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आम आदमी का हीरो: ‘इंस्पेक्टर झेंडे’

मनोज बाजपेयी इस फिल्म का सबसे मजबूत पहलू हैं, उन्होंने इंस्पेक्टर जेंडे के किरदार को बहुत ही शिद्दत से निभाया है। मनोज की एक्टिंग में सख्ती भी है और हल्की-फुल्की हंसी भी। सबसे अच्छी बात यह है कि उनकी कॉमिक टाइमिंग बिल्कुल नैचुरल लगती है, कहीं भी ओवरएक्टिंग महसूस नहीं होती है। कई जगह उनका अंदाज क्लासिक कॉमेडीज की याद दिलाता है।

सिने-सोहबत

सत्तर के दशक में जब सलीम-जावेद ने ‘एंग्री यंग मैन’ की संकल्पना की थी तो उन्होंने ये सोचा भी नहीं होगा कि इससे हिंदी फिल्मों को एक ऐसा दिलचस्प किरदार मिलेगा, जो न सिर्फ़ एक सुपरस्टार बन जाएगा, बल्कि इससे सिनेमा समाज में एक नए दौर की शुरुआत होगी। उनका ‘एंग्री यंग मैन’ दरअसल उस वक़्त का क्रोधित युवा मन ही था जो ‘इमरजेंसी’ से बौखलाया हुआ था, जिसकी सामाजिक संस्थाओं से आस्था दरक रही थी और जिसके दिल की  तेज़ धड़कने हर वक़्त सबकुछ ‘ऑउट ऑफ़ बॉक्स’ करने के लिए व्याकुल रहती थीं। तात्कालिक समाज और राजनीति की अच्छी समझ रखने वाले समर्थ स्क्रीनप्ले के जादूगर सलीम ख़ान और जावेद अख़्तर की जोड़ी ‘सलीम-जावेद’ ने अमिताभ बच्चन को केंद्र में रख कर कई किरदार लिखे, एक ‘एंग्री यंग मैन’ का कॉन्सेप्ट चल गया और एक महानायक का जन्म हुआ। तब सिनेमाघरों में तालियां बज जाती थीं, जब पहली बार दर्शकों ने परदे पर किसी बेटे को अपने पिता को यह कहते सुना कि ‘आप मेरे नाजायज़ बाप हैं’। वो एक ऐसा दौर था जब नायक हमेशा ‘राजा बेटा’ ही हो ये ज़रूरी नहीं। नायक ग़ैरकानूनी हरकतें भी करता था, बग़ावती भी होता था लेकिन उसमें रॉबिनहुड के तत्व भी थे। वो गरीबों की मदद करता था। खूबसूरत बात ये थी कि दर्शकों में जोश जूनून, उठापठक वाले संवादों के बावजूद अगर नायक अपराधी होता था तो फ़िल्म के आखिर तक या तो सुधर जाता था या फिर मारा जाता था और इस तरह आखिरकार बुराई को हरा दिया जाता था।

ये सब कई दशकों तक बखूबी चलता रहा। फिर समाज बदला, मूल्य बदलने लगे और बाद में हालात ऐसे हो गए कि हिंदी फिल्म उद्योग को ‘दबंग’ जैसी समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से ख़तरनाक फिल्मों की सफलता भी देखनी पड़ी जिसमें नायक चाहे और जो कुछ भी हो लेकिन रॉबिनहुड तो बिलकुल भी नहीं था। ‘दबंग’ का ‘चुलबुल पांडे’ खुद के लिए भ्रष्टाचार करता था और उसकी मां अपने बेटे के लूट के पैसों को काफी जतन से रखती थी। इस दौर में विलेन वर्शिप का ट्रेंड भी शुरू हो गया और ‘चार्ल्स शोभराज’ जैसे इंटरनेशनल अपराधी को महिमामंडित करने वाले कंटेंट भी बनने लगे।

आज के सिने-सोहबत में हाल ही में एक ओटीटी पर स्ट्रीम हुई फ़िल्म ‘इंस्पेक्टर झेंडे’ पर चर्चा करते हैं जो कि एक रियल स्टोरी पर आधारित फिल्म है। यह मुंबई के पुलिसकर्मी मधुकर झेंडे की कहानी है, जिन्होंने सीरियल किलर चार्ल्स शोभराज को एक नहीं, बल्कि दो बार पकड़ा था। फिल्म में मनोज बाजपेयी ने लीड रोल प्ले किया है और चार्ल्स भोजराज का किरदार जिम सर्भ ने निभाया है। लगभग तीन दशकों तक पुलिस फोर्स में सेवा देने वाले झेंडे शोभराज की गिरफ्तारी के बाद से घर-घर में मशहूर हो गए थे। शोभराज को दुनिया भर की कानूनी व्यवस्थाओं को चकमा देने की अपनी क्षमता के लिए ‘द सर्पेंट’ के नाम से भी जाना जाता है। शोभराज कई देशों में डकैती, धोखाधड़ी और सिलसिलेवार हत्याओं के लिए कुख़्यात था।

‘इंस्पेक्टर झेंडे’ को डायरेक्ट किया है चिन्मय मांडलेकर ने। यह बतौर निर्देशक उनकी पहली फिल्म है। फिल्म मुंबई पुलिस ऑफिसर मधुकर झेंडे की सच्ची कहानी पर आधारित है जिन्होंने अपराधी चार्ल्स शोभराज को पहली बार 1971 में और फिर 1986 में गोवा में पकड़ा था, जब वह तिहाड़ जेल से फरार हुआ था। इंस्पेक्टर झेंडे का किरदार अभिनेता मनोज बाजपेयी निभा रहे हैं। फिल्म में शोभराज का नाम बदलकर कार्ल भोजराज कर दिया गया है और इस रोल को अभिनेता जिम सर्भ ने निभाया है।

फिल्म की शुरुआत ही कार्ल भोजराज के अपराध और उसके करिश्माई अंदाज से होती है। यह शख्स इतना चालाक और स्मार्ट दिखाया गया है कि लोग उसकी बातों में आसानी से आ जाते हैं। लेकिन फिर एंट्री होती है इंस्पेक्टर झेंडे की, जो सीधा-सादा है लेकिन बेहद तेज दिमाग वाला अफसर है। उनके और भोजराज के बीच शुरू होता है, पीछा करने और बच निकलने का खेल, जिसमें कई मजेदार मोड़ आते हैं। फिल्म 70 और 80 के दशक का दौर भी बखूबी दिखाती है, जब अपराध और पुलिस की दुनिया का अंदाज बिल्कुल अलग हुआ करता था। इस फिल्म में असल घटनाओं से जुड़े कुछ सुराग भी दिखाए गए हैं,  जैसे उसकी मोटरसाइकिल के बारे में मिली टिप और एक लोकल शख्स का यह कहना कि बाइक चलाने वाला गोरे रंग का यूरोपियन था। यही चीज कहानी को और दिलचस्प बनाती है।

मनोज बाजपेयी इस फिल्म का सबसे मजबूत पहलू हैं, उन्होंने इंस्पेक्टर जेंडे के किरदार को बहुत ही शिद्दत से निभाया है। मनोज की एक्टिंग में सख्ती भी है और हल्की-फुल्की हंसी भी। सबसे अच्छी बात यह है कि उनकी कॉमिक टाइमिंग बिल्कुल नैचुरल लगती है, कहीं भी ओवरएक्टिंग महसूस नहीं होती है। कई जगह उनका अंदाज क्लासिक कॉमेडीज की याद दिलाता है।

कार्ल भोजराज के रोल में जिम सर्भ जबरदस्त हैं। उनका करिश्मा और चालाकी दोनों स्क्रीन पर साफ झलकती हैं। हर सीन में वह ऑडियंस को खींच लेते हैं और एक असली ‘स्मार्ट क्रिमिनल’ की इमेज बना देते हैं। मनोज बाजपेयी और जिम सर्भ की टक्कर ही इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत है।

सचिन खेडेकर पुलिस डिपार्टमेंट के सीनियर अफसर के रूप में अपने रोल को मजबूती देते हैं। गिरिजा ओक, जो इंस्पेक्टर झेंडे की पत्नी का किरदार निभा रही हैं, कहानी को घरेलू और इमोशनल बना ही देती हैं। वहीं भालचंद्र कदम अपने हल्के-फुल्के अंदाज से कॉमेडी का मजा बढ़ा देते हैं।

फिल्म देखने में मजेदार जरूर है लेकिन इसकी कुछ कमजोरियां भी साफ नजर आती हैं। कई जगह कहानी इतनी धीमी हो जाती है कि ऑडियंस को थोड़ी बोरियत महसूस होती है। कुछ सीन लंबे खिंचते हैं, जिन्हें आसानी से छोटा किया जा सकता था। एडिटिंग और टाइट होनी चाहिए थी, जिससे फिल्म ज्यादा क्रिस्प लगे। इसके अलावा बैकग्राउंड म्यूजिक भी हर जगह असरदार नहीं है। खासकर सस्पेंस वाले सीन्स में म्यूजिक का असर उतना गहरा नहीं पड़ता, जितनी उम्मीद की जाती है।

इंस्पेक्टर झेंडे सिर्फ अपराधी की कहानी नहीं है, बल्कि उस पुलिस ऑफिसर की दास्तान है जो अक्सर सुर्खियों से दूर रहा।

डायरेक्टर चिन्मय डी मांडलेकर ने इस फिल्म को सच और मजाक के बीच संतुलित करने की कोशिश की है। शुरुआत में ही नैरेटर कहता है कि यह फिल्म सच्ची कहानी पर आधारित है, जो देखने में झूठी लग सकती है। यहीं से अंदाजा हो जाता है कि कहानी हल्के-फुल्के व्यंग्य भरे लहजे में कही जाएगी।

चिन्मय की खूबी ये है कि उन्होंने कहानी को ओवर-द-टॉप बनाने के बजाय बहुत जमीन से जोड़े रखा। पुलिसवालों को माचो हीरो नहीं, बल्कि आम इंसान की तरह दिखाया जो पहली फ्लाइट में डरते हैं, जिनके पास पैसा कम है, और जो गोवा के पब में जाकर रुशी कपूर और ओम राउत जैसे नाम रख लेते हैं। यही छोटी-छोटी बातें फिल्म को असली और मजेदार बनाती हैं।

फिल्म की सिनेमैटोग्राफी की बात करें तो विशाल सिन्हा का कैमरा 80 के दशक का मुंबई-गोवा दिखाने में ज़बरदस्त कामयाब रहा। सेपिया टोन और लोकल लोकेशन्स फिल्म को असली स्वाद देते हैं। प्रोडक्शन डिजाइनर राजेश चौधरी का काम क़ाबिल-ए-ग़ौर है। पुलिस थाने, चॉल, पुरानी कारें और गोवा के क्लब सब कुछ समयानुसार असली लगता है। एडिटिंग भी ठीक है फिल्म की लंबाई (एक घंटा 52 मिनट) सही है, लेकिन कुछ जगह और कसाव लाया जा सकता था। बैकग्राउंड म्यूजिक को बेहतर करने का काफ़ी स्कोप था, हो नहीं सका। एक अच्छी बैकग्राउंड म्यूज़िक चेज़ सीन्स को और भी ज़्यादा रोमांचक बना सकती थी, लेकिन यहां म्यूजिक सपाट और फीका रह जाता है।

इंस्पेक्टर झेंडे मसाला एक्शन फिल्म नहीं है। यह एक अलग किस्म की कॉप-कॉमेडी है, जिसमें अपराधी भी स्टाइलिश है और पुलिसवाले भी इंसानी कमजोरियों के साथ नजर आते हैं। हंसी के पल हैं, लेकिन हर बार गूंजते नहीं।

नेटफ़्लिक्स पर है। देख लीजिएगा। (पंकज दुबे उपन्यासकार और पॉप कल्चर स्टोरीटेलर हैं। )

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