हिंदी साहित्य की महानतम कृतियों में से एक ‘शेखर: एक जीवनी’ की शुरुआत में ही ‘अज्ञेय’ ने लिखा था, ‘वेदना में एक शक्ति है जो दृष्टि देती है। जो यातना में है वही द्रष्टा होता है’। बदलते समाज और मूल्यों ने आज के मिलेनियल्स और जेन ज़ी को ‘वेदना’ की अवधारणा समझाने के लिए जो अहसास दिया है वो है ‘ब्रेक अप’। ‘ब्रेक अप’ का मतलब सिर्फ़ प्रेमी प्रेमिका के बीच का अलगाव नहीं है ये दोस्तों और रिश्तेदारों के बीच भी होते हैं। ‘ब्रेक अप’ हैंडल करने के सबके अलग अलग तरीक़े होते हैं। कई बार प्यार में ‘ब्रेक अप’ इंसान को पूरी तरह से बदल देता है। इस विषय पर हिंदी फ़िल्म उद्योग ही नहीं सभी भाषाओं में ‘देवदास’ से लेकर ‘रांझणा’ तक कई फिल्में बनी हैं और आगे भी बनती ही रहेंगी।
आज के सिने-सोहबत में एक ऐसी तमिल फ़िल्म ‘ड्रैगन’ पर चर्चा करेंगे जो प्यार में ‘ब्रेक अप’ के बाद की ज़िंदगी को एक नए अंदाज़ में आगे बढ़ाती है। ‘ड्रैगन’ के निर्देशक हैं ‘अश्वथ मरीमुथु’ और प्रमुख किरदार की भूमिका में हैं प्रदीप रंगनाथन। अपनी पिछली फिल्म ‘लव टुडे’ की सफलता के बाद में चर्चा में आए प्रदीप रंगनाथन की यह फिल्म भी तमिल में धमाल मचा रही है। हिंदी में इसे ‘रिटर्न ऑफ द ड्रैगन’ के नाम से रिलीज़ किया जा रहा है। दरअसल, आजकल दक्षिण की फिल्मों का ज़िक्र आते ही बेहद भव्य फिल्मों की छवि दिमाग में आ जाती है। ‘ड्रैगन’ उस मामले में अलग है और हमारी ही दुनिया और ज़िंदगी के कई संवेदनशील आयामों को बेहद ही ड्रमैटिक अंदाज़ में टटोलने की कोशिश करती है। बेहतरीन बात ये भी है कि इसमें भारत के किसी संयुक्त परिवार के सभी क़िस्म के सदस्यों के लिए कुछ न कुछ ‘टेक अवे’ ज़रूर है। मानना पड़ेगा की दक्षिण भारत में अब थॉट प्रोवोकिंग फिल्मों की ज़िम्मेदारी सिर्फ मलयालम सिनेमा तक सीमित नहीं है, तमिल सिनेमा भी किसी एंगल से पीछे नहीं है।
ड्रैगन’ फिल्म: प्यार, संघर्ष और शिक्षा की कहानी
‘ड्रैगन’ फ़िल्म की कहानी एक ऐसे लड़के डी राघवन (प्रदीप रंगनाथन) की है, जो एक आदर्श स्टूडेंट है। 12वीं में 96 पर्सेंट मार्क्स लाता है और अपनी पसंदीदा लड़की के साथ घर बसाकर यूएस में सेटल होने के सपने देखता है। लेकिन गोल्ड मेडल जीतने के बावजूद उसका दिल तब टूट जाता है, जब वह लड़की उसे इसलिए रिजेक्ट कर देती है, क्योंकि उसे गुड बॉयज़ नहीं, बैड बॉयज़ पसंद हैं। बस फिर क्या, डाकू से साधु बनना मुश्किल है लेकिन साधु से डाकू बनना न सिर्फ़ आसान है, बल्कि किसी सिनेमैटिक स्पेस में दिलचस्प भी।
फ़िल्म का नायक राघवन ठान लेता है कि वो बनेगा, कॉलेज का सबसे बड़ा बैड बॉय और फिर होता है ‘ड्रैगन’ का जन्म, जिसे कॉलेज में उसका प्यार कीर्ति (अनुपमा परमेश्वरन) तो मिल जाती है, मगर उसके इस ह्रदय और आचरण में परिवर्तन की वजह से इंजीनियरिंग की डिग्री नहीं। ड्रैगन बना राघवन कॉलेज से सस्पेंड होता है। लेकिन फिर भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ता, जब तक कि उसके गैर ज़िम्मेदाराना रवैये से तंग आकर कीर्ति भी उससे ब्रेक अप नहीं कर लेती। इसके बाद राघवन खुद को एक सफल इंसान बनाने में जुट जाता है, जिसमें वह कामयाब भी होता है।
एक शानदार जॉब, घर, गाड़ी, एक रईस मंगेतर पल्लवी (कयाडू लोहार), उसकी जिंदगी में अब सब कुछ है, मगर उसकी एक ग़लती की वजह से उसे अपने 48 एरियर्स क्लियर करके डिग्री हासिल करने दोबारा कॉलेज लौटना पड़ता है। क्या राघवन यह असंभव काम कर पाता है? इस चुनौती का उसकी ज़िंदगी पर क्या असर पड़ता है, यह जानने के लिए फिल्म देखनी पड़ेगी।
बेशक इस फ़िल्म में अपने दर्शकों में प्रभाव उत्पन्न करने के लिए दुनिया भर के मेलोड्रामाटिक एलिमेंट्स की मदद ली गई है लेकिन इस बात में भी कोई शक नहीं कि इसमें हंसी ख़ुशी के बीच एक बेहद ज़रूरी मुद्दे को रेखांकित किया गया है। मुद्दा है विधार्थियों के लिए परीक्षा की अहमियत।
दरअसल, बहुत सारे बच्चों ने राजकुमार हिरानी की सार्थ फ़िल्म ‘थ्री इडियट्स’ को अपनी सुविधा से मिसइन्टरप्रेट कर अपनी पढ़ाई लिखाई और परीक्षा व पाठ्यक्रम के सिस्टम का विरोध करके, ‘जो दिल करेगा वही करेंगे’ मोड में आ तो गए लेकिन उनके पास ये विज़न नहीं था कि पढ़ाई और परीक्षा का विरोध तो ठीक है लेकिन वो इनकी ख़िलाफ़त करके करेंगे क्या? मौजूदा फ़िल्म ‘ड्रैगन’ बताती है कि परीक्षाएं सिर्फ़ आपको अंक देने तक सीमित नहीं होती हैं। ये आपको अनुशासित कर, मेहनत करने के अभ्यास में नैरंतर्य बनाते हुए, ख़ुद से बेहतर बनाने की प्रक्रिया है। इससे हमारा व्यक्तित्व ज़िंदगी की बड़ी से बड़ी चुनौतियों से जूझ सके।
अश्वथ मरिमुथु की लिखी और निर्देशित यह फिल्म हल्के-फुल्के मनोरंजन के साथ एक अच्छी सीख देने की कोशिश करती है। फिल्म में कुछ अच्छे ट्विस्ट हैं, कई जगहों पर यह एंटरटेन भी करती है, मगर कई बार कहानी ज्यादा खींची हुई सी भी लगती है। खासकर इंटरवल के पहले। कहानी सेकंड हाफ़ में बेहतर कनेक्ट करती है।
कॉलेज के डॉन की भूमिका में उनकी एक्टिंग लाउड लगती है जिसे तमिल सिनेमा पर वहां के लोकल स्वैग के असर के रूप में देखें तो ज़्यादा परेशानी की बात नहीं लगती। बाद के हिस्से में उनके किरदार में सीरियसनेस आने के साथ मामला बेहतर हो जाता है। कीर्ति के रूप में अनुपमा और पल्लवी के रूप में कयाडू अच्छी लगती हैं।
इनके अलावा दूसरे कलाकारों की बात करें तो कॉलेज के प्रिंसिपल के रूप में मिस्किन, बॉस के रूप में गौतम वासुदेव मेनन और पिता धनपाल के रोल में जॉर्ज मारयान प्रभावित करते हैं। तकनीकी पक्षों पर ध्यान दें तो निकेत बोम्मीरेड्डी की सिनेमटोग्राफी अच्छी है, जबकि प्रदीप ई राघव की एडिटिंग में और लियोन जेम्स के म्यूजिक और बढ़िया हो सकती थी। ये ठीक भी है अगर सबकुछ परफ़ेक्ट हो जाएगा तो हमलोग बोर भी तो हो जाएंगे, आगे और बेहतरी की गुंजाइश तो होनी ही चाहिए।
हालांकि ‘ड्रैगन’ सिनेमाघरों में रिलीज़ हुई है लेकिन अगर आपके आस पास न मिले तो नेटफ़्लिक्स पर भी है। देख लीजिएगा। (पंकज दुबे मशहूर बाइलिंग्वल उपन्यासकार और चर्चित यूट्यूब चैट शो, “स्मॉल टाउन्स बिग स्टोरिज़” के होस्ट हैं।)
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