भोपाल। लोकतंत्र में सबसे बड़ा उत्सव चुनावी उत्सव होता है। जब व्यक्ति अपने मत के अधिकारों का उपयोग अपनी मर्जी और स्वेच्छा से करता है। आजादी के बाद से देश में प्रजातंत्र को चलाने के लिए चुनावी प्रक्रिया शुरू हुई और देश में विभिन्न तरह के चुनाव जैसे पार्षद, विधायक, लोकसभा के चुनाव प्रारंभ हुए। जब चुनाव होते थे तो लोग एक उत्सव की तरह इन चुनावों में भाग लेते थे और साइकिल, घोड़ा गाड़ी, ऑटो रिक्शा में लाउडस्पीकर लगाकर लगाकर दिन-दिन भर माइक लेकर प्रचार करते थे। हाथी, घोड़ा, मशाल, गिलास, बाल्टी तो दीवारों पर बनते ही थे, भाजपा का कमल और कांग्रेस गाय-बछड़ा, हल और हाथ का पंजा नील के रंग से दीवारों पर चमकते थे। जब इन पार्टियों के लोग चुनाव प्रचार करने घर-घर जाते थे तो एक उत्सव का माहौल नजर आता था और जब मतदान की घड़ी आती थी तो लोग चौराहों पर, चाय की दुकानों पर चुस्कियां लेते हुए गंभीरता से एक सशक्त, जिम्मेदार और योग्य प्रत्याशी के पक्ष में रायशुमारी करते नजर आते थे, दिन-दिन भर चुनावी उत्सव की तैयारी का मेला लगा रहता था। न कोई रंजिश न कोई साजिश, सब मिलजुल कर लोकतंत्र की बातें करते थे। बरसों गुजर गए अब तो वह मंजर वह नजारे देखने के लिए लोग तरस गए हैं।
– विपिन कोरी
इक्कीसवीं सदी की चकाचौंध में बीस-पच्चीस साल पहले लोकतन्त्र के इस चुनावी उत्सव को हाईटेक कर मतदान प्रक्रिया को सरल बनाने की विधि अपनाई गई, सबने खूब तालियां बजाईं। ईवीएम मशीनों ने भी देश की जनता की उम्मीदों पर चार चांद लगाए। लोकतन्त्र की निष्पक्षता पर सभी इठलाए। कहते हैं कि जिस प्रकार सत्य-असत्य, सुख-दुःख, दिन-रात, सूर्य-चंद्रमा एक दूसरे के विपरीत ठीक वैसे ही मानव निर्मित अस्त्र-शस्त्र भी उतने ही प्रभावी और निर्गामी होते है, क्योंकि यह सौ फीसदी सत्य है कि अविष्कारों द्वारा मानव निर्मित संसाधनों के उपयोग के साथ उसके दुरुपयोग पर पहले विश्लेषण किया जाता रहा है। अब टीवी हो या मोबाइल जहां एक ओर उसके अच्छे परिणाम देखने को मिलते हैं तो वहीं दूसरी ओर इनका दुष्प्रभाव इतना विपरीत पढ़ रहा है की नई पीढ़ी तो बिल्कुल बर्बादी की कगार तक पहुंचने पर भी उसका साथ नहीं छोड़ती। जहां एक ओर इंटरनेट ने दुनिया में धमाल मचाया तो वहीं दूसरी ओर वायरस रूपी कीडे़ ने जीवन में कहर ढाया।
ठीक उसी तरह लोगों की भावनाओं, उम्मीदों, आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से खिलवाड़ कर लोकतन्त्र के उत्सव में शामिल जनभावनाओं को ईवीएम ने जोर का झटका लगा दिया है। हाईटेक से हाइजेक हुईं ईवीएम ने लोगों के चुनावी उत्सव की खुशियां छीनी है, ईवीएम ने उसमे फसे जनता के प्रतिनिधियों के दिलों को छलनी किया है। इससे एक बात तो साफ हो गई की मानव निर्मित संसाधनों का सही उपयोग किया जाय तो प्रगति वरना दुरुपयोग किया तो दुर्गति निश्चित होना ही है। जब से ईवीएम से लोकतंत्र के उत्सव का करंट जनता को लगा तो लोगों में वह खुशी नहीं रही और धीरे-धीरे चाय की दुकानों पर, चौराहों पर लगने वाला वह मजमा भी समाप्त होता गया, क्योंकि अब समझ आने लगा की ईवीएम ने लोगों की आंखों में धूल झोंकने का काम शुरू कर दिया है। लोभी, स्वार्थी और जन भावनाओं से खिलवाड़ करने वाले तो खुशियां मनाने लगे और निष्पक्ष और निस्वार्थ भाव वाले लोग दुखी और व्यथित होने लगे है।
सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि जिस देश ने मताधिकार का सही उपयोग करने इस ईवीएम मशीन का निर्माण किया वही देश इसका उपयोग क्यों नहीं करता? जापान, फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका जैसे अत्याधुनिक देश इस ईवीएम के प्रभाव से प्रभावित क्यों नहीं हुए? अब ईवीएम की माया को जब कोई नहीं समझ पाया तब हर भारतवासी के मन में यह सवाल जरूर कोंध रहा है कि क्या भारत देश में ही इसकी जरूरत थी? क्या सच में मोदी है तो मुमकिन है या ईवीएम है तो मोदी है? या ईवीएम नहीं तो मोदी भी मुमकिन नहीं?
हाल ही में चार राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में आए परिणामों में ईवीएम ने जो अकल्पनीय, एकपक्षीय रिजल्ट धड़ाधड़ उगले उससे विपक्ष और देश की जनता अचंभित और स्तब्ध तो हुई ही, सत्ता पक्ष की भी आंखे खुली की खुली रह गई। जहां देखो वहां एक ही स्वर गूंज रहा है कि … मोदी है तो … है।
लेकिन सच्चाई तो यही है कि ईवीएम नामक इस इलेक्ट्रॉनिक तंत्र ने लोकतंत्र की हत्या कर देश के जनतंत्र के मन पर जो गहरे जख्म दिये उसने चुनावी उत्सव को निराशा और हताशा में तब्दील किया है और उससे जो जख्म लोगों के दिलों पर लगें वे घाव अब कभी नहीं भर सकते। होना क्या था इसलिए अब लोकतन्त्र को बचाने लोग फिर वही पुराने मतपत्रों से चुनाव कराने की मांग उठने लगी है। क्योंकि लोकतंत्र और निष्पक्षता पर घात लगाती ईवीएम की माया की काली छाया को कोई समझ नहीं पाया!