मनोज कुमार को हिंदी सिनेमा का जो पहला भारत कुमार कहा जाता है उसकी नींव प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के साथ उनकी बातचीत में पड़ गई थी। शास्त्री जी ने उनसे कहा था कि हमारे जवानों और किसानों में ही तो भारत बसता है। यहीं से मनोज को सूझा कि यह जो फ़िल्म बनेगी उसके नायक का नाम भारत होगा। वे ट्रेन से लौटे और मुंबई पहुंचने तक उन्होंने ‘उपकार’ की कहानी भी लिख डाली। हालांकि जैसे बटुकेश्वर दत्त अपना पुरस्कार लेने के लिए जीवित नहीं रहे उसी तरह शास्त्री जी भी अपनी सुझाई फ़िल्म नहीं देख पाए।
परदे से उलझती ज़िंदगी
उन दिनों हमारे हर शहर में कुछ थिएटर ऐसे होते थे जहां अक्सर पुरानी या पहली पारी में जितनी चल सकती थीं उतनी चल कर उतर चुकी फ़िल्में लगा करती थीं। कई सिनेमाघर सुबह के शो में कोई पुरानी फ़िल्म दिखाया करते थे। इन उतर चुकी या पुरानी फ़िल्मों की टिकट दर कम रखी जाती थी। बाकायदा इनके पोस्टरों और विज्ञापनों में लिखा जाता था – ‘रियायती दर पर’। कई बार वह और घट कर ‘आधी दर पर’ हो जाती थी। उस दौर में बालकनी की सामान्य टिकट ढाई रुपए और रियर स्टाल की करीब पौने दो रुपए हुआ करती थी। ऐसे में अगर कोई फ़िल्म आधी दर पर लगती और संयोग से उस पर टैक्स भी माफ़ कर दिया गया हो तो सिनेमाघर में सबसे आगे की कुछ लाइनों, जिन्हें थर्ड क्लास कहा जाता था, उनकी टिकट चालीस या पचास पैसे की रह जाती थी। तो आगरा में घटिया आज़म खां इलाके के जीवन सिनेमा में कुछ दोस्तों के साथ मनोज कुमार की ‘शहीद’ मैंने केवल चालीस पैसे में देखी थी।
आस-पड़ोस में रहने वाले हम तीन-चार लड़के अपने बड़ों के साथ इसे पहले देख चुके थे, फिर भी हम सबमें इसे फिर से देखने की जिज्ञासा थी। शायद हम अपने क्रांतिकारियों के कारनामों पर एक बार फिर रोमांचित होना चाहते थे। यह 1966 था। हालांकि मुझे कानपुर के जयहिंद टॉकीज़ में हाउसफुल होने के बावजूद अपने बाबा के रसूख के कारण बालकनी में अतिरिक्त दो सीटें डलवा कर देखी गई ‘बीस साल बाद’ याद है। इसी तरह पिताजी के साथ नागपुर के सीताबर्डी बाज़ार के न्यू सिनेमा और रिपब्लिक थिएटर में देखीं ‘गहरा दाग’ व ‘गृहस्थी’ और आगरा में ही चाचा के साथ देखी ‘वक्त’, ‘गुमराह’, ‘जब जब फूल खिले’ और ‘प्रोफ़ेसर’ की यादें हैं। मगर चालीस पैसे में पिक्चर देखना अनोखा एडवेंचर था। दस-दस पैसे के चार सिक्के, बस। मगर उन दिनों, वह भी दस साल की उम्र में, ये चार सिक्के जुगाड़ना बहुत बड़ी बात थी। हम फ़िल्मों के साथ बड़े होते हैं और कई फ़िल्में जिंदगी का अहम पड़ाव बन जाती हैं। वह भी एक पड़ाव था। मनोज कुमार के निधन पर लगा कि इस एडवेंटर को लिखने का शायद यह अंतिम अवसर है।
बाद में जाकर पता चला कि भगत सिंह पर 1954 में जयराज को लेकर ‘शहीद-ए-आज़म भगत सिंह’ बन चुकी थी। 1963 में ‘शहीद भगत सिंह’ भी आ चुकी थी जिसमें शम्मी कपूर भगत सिंह बने थे। सुनील दत्त के छोटे भाई सोम दत्त ने 1974 की ‘अमर शहीद भगत सिंह’ में भगत सिंह की भूमिका की। फिर राजकुमार संतोषी के निर्देशन में अजय देवगन की ‘भगत सिंह की कहानी’ आई जिसे सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और सर्वश्रेष्ठ फ़ीचर फ़िल्म के नेशनल अवॉर्ड मिले। तभी गुड्डू धनोआ की ‘23 मार्च 1931 – शहीद’ नाम की फ़िल्म भी आई जिसमें बॉबी देओल भगत सिंह बने। पता नहीं क्या सोच कर, अजय देवगन और बॉबी देओल वाली ये दोनों फ़िल्में 7 जून 2002 को एक साथ रिलीज़ की गईं और दोनों ही फ़्लॉप हो गईं। इन सबमें केवल मनोज कुमार की ‘शहीद’ थी जो बॉक्स ऑफ़िस पर भी चली और जिसे भगत सिंह पर सबसे ज़्यादा प्रामाणिक फ़िल्म भी माना गया।
इसकी कई वजहें थीं। पहली यह कि इसके निर्माण के दौरान भगत सिंह की मां विद्यावती से भी सलाह ली जा रही थी और दुर्गा भाभी से भी। फिर भगत सिंह के साथ सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने वाले बटुकेश्वर दत्त इसके लेखन में शामिल थे। उनके सह लेखक थे दीनदयाल शर्मा। मगर 1966 में जब इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ लेखन और सर्वश्रेष्ठ पटकथा का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला तो उसे लेने के लिए अकेले दीन दयाल शर्मा मौजूद थे। बटुकेश्वर दत्त का जुलाई 1965 में दिल्ली के एम्स में निधन हो गया था। उनकी अंतिम इच्छा के मुताबिक पंजाब के फिरोजपुर जिले में बॉर्डर के पास हुसैनीवाला ले जाकर सतलुज के किनारे उनका अंतिम संस्कार किया गया। उसी जगह जहां अंग्रेज़ सरकार ने चुपचाप भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव का अंतिम संस्कार किया था। वैसे बंटवारे में यह स्थान पाकिस्तान को मिला था, लेकिन 1961 में भारत सरकार ने बदले में बारह गांव देकर इसे वापस लिया और वहां एक स्मारक बनाया। बाद में भगत सिंह की मां का अंतिम संस्कार भी इसी जगह हुआ।
इस फ़िल्म को राष्ट्रीय एकता और भावनात्मक एकीकरण की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार भी मिला था। विज्ञान भवन में जब दिवंगत फ़िल्म कलाकार डेविड ने इस पुरस्कार की घोषणा की तो निर्माता केवल कश्यप और मनोज कुमार भगत सिंह की मां विद्यावती को साथ लेकर धीरे-धीरे चलते हुए मंच पर पहुंचे जहां इंदिरा गांधी पुरस्कार देने को खड़ी थीं। उन्होंने पुरस्कार देने से पहले विद्यावती के पांव छुए। हॉल में सब लोग खड़े हो गए थे और तालियां बजा रहे थे।
अपने साथ बटुकेश्वर दत्त का भी पुरस्कार ग्रहण करने वाले दीन दयाल शर्मा ने बाद में ‘अनुरोध’, ‘लावारिस’, ‘अंजाम’ और ‘त्याग’ आदि फ़िल्मों की कहानी व संवाद लिखे। गीतकार प्रेम धवन ने ‘शहीद’ में संगीत भी दिया था। उन्होंने एक तरह से पटना के शायर बिस्मिल अज़ीमाबादी के लिखे ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है‘ को बाकायदा एक धुन प्रदान की। पहले लोग इसे अलग-अलग तरह से गाते रहे थे। काकोरी कांड के मुकदमे के दौरान राम प्रसाद बिस्मिल ने अदालत में ही अपने साथियों के साथ कठघरे में खड़े-खड़े इसे गाया था। इस फ़िल्म के लिए प्रेम धवन को ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ नए सिरे से लिखना पड़ा जिसे मूल रूप से जेल में रहते हुए रामप्रसाद बिस्मिल ने लिखा था। धवन ने इसे पंजाबी लहज़ा भी दिया।
कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं जिन्हें देख कर लगता है कि हर कलाकार अपनी भूमिका में एकदम फिट है। ‘शहीद’ भी ऐसी ही फ़िल्म थी। खास बात यह थी कि इसमें जिस लड़की पर ‘जोगी हम तो लुट गए तेरे प्यार में’ फ़िल्माया गया वह मनोज कुमार की पत्नी शशि गोस्वामी हैं। उनकी शादी को तब ज्यादा समय नहीं बीता था। शादी के बाद ही विजय भट्ट की ’हरियाली और रास्ता’ आई जो मनोज की पहली सफल फ़िल्म थी। उसके बाद तो ‘वह कौन थी’, ‘गुमनाम’, ‘दो बदन’, ‘हिमालय की गोद में’, यानी लाइन ही लग गई।
‘शहीद’ ने मनोज कुमार के लिए निर्देशक बनने का रास्ता भी तैयार किया। इसमें निर्देशक के तौर पर नाम एस राम शर्मा का गया था, मगर निर्माता केवल कश्यप के कहने पर यह काम लगभग शुरू से ही मनोज को संभालना पड़ा। इस पर कोई बदमजगी नहीं हुई थी, क्योंकि बाद में 1970 में उन्हीं एस राम शर्मा के निर्माण और निर्देशन वाली फ़िल्म ‘यादगार’ में मनोज मुख्य भूमिका में थे। बहरहाल, ‘शहीद’ पूरी होने पर उसकी स्पेशल स्क्रीनिंग दिल्ली के प्लाज़ा सिनेमा में रखी गई। इसके लिए प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को न्योता देने मनोज खुद गए। यह 1965 के पाकिस्तान के साथ तनातनी वाले दिन थे। बड़ी मुश्किल से प्रधानमंत्री ने दस मिनट के लिए आना स्वीकार किया। मगर फ़िल्म शुरू हुई तो लाल बहादुर शास्त्री गंभीर हो गए और थोड़ी देर में वे आंसू पोंछते दिखाई दिए। वे पूरी फ़िल्म देख कर ही उठे क्योंकि मनोज कुमार ने चुपचाप ऑपरेटर को कहलवा दिया था कि वह इंटरवल हटा दे।
बाहर निकलते समय लाल बहादुर शास्त्री ने मनोज से पूछा कि क्या ‘जय जवान जय किसान’ पर फ़िल्म बन सकती है? मनोज ने तुरंत जवाब दिया, ज़रूर बन सकती है। असल में ‘जय जवान जय किसान’ शास्त्री जी का दिया नारा था और उन्हें बेहद प्रिय था। मनोज को हिंदी सिनेमा का जो पहला भारत कुमार कहा जाता है उसकी नींव भी इसी बातचीत में पड़ गई थी। शास्त्री जी ने उनसे कहा था कि हमारे जवानों और किसानों में ही तो भारत बसता है। यहीं से मनोज को सूझा कि यह जो फ़िल्म बनेगी उसके नायक का नाम भारत होगा। वे ट्रेन से लौटे और मुंबई पहुंचने तक उन्होंने ‘उपकार’ की कहानी भी लिख डाली। हालांकि जैसे बटुकेश्वर दत्त अपना पुरस्कार लेने के लिए जीवित नहीं रहे उसी तरह शास्त्री जी भी अपनी सुझाई फ़िल्म नहीं देख पाए। जनवरी 1966 में ताशकंद में उनका निधन हो गया जबकि ‘उपकार’ 1967 में आई। (जारी)