कांग्रेस के नेता राहुल गांधी इन दिनों मूर्तिभंजन में लगे हैं। वे प्रतिमाओं के सिंदूर खरोंच रहे हैं। वे इस संकल्प और रणनीति के साथ काम कर रहे हैं कि अगर हम चुनाव नहीं जीत सकते हैं तो चुनाव की पूरी प्रक्रिया को संदिग्ध बना दिया जाए। अगर हम किसी मुकदमे में फंसे हैं तो जांच की पूरी प्रक्रिया और हर जांच एजेंसी को संदिग्ध बना दिया जाए। अगर हमारी खबरों को प्रमुखता से जगह नहीं मिलती है तो मीडिया की साख को संदिग्ध बना दिया जाए।
अगर कारोबारी हमें चंदा नहीं देते हैं या कम देते हैं तो सभी कारोबारियों को क्रोनी कैपिटलिस्ट साबित कर दिया जाए। अगर अधिकारी हमें सलामी नहीं देते हैं तो पूरी नौकरशाही को भ्रष्ट और सरकार का पिछलग्गू बता दिया जाए। अगर न्यायपालिका से मनमाफिक फैसला नहीं आता है तो उसे सरकार के लिए प्रतिबद्ध बता दिया जाए। इस तरह वे हर संस्था को तहस नहस करने की दिशा में बढ़ गए हैं। ऐसी अराजक राजनीति कुछ समय पहले आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल ने शुरू की थी। हालांकि मुख्यमंत्री रहने और दो राज्यों में सरकार बनाने के बाद उनकी राजनीति में ठहराव आ गया है।
अब राहुल गांधी ने केजरीवाल की राजनीतिक किताब का एक पन्ना खोल कर उसे पढ़ना शुरू किया है। हालांकि दोनों में फर्क यह है कि केजरीवाल ने अपनी राजनीतिक पार्टी 2012 में बनाई, जबकि राहुल गांधी की पार्टी कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है और सबसे लंबे समय तक सत्ता में रही है। सत्ता भी सबसे लंबे समय तक राहुल गांधी के परनाना, उनकी दादी और उनके पिता के हाथ में रही है। परोक्ष रूप से 10 साल तक शासन उनकी मां और उनके हाथ में भी रहा है। कांग्रेस ने अपने लंबे शासन में संस्थाओं को जो रूप दिया और जिस तरह से संस्थाओं का इस्तेमाल किया आज भी संस्थाएं उसी तरह से काम कर रही हैं। कह सकते हैं कि उसके मुकाबले गिरावट ज्यादा आ गई है। तब भी यह सिर्फ डिग्री का ही फर्क है।
सोचें, राहुल गांधी चुनाव की पूरी प्रणाली को मर चुका बता रहे हैं। कांग्रेस को इस बात पर आपत्ति है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को हटा कर सरकार के एक कैबिनेट मंत्री को रखा गया। लेकिन कांग्रेस के लंबे शासनकाल में तो सीधे सरकार ही चुनाव आयुक्तों को नियुक्त करती थी! राहुल गांधी के सक्रिय राजनीति में आने के बाद कांग्रेस पार्टी ने मुख्य चुनाव आयुक्त के पद से रिटायर हुए एमएस गिल को मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्री बनाया था।
राहुल के सक्रिय राजनीति में आने के बाद परिवार के प्रति निष्ठावान नवीन चावला को चुनाव आयुक्त बनाया गया था। इतना ही नहीं उन पर विवाद होने के बावजूद उनको मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया गया। लेकिन अब राहुल इस बात पर सवाल उठा रहे हैं कि चुनाव आयुक्त को प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और एक कैबिनेट मंत्री की सदस्यता वाली कमेटी क्यों चुनती है? क्या वे चाहते हैं कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति विपक्ष को करने दिया जाए?
इसी तरह राहुल गांधी जब चुनाव आयोग पर वोट चोरी करने का आरोप लगाते हैं तो क्या कोई उनको 1987 के जम्मू कश्मीर के चुनाव की याद नहीं दिलाता है? कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस गठबंधन को चुनाव जिताने के लिए उस समय क्या किया गया था, यह इतिहास में दर्ज है। वैसी धांधली, वैसा जुल्म, वैसी वोट की चोरी आजाद भारत के इतिहास में तो नहीं देखी गई है। कांग्रेस चुनाव तो जीत गई, लेकिन चुनाव के बाद जम्मू कश्मीर के लोगों का दिल्ली के शासन से ऐसा मोहभंग हुआ कि लोग आजादी चाहने लगे, जिससे पाकिस्तान को मौका मिला और पूरा प्रदेश आतंकवाद व छद्म युद्ध की चपेट में आ गया। उस वोट के लूट की जिम्मेदार राजीव गांधी की केंद्र सरकार थी। ऐसी अनेक और भी मिसालें दी जा सकती हैं। सबको यहां लिखने की जरुरत नहीं है।
ऐसे ही वे न्यायपालिका से लेकर जांच एजेंसियों और मीडिया से लेकर कॉरपोरेट तक को कठघरे में खड़ा करते हैं। वे कांग्रेस का इतिहास भूल जाते हैं या उनको जानकारी ही नहीं है कि मौजूदा सिस्टम कांग्रेस का ही बनाया हुआ है। अभी तो कम से न्यायपालिका में वरिष्ठता के आधार पर नियुक्ति हो रही है। इंदिरा गांधी ने तो वरिष्ठता के नियम को ही बदल दिया था। उन्होंने 1973 में जस्टिस एमएन शेलत, जस्टिस एएन ग्रोवर और जस्टिस केएस हेगड़े की वरिष्ठता को दरकिनार करके चौथे नंबर के जज जस्टिस अजित नाथ रे को चीफ जस्टिस बनाया था और चार साल बाद 1977 में जस्टिस हंसराज खन्ना की वरिष्ठता को दरकिनार करके जस्टिस हमीदुल्ला बेग को चीफ जस्टिस बनाया था।
गौरतलब है कि जस्टिस हंसराज खन्ना ने इमरजेंसी में मौलिक अधिकार निलंबित करने के इंदिरा गांधी सरकार के फैसले की आलोचना की थी और उसके खिलाफ अपना निर्णय़ दिया था। ध्यान रहे जजों के रिटायर होने के बाद उनको मलाईदार पदों पर बैठाने का चलन भी कांग्रेस ने ही शुरू किया। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष कोई रिटाय़र चीफ जस्टिस ही होगा यह नियम कांग्रेस की सरकार ने बनाया और सबसे पहले जस्टिस रंगनाथ मिश्र उस पद पर बैठे।
कारोबारियों का मामला भी कुछ अलग नहीं है। राहुल गांधी आरोप लगाते हैं कि देश की सारी संपत्ति चार पांच लोगों के हाथ में सौंप दी गई है। यह चलन भी कांग्रेस का ही शुरू किया हुआ है। आजादी के बाद सोवियत मॉडल पर कंपनियों को लाइसेंस बांटे जाते थे। राहुल गांधी के दादा फिरोज गांधी ने इसमें गड़बड़ी के आरोप लगाए थे। हालांकि तब कोई जांच नहीं हो सकी लेकिन उनके निधन के कई साल बाद 1967 में इसकी जांच के लिए आरके हजारी के नेतृत्व में हजारी कमेटी का गठन किया गया था। कमेटी ने इंडस्ट्री डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन एक्ट 1951 के तहत दिए गए लाइसेंसों की समीक्षा की थी। बाद में इस कमेटी की रिपोर्ट पर आगे की कार्रवाई के लिए सुबिमल दत्ता की कमेटी बनी थी। इन दोनों की रिपोर्ट में कहा गया कि लाइसेंसिग नीति में भ्रष्टाचार है और चुनिंदा कंपनियों को मदद की जा रही है। यहां तक रिपोर्ट आई कि आजादी के बाद जितने लाइसेंस बांटे गए थे उनमें से 60 फीसदी से ज्यादा लाइसेंस सिर्फ एक कंपनी, बिड़ला समूह को दिए गए थे।
जहां तक केंद्रीय एजेंसियों का सवाल है तो कांग्रेस के शासन में ईडी ने 65 फीसदी मुकदमे विपक्षी पार्टियों के नेताओं और उनके करीबियों पर किए थे और अब 95 फीसदी मामले ऐसे हो रहे हैं। तो यहां भी फर्क सिर्फ डिग्री का है, पैमाने का है। पहले भी एजेंसियां सरकार में बैठे लोगों के विरोधियों को परेशान करने के लिए काम करती थीं और आज भी करती हैं। राज्यों में जहां जिस विपक्षी पार्टी की सरकार है वहां वह दूसरी पार्टियों के खिलाफ राज्य की एजेंसियों का ऐसे ही इस्तेमाल कर रही हैं। इसी तरह जब तक कांग्रेस पार्टी ताकतवर रही मीडिया उसकी चरणवंदना करता रहा और जब कमजोर हुई तो उस पर टूट पड़ा। आज भाजपा ताकतवर है तो मीडिया उसके चरणचुंबन कर रहा है।
इसलिए ऐसा नहीं है कि पिछले 10 साल में सब कुछ पूरी तरह से बदल गया है या बिल्कुल नई कार्य संस्कृति आ गई है। कार्य संस्कृति पुरानी ही है फर्क सिर्फ इतना है कि उसकी डिग्री बढ़ा दी गई है। कांग्रेस ने सत्ता की हनक और सत्ता के इस्तेमाल का एक तरीका विकसित किया, आज भाजपा की सरकार उसी तरीके से काम कर रही है। कह सकते हैं कि कांग्रेस सत्ता का, एजेंसियों का, संस्थाओं का इतना दुरुपयोग नहीं करती थी। ठीक है, थोड़ा कम दुरुपयोग करती थी। लेकिन सदुपयोग तो बिल्कुल ही नहीं करती थी।
फिर उसे क्यों भाजपा के दुरुपयोग पर इतनी आपत्ति है? पहले भी सत्ता का दुरुपयोग होता था और आज भी हो रहा है। पहले भी जनता ऐसे ही भगवान भरोसे थी और आज भी है। असल में राहुल गांधी यह नहीं चाहते हैं कि सत्ता का दुरुपयोग रूके, बल्कि वे सत्ता बदल कर अपने हाथ में लेना चाहते हैं। उनको ध्यान रखना चाहिए कि सत्ता हासिल करने के लिए राजनीतिक लड़ाई लड़नी होगी। संस्थाओं की साख बिगाड़ने और हर प्रतिमा से सिंदूर खरोंचने से सत्ता नहीं मिलेगी। यह नहीं हो सकता है कि वे चुनाव आयोग की साख बिगाड़ देंगे तो उनको सत्ता मिल जाएगी। सत्ता के लिए उनको जनता के बीच जाकर लड़ना होगा, जिसमें वे अब तक बेहद कमजोर साबित हुए हैं।