योगी सरकार ने इस मंदिर के प्रबंधन के लिए न्यास भी गठित कर दिया। जिसमें मंदिर की बागडोर अब पूरी तरह सरकार के हाथ में है। मंदिर के सेवायत गोस्वामियों के परंपरा से चले आ रहे दो समूहों: राजभोग सेवा अधिकारी और शयन भोग सेवा अधिकारी में से मात्र एक-एक प्रतिनिधि इस न्यास का सदस्य रहेगा। इस पूरे विवाद में वृंदावन का समाज दो भागो में बटा हुआ था।
काफ़ी रस्साकशी के बाद वृंदावन के श्री बांके बिहारी मंदिर का कॉरिडोर बनने का रास्ता साफ़ हो गया। योगी सरकार ने इस मंदिर के प्रबंधन के लिए न्यास भी गठित कर दिया। जिसमें मंदिर की बागडोर अब पूरी तरह सरकार के हाथ में है। मंदिर के सेवायत गोस्वामियों के परंपरा से चले आ रहे दो समूहों: राजभोग सेवा अधिकारी और शयन भोग सेवा अधिकारी में से मात्र एक-एक प्रतिनिधि इस न्यास का सदस्य रहेगा।
इस पूरे विवाद में वृंदावन का समाज दो भागो में बटा हुआ था। एक तरफ़ थे सेवायत गोस्वामी व उनके परिवार, बिहारीपुरा के बाशिंदे और आसपास के दुकानदार, जिनकी संपत्तियां प्रस्तावित कॉरिडोर के दायरे में आ रही हैं। दूसरी तरफ़ वृन्दावन के आम नागरिक और बाहर से आने वाले दर्शनार्थी। जहाँ पहला पक्ष कॉरिडोर के विरुद्ध आंदोलन करता आया है। वहीं दूसरा पक्ष कॉरिडोर का स्वागत कर रहा है।
इस विषय में बहुत से गोस्वामीगणों ने मुझसे भी संपर्क किया और इस विवाद में मेरा समर्थन मांगा। कई कारणों से मैं इस मामले में उदासीन रहा। इसकी वजह यह थी कि 2003 – 2005 के बीच जब मैं इस मंदिर का अदालत द्वारा नियुक्त रिसीवर यानी, प्रशासक था तो मैंने मंदिर की अव्यवस्थाओं को सुधारने का सफल प्रयास किया था। पर गोस्वामियों का सहयोग नहीं मिला।
30 जून 2003 को मैंने बिहारी जी के मंदिर का कार्यभार संभाला और 1 अगस्त को हरियाली तीज थी। इस दिन उत्तर भारत से लाखों भक्त स्वर्ण हिंडोले में बैठे श्री बाँके बिहारी जी के दर्शन करने आने वाले थे। मंदिर के कुछ पुराने गोस्वामियों ने मुझे चुनौती दी कि मैं ये व्यवस्था नहीं संभाल पाऊँगा। ठाकुर जी पर निर्भर होकर चुनौती स्वीकार की और ये पता लगाया कि क्या- क्या समस्याएं आती हैं। सबसे बड़ी समस्या थी, बिहारी जी तक जाने वाले पाँचों मार्गों से आने वाली अपार भीड़।
दूसरी समस्या थी, मंदिर के प्रवेश द्वार पर जूते चप्पलों का पहाड़ बन जाना। तीसरी समस्या थी, लोगों की जेब कटना और सोने की चेन खींचना। चौथी समस्या थी, महिलाओं के साथ भीड़ का दुर्व्यवहार। मैं फौरन दिल्ली गया और छतरपुर स्थित कात्यानी देवी के मंदिर के प्रबंधक तिवारी जी से मिला। जो हर नवरात्रि पर लाखों दर्श्नार्थियों की भीड़ सँभालते थे। उन्होंने बताया कि एसपीजी के कुछ सेवानिवृत्त अधिकारी भीड़ प्रबंधन की एजेंसी चलाते हैं। उनसे संपर्क किया और उन्हें वृन्दावन बुलाया।
मथुरा के तत्कालीन जिलाधिकारी श्री सुधीर श्रीवास्तव और एसएसपी श्री सतेन्द्र वीर सिंह से लगभग दो सौ सिपाही मांगे और इतने ही स्वयंसेवक अपने संगठन ‘ब्रज रक्षक दल’ के बुलाये। इन चार सौ लोगों को मोदी भवन में भीड़ नियंत्रण के लिए प्रशिक्षित किया। इस कार्य में मान मंदिर के युवा साधुओं का विशेष सहयोग मिला। बिपिन व्यास ने सुझाव दिया कि मंदिर आने और जाने का एक-एक ही मार्ग रखा जाये और बाकी मार्ग बंद कर दिए जाएँ।
इसके अलावा विद्यापीठ के चौराहे पर दस हजार टोकन के साथ जूता घर बनाया गया। जिसमें सेवा करने चांदनी चौक दिल्ली के युवा व्यापारी आये। एसपीजी के इन अधिकारियों ने मंदिर के प्रांगण से विद्यापीठ चौराहे तक पूरे मार्ग को दस सेक्टरों में बाँट दिया और वॉकी-टॉकी से हर सेक्टर के दर्शनार्थीयों को क्रमानुसार आगे बढ़ाया। महिलाओं और बुजुर्गों की सहायता के लिये हमने हर सेक्टर में ’ब्रज रक्षक दल’ के स्वयं सेवक तैनात किये गए।
इन सब व्यवस्थाओं का परिणाम यह हुआ कि न तो किसी की जेब कटी, न धक्का-मुक्की हुई, न चप्पल-जूते खोये, बल्कि बूढ़े और जवान सबको बड़े आराम से दर्शन हुए। इस हरियाली तीज के कई दिन बाद तक मुझे मुंबई, कलकत्ता और अन्य शहरों से परिचित भक्त परिवारों के फोन आते रहे कि जैसी व्यवस्था बिहारी जी में इस बार हुई ऐसी पहले कभी नही हुई। कहने का तात्पर्य यह है कि भीड़ कितनी भी हो दर्शन की व्यवस्था सुधारी जा सकती थी।
मंदिर प्रबंधन की दूसरी चुनौती थी चढ़ावे की राशि का ईमानदारी से आंकलन और उसे बैंक में जमा कराना। इसमें काफी गड़बड़ी की शिकायत आती थी। मंदिर की आमदनी भी बहुत कम थी। एक वरिष्ठ गोस्वामी का मुझे फोन आये की मैं हर महीने दो दान-पात्र अपने लिए अलग करवा लूँ। सुनकर धक्का लगा।
लेकिन इसे एक चेतावनी मानकर मैंने एक नई व्यवस्था बनाई। मंदिर के प्रांगण में जहाँ गुल्लकें (दानपत्र) खोली जाती थीं वहाँ विडियो कैमरे लगवा दिए और प्रशासनिक अधिकारियों को सतर्कता बरतने के लिए वहाँ बिठा दिया। परिणाम यह हुआ कि पहले की तुलना में कई गुना ज्यादा दानराशि गुल्लकों से निकली जिसे बैंक में जमा करा दिया गया।
बिहारी जी के मंदिर की व्यवस्था सुधारने के उद्देश्य से मैंने वाजपेयी सरकार में केन्द्रीय संस्कृति व पर्यटन मंत्री जगमोहन को वृन्दावन बुलाया। उन्होंने मेरे साथ बिहारी जी के मंदिर का विस्तृत दौरा किया और अगले ही दिन दिल्ली से एएसआई व सीपीडब्ल्यूडी के वरिष्ठ अधिकारियों के मुझे फ़ोन आने लगे कि, ‘मंत्री जी ने हमें आदेश दिया है कि आपके जो निर्देश हों, उनके अनुसार मंदिर की व्यवस्था को सुधारने में सहयोग करें।’ इससे मंदिर में हलचल मच गई।
मुझे तब कुछ गोस्वामियों के गुमनाम फोन आये, जिन्होंने धमकी दी कि मैं मंदिर की व्यवस्था में कोई बदलाव न करूँ। मैंने श्री रमेश बाबा से पूछा कि क्या करूँ? वे बोले, “ब्राह्मणों के पेट पर लात मारने वाला दीर्घ काल तक ‘रौरव नर्क’ में फेंक दिया जाता है। तुम ये मत करो।” उनका यह रुख देखकर तब मैंने इस दिशा में प्रयास करना बंद कर दिया। किन्तु मंदिर की दैनिक व्यवस्था में जितना सुधार कर सकता था किया।
फिर यह सोचकर कि मुझे अपनी ऊर्जा सम्पूर्ण ब्रज के विकास पर लगानी चाहिए, एक मंदिर में उलझकर नहीं रहना चाहिए। इसलिए 22 महीने बाद 2005 में मैंने स्वतः ही बिहारी जी के मंदिर के रिसीवर पद से त्यागपत्र दे दिया। मैं ऋणी हूँ बिहारी जी का, संतों का, अपने ब्रजवासी बंधुओं का व बाहर से आने वाले दर्शनार्थियों का, जिन्होंने इस कार्यकाल में मेरी विनम्र सेवा को स्वीकार किया और सराहा। अगर मंदिर के सभी गोस्वामीगण 2003-05 में मंदिर की व्यवस्थाओं को स्थाई रूप से सुधारने के लिए निष्काम भावना से किए जा रहे मेरे ठोस प्रयासों में सहयोग करते तो कदाचित यह स्थिति नहीं आती।