कांग्रेस नेता राहुल गांधी को मानहानि मामले में दो साल की सजा होने और लोकसभा के लिए अयोग्य घोषित किए जाने के बाद उनको लेकर दो तरह से विचार किया जा रहा था। एक, अगर उनकी सजा पर रोक नहीं लगती है और वे अगला चुनाव नहीं लड़ पाते हैं तो क्या होगा? दो, सजा पर रोक लग जाती है, लोकसभा की सदस्यता बहाल हो जाती है और अगला चुनाव लड़ने का रास्ता साफ हो जाता है तब क्या होगा?
कांग्रेस और विपक्षी पार्टियों के कई नेता मान रहे थे कि अगर राहुल की सजा बरकरार रहती है और वे चुनाव नहीं लड़ पाते हैं तो वह स्थिति ज्यादा बेहतर होगी क्योंकि तब राहुल को पूरे देश में विक्टिम की तरह पेश किया जा सकेगा, जैसे अरविंद केजरीवाल बात बात पर खुद को विक्टिम बना कर पेश करते रहते हैं। ध्यान रहे पीड़ित और कमजोर के साथ हमेशा इस देश के लोगों की सहानुभूति होती है।
राहुल ने भी खुद को विक्टिम की तरह पेश करना शुरू कर दिया था। वे पिछले दिनों हरियाणा के किसानों से मिले तो महिला किसानों ने उनका घर देखने की इच्छा जताई, जिस पर उन्होंने कहा कि उनके पास दिल्ली में घर नहीं है। सरकार ने उनका घर छीन लिया है। दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में घर तलाशने और संदीप दीक्षित का घर किराए पर लेने की खबर भी राहुल को विक्टिम बता कर पेश करने की रणनीति का ही एक हिस्सा था। बहरहाल, घर का मामला एक छोटा मामला है।
उनके विक्टिम होने को बहुत बड़ा बता कर चुनाव में पेश किया जा सकता था। सरकार पर विपक्ष की आवाज दबाने के आरोप तो लगते ही यह भी आरोप लगता कि नरेंद्र मोदी चुनाव में राहुल गांधी से घबरा रहे थे इसलिए उनको लड़ने के अयोग्य कराया गया। इससे कांग्रेस को फायदा होता। विपक्षी राजनीति को दूसरा फायदा यह होता कि राहुल गांधी अपने आप प्रधानमंत्री पद की होड़ से बाहर हो जाते। वे अगर विपक्ष का चेहरा रहते भी तो वह चेहरा सत्ता से निर्लिप्त जयप्रकाश नारायण जैसे किसी नेता का चेहरा होता।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने उनकी सजा पर रोक लगा दी है और अब उनके लोकसभा का चुनाव लड़ने का रास्ता भी साफ हो गया है। उनको फिर से बड़ा घर भी मिल जाएगा। सो, विक्टिम कार्ड समाप्त हो गया। तभी सवाल है कि अब आगे क्या? क्या कांग्रेस ने इस स्थिति के लिए कोई योजना बनाई है कि सजा पर रोक लगने के बाद राहुल को विपक्ष की राजनीति में किस तरह से प्लेस करना है? ध्यान रहे राहुल गांधी को सक्रिय राजनीति में 20 साल होने जा रहे हैं लेकिन पिछले एक साल में वे एक बड़ा राजनीतिक व्यक्तित्व बन कर उभरे हैं। उनकी साढ़े तीन हजार किलोमीटर की भारत जोड़ो यात्रा ने उनके व्यक्तित्व और उनकी राजनीति को निखारा है। कांग्रेस को इसका चुनावी लाभ भी मिला है।
भारत जोड़ो यात्रा में उठाए गए मुद्दों और उन मुद्दों पर दुनिया के दूसरे देशों में जाकर राहुल ने अपनी जो राय रखी है उसने उनको भाजपा की राजनीति के सबसे मजबूत विकल्प के तौर पर पेश किया है। विपक्ष की ओर से भाजपा पर विभाजनकारी राजनीति करने और संघवाद की धारणा पर चोट करने के आरोप लगाए जाते रहे हैं। भाजपा की इस राजनीति के कंट्रास्ट के रूप में राहुल गांधी उभरे हैं। नफरत की राजनीति के बरक्स मोहब्बत की दुकान की राहुल की राजनीति स्वाभाविक रूप से उनको भाजपा के खिलाफ विपक्ष का चेहरा बनाती है।
परंतु इस राजनीति में जोखिम भी हैं। पहला जोखिम तो यह है कि अगर कांग्रेस राहुल गांधी को वैकल्पिक राजनीति का चेहरा बनाती है तो मुकाबला नरेंद्र मोदी बनाम राहुल का बनेगा। पिछले नौ-दस साल में नरेंद्र मोदी की छवि विश्वगुरू वाली बनाई गई है। जी-20 देशों की बैठक से उनकी यह छवि और मजबूत होगी। वे हिंदुत्व और राष्ट्रवाद दोनों की राजनीति का चेहरा बने हैं। उनको मजबूत व निर्णायक नेतृत्व का प्रतीक माना जाता है। वे पिछड़ी जाति से आते हैं और परिवार की पृष्ठभूमि गरीब रही है। इस बात का प्रचार करने में उनको कोई हिचक नहीं होती है।
उनके मुकाबले राहुल गांधी की छवि अभिजात्य है। उनको भाजपा के नेता फोर जी यानी चौथी पीढ़ी का परिवारवादी नेता बताते हैं। उनकी भारत जोड़ो यात्रा के बाद उनको पप्पू की तरह पेश किया जाना बंद हुआ है इसके बावजूद एक रिलक्टेंट नेता की उनकी छवि पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है। सो, अभी के समय में मुकाबले दीये और तूफान का दिखेगा। हालांकि फिर वही बात है कि भारत में अंडरडॉग के साथ सहानुभूति होती है और दीया जलाए रखने वाला अंततः जीत हासिल करता है। लेकिन वह बाद की बात है। अभी नरेंद्र मोदी के मुकाबले राहुल की बात होगी तो पलड़ा मोदी की ओर झुका हुआ दिखेगा।
राहुल को राजनीति की केंद्रीय ताकत बनाने में दूसरा जोखिम यह है कि विपक्षी पार्टियों के बीच तनाव बढ़ सकता है। ध्यान रहे विपक्ष के गठबंधन ‘इंडिया’ से जुड़ी कई पार्टियों के नेता अपने को दावेदार मानते हैं। कई नेता बुजुर्ग हैं और उनके लिए अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने का यह आखिरी मौका दिख रहा है। सो, उनको राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए समझाना आसान नहीं होगा। ध्यान रहे पिछले दिनों महाराष्ट्र में एनसीपी टूटी तो यह कहा गया है कि एनसीपी के कई नेता नहीं चाहते थे कि शरद पवार जैसा बड़ा मराठा नेता राहुल गांधी के नेतृत्व में काम करे।
हो सकता है कि इस बात में सचाई न हो लेकिन यह तब की बात है, जब राहुल की सजा कायम थी और उनके नेता बनने की कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही थी। अगर अब कांग्रेस उनको नेता बनाने की पहल करती है तो उससे निश्चित रूप से विपक्षी पार्टियों के साथ टकराव की स्थिति बनेगी। अपनी निजी महत्वाकांक्षा के अलावा विपक्ष के ज्यादातर नेता इस बात को मानते हैं कि राहुल के चेहरे पर मोदी से मुकाबला मुश्किल होगा।
सो, कायदे से कांग्रेस को यथास्थिति बनाए रखनी चाहिए। यानी गठबंधन के बाकी नेताओं की तरह ही राहुल गांधी भी सामूहिक नेतृत्व में काम करें। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और दूसरे विपक्षी नेताओं को पर्याप्त महत्व व सम्मान मिले। यह ध्यान रखने की बात है कि ‘इंडिया’ से जितने भी नेता जुड़े हैं उनका अपने राज्य में बहुत मजबूत असर है और उनमें से ज्यादातर नेताओं ने अपने राज्य में नरेंद्र मोदी के होने के बावजूद भाजपा को हराया है। कई विपक्षी पार्टियां अपने असर वाले राज्य में भाषायी अस्मिता की राजनीति करती हैं, जिससे मोदी और भाजपा के लिए मुश्किल होती है। कई राज्यों में मंडल की राजनीति दोहराने का प्रयास हो रहा है, जिससे भाजपा की मंदिर राजनीति कमजोर पड़ती है।
इसलिए विपक्ष के लिए कोई एक चेहरा चुनना वैसे भी बड़ी रणनीतिक गलती हो जाएगी। सो, कांग्रेस और उसके नेताओं को अति उत्साह में आकर राहुल गांधी को प्रोजेक्ट या सबके ऊपर उनको थोपने की राजनीति से बचना चाहिए। साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि नरेंद्र मोदी को चुनौती देने वाले नेता की जो छवि राहुल गांधी की बनी है, उसका लाभ जरूर उठाया जाए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राहुल को मोदी को हरा देने वाले नेता के तौर पर देखा जा रहा है। उनकी इस छवि को भुनाने की रणनीति अगर सभी पार्टियां मिल कर बनाती हैं तो वह ‘इंडिया’ के लिए आदर्श स्थिति हो सकती है।
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