई व्यावहारिक समस्याएं पैदा हो रही हैं। देश का हर सांसद औसतन 25 लाख से ज्यादा आबादी का प्रतिनिधित्व कर रहा है। अगर क्षेत्रवार आंकड़ा देखें तो दक्षिण भारत में 21 लाख लोगों पर एक लोकसभा सीट है, जबकि पश्चिम भारत में 28 लाख लोगों पर और उत्तर भारत में 31 लाख लोगों पर एक लोकसभा सीट है। केंद्र सरकार ने इस स्थिति को समझते हुए एक नई संसद बनवा ली है, जिसमें निचले सदन यानी लोकसभा में 880 सांसदों के बैठने की व्यवस्था भी कर दी गई है। लेकिन समस्या यह है कि परिसीमन का आधार क्या हो? अगर सिर्फ जनसंख्या के आधार पर परिसीमन होता है तो उत्तर और दक्षिण भारत के बीच का राजनीतिक संतुलन बिगड़ जाएगा। विशाल आबादी की वजह से उत्तर भारत के सांसदों की संख्या बहुत ज्यादा हो जाएगी, जिससे संसद में दक्षिण भारत की राजनीतिक हैसियत कम होगी। इसका एक बड़ा खतरा यह है कि क्षेत्रीय अस्मिता के आधार पर विभाजनकारी राजनीति करने वाले नेता देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा पैदा कर सकते हैं। तभी आबादी के साथ साथ भौगोलिक आकार और आर्थिक स्थिति को भी परिसीमन का आधार बनाने की बात हो रही है। जो हो परिसीमन तो करना ही होगा क्योंकि 1973 की संख्या 2029 में भी बनाए रखना कोई समझदारी की बात नहीं है।
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने पिछले दिनों परिसीमन रूकवाने की बड़ी एक्सरसाइज की। उन्होंने दक्षिण के राज्यों के साथ लेकर एक ज्वाइंट एक्शन कमेटी बनाई। तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल के अलावा स्टालिन अपने अभियान में पश्चिम बंगाल, ओडिसा, पंजाब और झारखंड को भी जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि परिसमीन पर अगले 30 साल के लिए रोक लग जाए। यानी 2054 के लोकसभा चुनाव में भी लोकसभा की 543 सीटें ही रहें। सोचें, उस समय तक देश की आबादी 170 करोड़ से ज्यादा होगी और तब भी 543 ही सांसद रहें, यह मांग व्यावहारिक नहीं कही जा सकती है। स्टालिन और दक्षिण भारत के राज्य कोई दूसरा व्यावहारिक या वैज्ञानिक समाधान नहीं सुझा रहे हैं। ऐसे में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की ओर सुझाया गया प्रो राटा बेसिस का फॉर्मूला सबसे व्यावहारिक दिख रहा है। इसका मतलब है कि हर राज्य की मौजूदा सीटों में समान अनुपात में बढ़ोतरी कर दी जाए। मिसाल के तौर पर अगर उत्तर प्रदेश की सीटें 20 फीसदी बढ़ती हैं तो तमिलनाडु की सीट भी 20 फीसदी बढ़ा दी जाए। इससे मौजूदा संतुलन बना रह जाएगा। लेकिन क्या इससे उत्तर भारत का बड़ी आबादी की आकांक्षा पूरी होगी? क्या समान अनुपात में सीटें बढ़ाई जाती हैं तो उत्तर भारत के राज्यों को क्या फायदा होगा, जहां की आबादी बहुत बड़ी है? दक्षिण भारत की चिंताएं अपनी जगह हैं लेकिन उत्तर भारत का पक्ष समझना भी जरूरी है।
यह वास्तविकता है कि स्टालिन और दक्षिण भारत के अन्य नेताओं की जो चिंता है कई ऐतिहासिक तथ्यों की अनदेखी करने वाली है। प्राइम मिनिस्टर मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी से जुड़े इतिहासकार रवि के मिश्रा ने तमाम ऐतिहासिक तथ्यों को सामने रख कर इस मिथक को तोड़ा है कि दक्षिण भारत के मुकाबले उत्तर भारत के राज्यों में आबादी बहुत ज्यादा बढ़ी है और उससे संतुलन बिगड़ा है। असलियत यह है कि 1871 में जब पहली जनगणना हुई थी उसके बाद से लेकर अभी यानी डेढ़ सौ साल के कालखंड को देखें तो पहले एक सौ साल तक दक्षिण भारत की आबादी बेहिसाब बढ़ी और उन राज्यों ने इसका फायदा उठाया। 1871 से 1951 तक दक्षिण भारत के राज्यों की आबादी उत्तर के मुकाबले बहुत तेजी से बढ़ी। केरल देश का पहला राज्य है, जिसकी आबादी 1871 की जनगणना के बाद दोगुनी हुई। केरल की आबादी 1931 आते आते 50 लाख से बढ़ कर एक करोड़ हो गई। अगले 40 साल में केरल की आबादी फिर दोगुनी हो गई। 1971 आते आते उसकी आबादी दो करोड़ हो गई थी। इसके बाद आबादी दोगुना करने वाला दूसरा राज्य तमिलनाडु था। यानी खूब तेजी से आबादी बढ़ने के बाद उसके स्थिर होने का दौर शुरू हुआ। इस अवधि में उत्तर भारत में आबादी नहीं बढ़ी, बल्कि कई दशक तो ऐसे आए, जब आबादी कम हो गई। इतिहास में कई अकाल का जिक्र मिल जाएगा, जिसमें बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश के करोड़ों लोग भूख से मर गए थे। उसी अवधि में दक्षिण के राज्यों की आबादी बढ़ रही थी।
उत्तर भारत के राज्यों की आबादी बढ़ने की दर 1881 से 1951 तक सबसे कम थी। देश के किसी भी क्षेत्र के मुकाबले उत्तर भारत में कम दर से आबादी बढ़ी। उत्तर भारत में आबादी 1951 के बाद तेजी से बढ़ी। रवि के मिश्रा ने अपनी किताब में जो आंकड़ा दिया है उसके मुताबिक 1881 से 1971 के बीच उत्तर भारत में आबादी बढ़ने की दर सबसे धीमी थी। 1881 से 1971 के बीच सबसे ज्यादा 213 फीसदी की दर से आबादी पूर्वी भारत में बढ़ी और उसके बाद 193 फीसदी की दर से दक्षिण भारत में बढ़ी। पश्चिमी भारत में आबादी 168 फीसदी की दर से बढ़ी और उत्तर भारत में जनसंख्या बढ़ने की दर सिर्फ 115 फीसदी थी। इस अवधि में यानी इन 90 बरसों में भारत की आबादी 156 फीसदी बढ़ी। इसका मतलब है कि उत्तर भारत यानी हिंदी बोलने वाली पट्टी में आबादी बढ़ने की दर राष्ट्रीय औसत से भी बहुत कम थी, जबकि बाकी तीनों क्षेत्रों में राष्ट्रीय औसत से ज्यादा दर से आबादी बढ़ी।
सबसे दिलचस्प आंकड़ा यह है कि नई सदी में भी उत्तर भारत की आबादी बहुत असंतुलित अनुपात में नहीं बढ़ रही थी। 2001 की जनगणना के मुकाबले 2011 की जनगणना में देश की आबादी में उत्तर भारत का हिस्सा 50 फीसदी से घट कर 46 फीसदी हो गया। 1881 में देश की आबादी में दक्षिण भारत के चार राज्यों का हिस्सा 22 फीसदी था, जो 1951 में बढ़ कर 28 फीसद हो गया। 1971 में भी दक्षिण के राज्यों का हिस्सा 25 फीसदी था। जाहिर है कि दक्षिण के राज्य जनसंख्या बढ़ने की सर्वोच्च दर तक पहुंच चुके थे और उसके बाद उनकी आबादी स्थिर हुई। उसके बाद उत्तर भारत के राज्यों की स्थिति में सुधार हुआ। यह कहना पूरी तरह से गलत होगा कि सिर्फ परिवार नियोजन का पालन नहीं करने या अज्ञान व अशिक्षा की वजह से उत्तर भारत में आबादी बढ़ी। कह सकते हैं कि बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं दक्षिण के मुकाबले देर से उत्तर भारत में पहुंचीं, जिससे शिशु मृत्यु दर कम हुई और वहां आबादी बढ़ने की दर तेज हुई। इसलिए इस आधार पर उत्तर भारत को उसके अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। ध्यान रहे दक्षिण के राज्य अपनी आबादी का लाभ पहले ले चुके हैं। यह स्थिति वैसी ही हो गई, जैसे किसी भोज में ब्राह्मण और दूसरे सम्भ्रांत लोग भोजन कर लें और अन्य लोगों की बारी आए तो कहें कि अब भोज नहीं होगा क्योंकि दूसरे लोग ज्यादा खाते हैं। आबादी का लाभ ले चुके दक्षिणी राज्य उत्तर भारत को उसकी जनसंख्या का लाभ लेने से रोक नहीं सकते हैं। यह भी ध्यान रखने की जरुरत है कि उत्तर का लाभ सिर्फ राजनीतिक है। औद्योगिक विकास और आर्थिक तरक्की का भी बड़ा लाभ दक्षिण को ही मिला है।