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14-06-2025 Vol 19

अमेरिका में तैनात अमेरिकी सेना!

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उफ! अमेरिका की सेना अर्थात विश्व की चौकीदार और चौधरी आज कहां तैनात है? अमेरिका में! कहने को डोनाल्ड ट्रंप दुनिया में शांति, सीजफायर कराने की बात करते हैं, विदेश से सेना हटा रहे हैं मगर खुद घर को लड़ाई का मैदान बना दे रहे है। अमेरिका में सेना को तैनात कर रहे हैं! देश के सबसे बड़े प्रांत कैलिफोर्निया के शहर लॉस एंजिल्स में अमेरिकी रक्षा बल के ब्रांड ‘मरीन’ सैनिक पहुंच गए हैं। किसलिए? ताकि ट्रंप विरोधी अमेरिकी नागरिक, विरोधी डेमोक्रेटिक नेता, गवर्नर, मेयर सभी अनुभव कर लें कि वे अमेरिकी सेना के बॉस हैं और जो उनको मनमानी नहीं करने देगा वह चूर-चूर हो जाएगा!

तब भला क्या फर्क है ट्रंप, पुतिन और शी जिनफिंग में? एक लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाम निरंकुश व्यवस्था का फर्क ट्रंप ऐसे मिटा दे रहे हैं कि दुनिया में अमेरिका के सॉफ्ट पॉवर (लोकतंत्र, संस्थाओं, मिजाज, व्यवहार) सबका फलूदा बना है। अमेरिका, अब अमेरिका ही नहीं रहा।

अमेरिका एक ऐसे मंच में कनवर्ट है जो सौ फिसदी डोनाल्ड ट्रंप की नौटंकियों का है। वे हर दिन प्रेस कांफ्रेंस करते हैं। विदेशी नेता को बुला कर उसके आगे अपनी महिमा का बखान करते हैं और पटाखे छोड़ते हैं। अमेरिकी सेना भी डोनाल्ड ट्रंप का मानों एक पटाखा। कैलिफोर्निया में नेशनल गार्ड के बाद ‘मरीन’ पहुंचा दिए हैं तो आज उनके जन्मदिन (14 जून) पर वाशिंगटन में सैन्य परेड होगी। ट्रंप के विशेष आमंत्रित मेहमानों में एक पाकिस्तान के सेना प्रमुख मुनीर भी हैं।

अमेरिका महान है! इससे उसका राष्ट्रपति स्वतः महान होता है मगर ट्रंप अमेरिकी इतिहास के वे राष्ट्रपति हैं, जो अपनी महानता के प्रदर्शन के लिए अमेरिका, उसकी सेना, उसकी संस्थाओं को छोटा, दोयम दर्जे का बना दे रहे हैं ताकि उनकी महानता स्थापित हो! ऐसा आधुनिक काल में किसी विकसित देश, सभ्यता का पतन नहीं हुआ है जो डोनाल्ड ट्रंप के हाथों अमेरिका का हो रहा है। ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी के लोकतंत्र में समय के साथ उनके प्रभाव में कमी आई या हिटलर जैसी विकृति बनी। लेकिन किसी प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति ने अपने हाथों अपनी महानता के प्रदर्शन में देश को वैसा पलीता नहीं लगाया जैसा ट्रंप अमेरिका को लगा रहे हैं। वहां संघीय ढांचा दांव पर है। सुप्रीम कोर्ट, सेना की साख दांव पर है तो उसके अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भी अराजकता है।

2016 में जब डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बने थे तब वे मुसलमानों के खिलाफ माहौल में अमेरिकी राष्ट्रवाद को हवा देते हुए थे। इस दफा भी उन्होने घुसपैठियों के खिलाफ हल्ला बोल कर अपने वोट पकाए हैं मगर इसमें तड़का अपनी महानता को अमेरिका फर्स्ट से भी ऊपर बनाना है। वे अमेरिकी इतिहास में एकमेव इतिहास पुरूष कहलाने का पागलपन लिए हुए हैं। पोपुलिस्ट, राष्ट्रवादी से भी महान चेहरा बना बताना चाह रहे हैं कि उनसे अमेरिका है और उन्हीं से फिर दुनिया है। वे जो चाहेंगे कर देंगे!

अमेरिकी व्यवस्था में क्योंकि शक्ति और सामर्थ्य अंतरनिहित है तो उसका प्रदर्शन हॉलीवुड जैसा वैश्विक मंच लिए हुए है। इसी के बूते वे सौदे और धंधे में अपने दोस्तों, परिवारजनों, दरबारियों के हित साध रहे हैं तो दूसरी तरफ उस्तरा ले कर अमेरिकी सिविलिटी, लोकलाज और उस नागरिकता को ठेंगा बता रहे हैं, जिससे अमेरिका का मान बना है।

इसलिए हार्वर्ड विश्वविद्यालय जैसे विश्वविद्यालयों पर लाठी है तो लॉस एंजिल्स में वे ‘मरीन’ सैनिक है, जो वियतनाम, अफगानिस्तान, इराक, इस्लामी स्टेट की जंग में विदेशी जमीन पर उतरते थे। दुनिया याकि फ्री वर्ल्ड को बचाने की खातिर उतरते थे। अब वह फ्री वर्ल्ड अमेरिका की सड़कों पर जंग-ए-मैदान है। क्या किसी सभ्यता के आंखों देखी पतन को देखने का ऐसा उदाहरण पहले कभी था?

हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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