nayaindia Omar Abdullah Mehbooba Mufti उमर व महबूबा दोनों की हार का क्या अर्थ?

उमर व महबूबा दोनों की हार का क्या अर्थ?

जिस तरह से पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती की लोकसभा चुनाव में हार हुई है उससे यह संकेत मिल रहे हैं कि कहीं न कहीं वंशवाद को लेकर कश्मीर के लोगों में नराज़गी भी दिखाई दे रही है। लोगों ने दोनों ही बड़े नेताओं को जिस तरह से नकारा है उससे यह साफ है कि लोग कश्मीर में स्थापित नेताओं का विकल्प ढूंढ रहे हैं। बारामूला लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली 18 विधानसभा क्षेत्रों में से इंजीनियर राशिद ने 14 क्षेत्रों पर भारी बढ़त बनाई जबकि उमर अब्दुल्ला मुश्किल से केवल तीन विधानसभा क्षेत्रों में आगे रहे।

क्या कश्मीर की राजनीति बदल रही है? लोकसभा चुनाव के परिणाम तो यही बता रहे हैं कि कश्मीर घाटी की राजनीति में तेजी से बड़े बदलाव हो रहे है। घाटी ने लोकसभा चुनाव में जिस तरह से मतदान किया है उससे एक बात साफ हो रही है कि कश्मीर के लोगों ने अब पारंपरिक दलों और स्थापित नेताओं की जगह नए विकल्पों को तलाशना शुरू कर दिया है। कश्मीर की बदलती परिस्थितियों में मुख्यधारा के मौजूदा नेताओं को लेकर एक शिकायत साफ तौर पर दिखाई दे रही है। निश्चित रूप से कश्मीर के बड़े दलों के बड़े नेताओं के लिए आगे की राजनीति आसान नही रहने वाली है। नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) जैसे बड़े व स्थापित दलों के लिए यह नतीजे एक बहुत बड़ी चेतावनी हैं। विशेषकर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के लिए भविष्य का रास्ता आसान नही दिखता। कश्मीर के परिणामों ने उन दलों व नेताओं को भी स्वीकार नही किया है जिन्होंने केंद्र के साथ हाथ मिला कर राजनीति करने की कोशिश की।

उल्लेखनीय है कि लोकसभा चुनाव में कश्मीर की सबसे बड़ी व पुरानी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस के प्रमुख नेता व पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को बारामुला लोकसभा सीट से हार का सामना करना पड़ा है। उन्हें तिहाड़ जेल में बंद विवादास्पद नेता इंजीनियर राशिद ने लगभग 204142 मतों के अंतर हरा दिया। उमर की तरह ही कश्मीर की दूसरी बड़ी पार्टी- पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की प्रधान और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को भी हार का सामना करना पड़ा है। महबूबा को अनंतनाग लोकसभा क्षेत्र से नेशनल कांफ्रेस नेता मियां अल्ताफ ने 281794 मतो से शिकस्त दी है।

जिस तरह से पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती की लोकसभा चुनाव में हार हुई है उससे यह संकेत मिल रहे हैं कि कहीं न कहीं वंशवाद को लेकर कश्मीर के लोगों में नराज़गी भी दिखाई दे रही है। लोगों ने दोनों ही बड़े नेताओं को जिस तरह से नकारा है उससे यह साफ है कि लोग कश्मीर में स्थापित नेताओं का विकल्प ढूंढ रहे हैं।

लगभग 92 वर्ष पुरानी नेशनल कांफ्रेंस और 25 वर्ष पुरानी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) को लेकर कश्मीर ने लगभग एक जैसा फैसला सुनाया है। दोनों से ही किसी भी तरह की रियायत नही बरती गई है।

अब्दुल्ला परिवार के लिए चेतावनी?

बेशक नेशनल कांफ्रेंस ने श्रीनगर और अनंतनाग की लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की है मगर बारामूला की हार से पार्टी के साथ-साथ अब्दुल्ला परिवार को भी एक बड़ा झटका लगा है और इस हार के गहरे अर्थ निकाले जा रहे हैं। जेल में बंद एक निर्दलीय उम्मीदवार इंजीनियर राशिद से नेशनल कांफ्रेंस के प्रमुख नेता उमर अब्दुल्ला का हारना बताता है कि पार्टी के लिए आगे की राजनीति अब पहले जैसी आसान नही रहने वाली है। उमर की हार भी कोई छोटी नही थी, वे लगभग 204142 मतों से हारे। उन्हें कुल 25.95 प्रतिशत मत मिले जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी इंजीनियर राशिद ने 45.7 प्रतिशत के साथ 469574 मत हासिल किए।

बारामूला लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली 18 विधानसभा क्षेत्रों में से इंजीनियर राशिद ने 14 क्षेत्रों पर भारी बढ़त बनाई जबकि उमर अब्दुल्ला मुश्किल से केवल तीन विधानसभा क्षेत्रों में आगे रहे। एक सीट पर पीपुल्स कांफ्रेंस के सज्जाद लोन को बढ़त मिली।

बारामूला लोकसभा क्षेत्र में उमर अब्दुल्ला की हार ने एक बात साफ कर दी है कि कश्मीर की राजनीति में जो दबदबा किसी ज़माने में अब्दुल्ला परिवार का था उसमें अब फर्क आने लगा है। उमर अब्दुल्ला को विरासत में जो नेशनल कांफ्रेंस रूपी मजबूत किला मिला था उसमें दरारें उभरने लगी हैं। इस किले की दिवारें कब दरकने लगेंगी कहना मुश्किल है, मगर आम लोगों में नेशनल कांफ्रेंस को लेकर एक खामोश उदासीनता नज़र आने लगी है। विशेषकर नई पीढ़ी में नेशनल कांफ्रेंस को लेकर बहुत अधिक उत्साह नही दिख रहा है। नई पीढ़ी के साथ नेशनल कांफ्रेंस का जुड़ाव लगातार कम हो रहा है और वह नए रास्ते तलाश रही है। इंजीनियर राशिद की जीत में नौजवानों ने अहम भूमिका निभाई है।

यह एक सच्चाई है कि कई अन्य खूबियों के बावजूद उमर अब्दुल्ला अपने पिता फारूक अब्दुल्ला और दादा स्वर्गीय शेख महोम्मद अब्दुल्ला की तरह कार्यकर्ताओं से जुड़ नहीं पाते। यही वजह है कि कश्मीर के इतिहास में अहम भूमिका निभाने वाली उनके दादा शेख महोम्मद अब्दुल्ला द्वारा बनाई गई पार्टी से आज की पीढ़ी दूर होती जा रही है। उमर अब्दुल्ला नई पीढ़ी में आ रहे इस बदलाव को समझ पाने में विफल रहे हैं।

सोशल मीडिया में तो उमर बहुत सक्रिय हैं मगर ज़मीनी राजनीति में वे लगातार कमज़ोर ही साबित हो रहे हैं। उमर अब्दुल्ला की भाव-भंगिमा भी उन्हें कार्यकर्ताओं से जोड़ पाने में सहायता नही करती। कार्यकर्ताओं से मिलने में वे बहुत अधिक उत्साहित नही रहते। पार्टी के बड़े नेताओं व कार्यकर्ताओं के साथ संवादहीनता की वजह से कई तरह की शिकायते उमर को लेकर हैं। पार्टी के कई नेता दबी ज़ुबान में मानते हैं कि उमर पार्टी को संभाल सकने में समर्थ दिखाई नहीं दे रहे हैं।

उमर अब्दुल्ला के पिता फारूक अब्दुल्ला अभी भी सक्रिय हैं और 86 वर्ष की आयु में भी लगातार कार्यकर्ताओं से जुड़ने की कोशिश करते हैं। तमाम मुश्किलों के बावजूद फारूक अब्दुल्ला राष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ प्रदेश में भी बिना रुके व थके अपनी भूमिका निभा रहे हैं। फारूक, कश्मीर ही नही जम्मू संभाग में भी कार्यकर्ताओं के साथ अभी भी लगातार तालमेल बना कर रखते हैं और किसी को निराश नही होने देते। तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अगर नेशनल कांफ्रेंस को एक भी बड़े नेता ने छोड़ा नही है तो उसके पीछे फारूक अब्दुल्ला एक बड़ी वजह रहे हैं। कई तरह की नराज़गियों के बावजूद अधिकतर नेताओं का आज भी फारूक अब्दुल्ला के प्रति सम्मान का भाव है।

पीडीपी भी हो रही कमजोर

कश्मीर की दूसरी बड़ी पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के अंदरूनी हालात और भी अधिक खराब हैं। उसका लोकसभा चुनाव में प्रदर्शन बहुत ही निराशाजनक रहा है। पार्टी प्रमुख महबूबा मुफ्ती की अनंतनाग-राजौरी से हार ने पार्टी को एक बड़ा झटका दिया है।

पहले पार्टी के संस्थापक संस्थापक मुफ्ती महोम्मद सईद और बाद में अनुच्छेद-370 के टूटने के बाद से लगातर पार्टी के कई बड़े नेता पार्टी को छोड़कर चले गए। इससे निश्चित रूप से पार्टी को नुक्सान उठाना पड़ा है। पार्टी के कमजोर ढांचे को किसी तरह से महबूबा मुफ्ती बचाए हुए हैं।

कश्मीर की सबसे पुरानी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के बीच मुख्य अंतर यह है कि नेशनल कांफ्रेंस के पास कार्यकर्ताओं की एक बहुत ही मज़बूत फौज है जबकि पीडीपी इस मामले में बहुत ही कमजोर है। हालांकि पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी( पीडीपी) के पास महबूबा मुफ्ती के रूप में एक कुशल,मेहनती व परिपक्व मुखिया तो है, मगर संगठन कमजोर होने के कारण पार्टी को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।

महबूबा मुफ्ती को अनंतनाग-राजौरी से कुल 25.39 प्रतिशत मतों के साथ कुल 238210 मत मिले। कुल 18 विधानसभा हलकों में से सिर्फ तीन में महबूबा मुश्किल से बढ़त बना सकीं। यह आंकड़े बताते हैं कि पीडीपी की ज़मीन पर कितनी ताकत शेष बची है।

भाजपा के सहयोगियों को भी नकारा

लोकसभा चुनाव के परिणामों ने कश्मीर के उन राजनीतिक दलों को भी नकारा है जो केंद्र का हाथ पकड़ कर कश्मीर की राजनीतिक ज़मीन पर स्थापित होना चाहते हैं। इन दलों में ‘अपनी पार्टी’ और पीपुल्स कांफ्रेंस शामिल हैं। दोनों को कश्मीर में भारतीय जनता पार्टी की ‘बी’ टीम माना जाता है। दोनों दलों को लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने अपना सहयोग देने की घोषणा भी की थी। मगर ‘अपनी पार्टी’ और पीपुल्स कांफ्रेंस ने लोकसभा चुनाव में जो प्रदर्शन किया है उससे साफ है कि कश्मीर के लोगों को उनकी राजनीति पसंद नही आई है।

‘अपनी पार्टी’ ने श्रीनगर और अनंतनाग-राजौरी क्षेत्रों से लोकसभा का चुनाव लड़ा, उसके उम्मीदवार ज़फर इकबाल मन्हास को अनंतनाग-राजौरी सीट से मात्र 13.86 मत ही मिल सके जबकि श्रीनगर से पार्टी के प्रत्याशी महोम्मद अशरफ मीर को सिर्फ नौ प्रतिशत मतों के साथ संतोष करना पड़ा।

जबकि पीपुल्स कांफ्रेंस के प्रमुख सज्जाद लोन ने बारामूला से अपनी किस्मत आजमाई। सज्जाद लोन ने 16.76 प्रतिशत मत हासिल किए और सिर्फ एक विधानसभा क्षेत्र में बढ़त बना सके।

एक तीसरा दल भी है, जिसका ज़िक्र किए बिना लोकसभा चुनाव का विश्लेषण पूरा नही हो सकता। हालांकि इस दल का प्रदर्शन ऐसा भी नही है जिसकी चर्चा बहुत ही आवश्यक हो। यह दल है गुलाम नबी आज़ाद द्वारा गठित ‘डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आज़ाद पार्टी’। इस दल ने तीन लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा। मगर लोगों ने आज़ाद के इस दल को बिलकुल भी स्वीकार नही किया। अनंतनाग-राजौरी सीट से आज़ाद की पार्टी को मात्र 2.49 प्रतिशत मत मिले जबकि श्रीनगर सीट से 2.24 प्रतिशत वोट ही मिल सके। इसी तरह से उधमपुर लोकसभा क्षेत्र से आज़ाद की पार्टी सिर्फ 3.56 प्रतिशत मत ले सकने में कामयाब हुए। बारामूला सीट पर आज़ाद ने अपनी पार्टी का कोई प्रत्याशी खड़ा करने की जगह निर्दलीय उम्मीदवार इंजीनियर राशिद को अपना समर्थन दिया था। उल्लेखनीय है कि गुलाम नबी आज़ाद की पार्टी को भी भाजपा की ‘बी’ टीम माना जाता है।

By मनु श्रीवत्स

लगभग 33 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय।खेल भारती,स्पोर्ट्सवीक और स्पोर्ट्स वर्ल्ड, फिर जम्मू-कश्मीर के प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बार ‘कश्मीर टाईम्स’, और ‘जनसत्ता’ के लिए लंबे समय तक जम्मू-कश्मीर को कवर किया।लगभग दस वर्षों तक जम्मू के सांध्य दैनिक ‘व्यूज़ टुडे’ का संपादन भी किया।आजकल ‘नया इंडिया’ सहित कुछ प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिख रहा हूँ।

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