यह समय किसी भी किस्म की रस्साकशी का नहीं है। लगातार अराजक होते जा रहे सोशल मीडिया मंच और उतना ही स्वेच्छाचारी मुख्यधारा मीडिया ऐसे अवसरों पर हमारी संवेदनाओं को कृत्रिम उबाल दे कर दरअसल उन्हें भोथरा बनाने का काम कर रहे हैं। उन के लिए हर घटना रंगमंचीय प्रस्तुति का विषय बन गई है। वे समझते हैं कि दृश्यों को उन की ज़रूरत के मुताबिक पठन, चित्रण, संगीत और रंगों में संयोजित कर के उछलकूद के अंदाज़ में पेश कर देना पत्रकारिता है।
अहमदाबाद विमान हादसे ने पूरे देश को झकझोर रखा है। यह त्रासदी, ज़ाहिर है कि, मामूली नहीं है। यह आधुनिकतम तकनीक और सर्वोत्तम मानवीय कौशल के अंततः असहाय हो जाने की मजबूरी का चरम और बेहद दुःखद उदाहरण है। 265 लोगों की जान लील लेने वाली इस विपत्ति के पीछे के कारणों को ले कर अभी जितने मुंह, उतनी बातें हैं। यह बोइंग के 787-8 डिज़ाइन में किसी गंभीर ख़ामी का नतीजा है या उड़ान संचालन के दौरान हुई किसी चूक का या किसी अनसोची साज़िश का – इस की तफ़सील पूरी जांच के बाद सामने आएगी। मगर मुख्यधारा के हमारे मीडिया के पर्दे-पन्ने और सोशल मीडिया के हमारे डॉन क्विक्ज़ोटी मंच पिछले दो दिनों से लालबुझक्कड़ी निष्कर्षों की मूसलाधार से लबरेज़ हैं।
सुख हो, दुःख हो – सब में समान रहने की यह अद्भुत क्षमता भारतवासियों की जन्मघुट्टी में है। वे हर हाल में अपने ज्ञान प्रसार संस्थान का एक पिटारा साथ लिए घूमते हैं और मौक़ा मिलते ही अपनी विश्लेषण-प्रतिभा का प्रदर्शन करने में जुट जाते हैं। जब से सूचना जगत में ऐप और ट्यूब आधारित मुक्ताकाशी विश्वविद्यालयों की स्थापना का युग आरंभ हुआ है, सर्वज्ञाता-भाव लिए विचर रहे स्व-नियुक्त विशेषज्ञों का सैलाब आ गया है। बरसों के अध्ययन, चिंतन और मनन के बाद अलग-अलग विधाओं में महारत हासिल करने वाले ऋषि-मनीशियों की आवाज़ दादुरों के नक्कारखाने में तूती बन गई है। तमाशबीनों के भभ्भड़ में अर्थपूर्ण स्वर ग़ायब होते जा रहे हैं।
त्रासदियां कह कर नहीं आतीं। वे बेतरह स्तब्ध करती हैं। हताश करती हैं। उन से शांत आसमान में सामूहिक अवसाद के अशांत बादल उठते हैं। त्रासदियों की प्रकृति स्वयमेव हो या प्रायोजित, आम लोगों के लिए उन की आकस्मिकता के झटके से उबरना आसान नहीं होता है। उन की छाप लोकमानस पर बरसों-बरस चस्पा रहती है। अहमदाबाद के ताज़ा हादसे ने 27 साल पहले वहीं हुई विमान दुर्घटना को कइयों के मन में फिर कुरेद दिया होगा। अक्टूबर 1988 में तब भी उड़ान भरते समय ही इंडियन एयर लाइन्स का विमान हवाई अड्डे से दो किलोमीटर दूर ही पहुंचा था कि गिर गया था। 135 में ये 133 यात्री मारे गए थे। गुरुवार के हादसे ने 29 साल पहले चरखी दादरी के आसमान में टकराए दो विमानों के ज़ख़्म भी हरे कर दिए। तब 349 लोग मारे गए थे।
मारे गए यात्रियों की संख्या के हिसाब से अहमदाबाद का यह हादसा देश में अब तक का दूसरा सब से बड़ा हादसा है। वह दूसरा सब से बड़ा न होता तो भी प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी को वहां जाना चाहिए था। मैं तो कहता हूं कि राहुल गांधी को भी जाना चाहिए। गुजरात अकेले नरेंद्र भाई और अमित भाई शाह का ही नहीं है। वह उतना ही राहुल, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव और ममता बनर्जी का भी है। जो यह सोचते हैं कि ऐसे मौक़ों पर जाने-न-जाने से क्या ज़मीनी फ़र्क़ पड़ता है, वे भारतीय मानस की संवेदनशीलता की त्वरा से अनभिज्ञ हैं। इन अवसरों पर व्यक्तिगत उपस्थिति संवेदनाओं की साझेदारी के कर्तव्यबोध का प्रतीक है। इसलिए मैं अहमदाबाद पहुंचे प्रधानमंत्री के आसपास मौजूद कैमरे और उन की तस्वीरों के कोण गिन रहे लोगों की सोच को ओछापन मानता हूं।
यह अवसर इस तरह का हलकापन दिखाने का नहीं है कि सवाल उछाले जाएं कि मणिपुर की हिंसा में तो पांच सौ से ज़्यादा लोग मार दिए गए, हज़ारों ज़ख़्मी हो गए, पांच हज़ार से ज़्यादा मकान जला दिए गए, साठ हज़ार से ज़्यादा लोग विस्थापित हो गए तो प्रधानमंत्री वहां क्यों नहीं गए? मैं सोशल मीडिया की चौपालों पर लोगों को यह पूछते हुए भी पढ़-सुन रहा हूं कि दस बरस में हुई क़रीब सवा छह सौ रेल दुर्घटनाओं में हज़ार के आसपास यात्री मारे गए और हर नई ट्रेन को ख़ुद झंडी दिखाने की ललक से भरे प्रधानमंत्री की झलक उन में से एक भी दुर्घटनास्थल पर क्यों नहीं दिखी? भगदड़ की अलग-अलग घटनाओं में मारे गए बेग़ुनाह लोगों की मिसाल दे कर नरेंद्र भाई की अनुपस्थिति को निशाना बनाने वाली टिप्पणियों की बौछार भी देखने को मिल रही है।
हर समय निंदा के चटोरेपन से सराबोर रहने वालों को मैं इस वक़्त पहलगाम से ले कर पुलवामा और पठानकोट तक की त्रासदियों में परपीड़ा-आनंद खोजने में जुटा पा रहा हूं। मगर मैं पूरी संजीदगी से कहना चाहता हूं कि कोई-कोई समय ऐसा होता है, जब खिलंदड़ों को अपनी तीलीलीली-मुद्रा को खूंटी पर लटका देना चाहिए। सवाल, सवाल हैं। वे पूछ भी जाने चाहिए। मगर हर सवाल के पूछे जाने का एक समय होता है। सवाल-सूरमाओं को कुछ भी लगता हो, मगर बेसमय पूछे जाने वाले प्रश्न बूमरेंग ही करते हैं। बिना सोचे-समझे, हर वक़्त बस सवाल उठाते रहने की प्रवृत्ति से प्रश्न अपनी अर्थवत्ता खोने लगते हैं। प्रश्नों का वज़न तब कायम रहता है, जब उन्हें उठाने का समय, शैली और प्रणाली मौजूं हो।
देश के विमानतलों से हर बरस साढ़े ग्यारह लाख से ज़्यादा उड़ाने संचालित होती हैं। अहमदाबाद के विमानतल से ही साल में एक लाख से ज़्यादा उड़ानों का संचालन होता है। हर विमान त्रासदी दुःखद है, मगर उस से दुःखी होते वक़्त यह मत भूलिए कि भारत में ग़ैरमामूली, मामूली, मध्यम और बेहद गंभीर विमान दुर्घटनाओं का औसत प्रति दस लाख उड़ानों में एक से भी कम का है। आदर्श स्थिति तो यही होगी कि यह भी नहीं हो। मगर याद रखिए कि सब से ज़्यादा विमान दुर्घटनाओं वाले दस देशों की सूची में भारत सब से निचले, यानी दसवें, क्रम पर है। सब से ऊपर है अमेरिका और फिर क्रमवार हैं रूस, कनाडा, ब्राज़ील, कोलंबिया, ब्रिटेन, फ्रांस, इंडोनेशिया और मैक्सिको। 1945 से अब तक अमेरिका में 788 विमान दुर्घटनाएं हो चुकी हैं और उन में 10,625 लोग मारे गए हैं। भारत में इस अवधि में 93 दुर्घटनाएं हुई हैं और उन में 2,319 लोगों की मौत हुई है।
यह अहमदाबाद की त्रासदी में जान गंवाने वालों के लिए मोक्ष की प्रार्थना करने और उन के परिजन की ग़मज़दगी के साथ ख़ुद को संबद्ध करने का समय है। यह समय किसी भी किस्म की रस्साकशी का नहीं है। लगातार अराजक होते जा रहे सोशल मीडिया मंच और उतना ही स्वेच्छाचारी मुख्यधारा मीडिया ऐसे अवसरों पर हमारी संवेदनाओं को कृत्रिम उबाल दे कर दरअसल उन्हें भोथरा बनाने का काम कर रहे हैं। उन के लिए हर घटना रंगमंचीय प्रस्तुति का विषय बन गई है। वे समझते हैं कि दृश्यों को उन की ज़रूरत के मुताबिक पठन, चित्रण, संगीत और रंगों में संयोजित कर के उछलकूद के अंदाज़ में पेश कर देना पत्रकारिता है। उन्हें लगता है कि हर शाम तीन-तीन चार-चार तीतर-कुश्तियों का शोर भरा आयोजन जन-सरोकार के प्रति अपने फ़र्ज़ की अदायगी है। जाने-अनजाने किए जा रहे इस धत्कर्म ने भारतीय समाज को अपनी विचार-प्रक्रिया के बेहद प्रदूषित दौर में पहुंचा दिया है। समाज के हर स्तर पर धड़ेबंदी की धार इतनी दुधारी हो चुकी है कि सब-कुछ तार-तार हो रहा है। यह नहीं थमेगा तो असली त्रासदियां तो देखनी अभी बाकी हैं।