विपक्षी दलों को एकमंचीय करने और उन्हें एकाकार बनाए रखने की प्रक्रिया अगर सोनिया की सीधी रहनुमाई में चली होती तो इंडिया-समूह के राजनीतिक दलों की संख्या 28 से कहीं ज़्यादा होती। मैं अपनी प्रामाणिक निजी जानकारी के आधार पर कह रहा हूं कि ठोस सियासी जनाधार रखने वाले कई राजनीतिक दल अभी भी ऐसे हैं, जो न इधर हैं, न उधर और जिन्हें मलाल है कि इंडिया-समूह की तरफ़ से उन से क़ायदे के किसी व्यक्ति ने संपर्क ही नहीं किया।
नरेंद्र भाई मोदी हम पर राज करने के कितने लायक हैं, कितने नहीं, इस पर तो बात तब करें, जब विपक्ष अपनी ना-लायकी से बाज़ आए। वे सब, जो नरेंद्र भाई के एकलखुरेपन से निज़ात चाहते हैं, आखि़र किस प्रतिस्थापन के भरोसे अपनी हड्डियों का दान करें? 28 राजनीतिक दलों के उस इंडिया-समूह के सहारे, जिस में ख़ुद ही सब एक-दूसरे का सहारा नहीं बन पा रहे हैं? जो दमड़ी के चक्कर में अपनी चमड़ी गंवाने को अक़्लमंदी समझ रहा है? जिस के अश्वमेधी रथ के तमाम दिग्गज अपने को एक-दूसरे से बड़ा लपोरीलाल साबित करने में लगे हुए हैं?
दिग्गज, दिग-गज होते हैं। हमारे पुराण कहते हैं कि दिग-गज वे आठ हाथी हैं, जो आठों दिशाओं में पृथ्वी की रक्षा के लिए स्थापित किए गए हैं। पूर्व में ऐरावत, पश्चिम में अंजन, उत्तर में सार्वभौम और दक्षिण में वामन। इन के अलावा पूर्वदक्षिण कोने में पुंडरीक, दक्षिणपश्चिम में कुमुद, पश्चिमउत्तर कोने में पुष्पदंत और उत्तरपूर्व कोने में सुप्रतीक। इंडिया-समूह के दिग्गजों – नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, ममता बनर्जी, सीताराम येचुरी, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल, शरद पवार और मल्लिकार्जुन खड़गे – में से मुझे तो ज़्यादातर ऐसे लगते हैं, जो विपक्षी-पृथ्वी की रक्षा में कम, अपनी-अपनी दिशाओं का द्वारपाल बने रहने के लिए ज़्यादा आतुर दिखाई दे रहे हैं।
तो ऐसे में सिंहासन को हर हाल में, हर हथकंडा अपना कर, अपने क़ब्ज़े में बनाए रखने को व्याकुल नरेंद्र भाई के प्रतिकार के लिए, हम पिद्दी-पिद्दी आकांक्षाओं को मुट्ठीबंद करने के लिए उतने ही आकुल चेहरों पर, अपना सर्वस्व कैसे उंडेल दें? ख़ुद की साख़ पर ख़ुद ही बट्टा लगाने में लगे इंडिया-समूह के कुछ सूत्रधारों की सियासी कामवासना का ओछापन देख-देख कर मैं तो पिछले कुछ दिनों से अवसन्नता के सागर में डूब-उतरा रहा हूं। मुझे चिंता इन चिरकुटी-चेहरों की नहीं, इस बात की है कि अगर सकल-विपक्ष के एकमंचीय होने का यह मौजूदा प्रयास नाकाम रहा तो भारवासियों का विश्वास आने वाले दस-बीस बरस के लिए समूचे विपक्ष से उठ जाएगा।
समूचे यानी समूचे। अगर अखिल भारतीय उपस्थिति वाले किसी विपक्षी राजनीतिक दल को यह ख़ामख़्याली हो कि लोग सिर्फ़ क्षेत्रीय दलों के ख़ामख़्वाह विराट हो गए बौने क्षत्रपों को इस पाप का भागी मानेंगे और इस से अंततः एक दिन आएगा कि उस की झोंपड़ी के भाग्य खुल जाएंगे तो दिमाग़ के ये जाले साफ़ होने में देर नहीं लगेगी। लोग मानते हैं कि विपक्ष की जाज़म पर जिस की जितनी हिस्सेदारी है, उस की उतनी ही ज़िम्मेदारी भी है। भारतीय समाज में छोटों की तो बड़ी ख़ताएं भी माफ़ हो जाया करती हैं, मगर बड़ों की छोटा-सा क़ुसूर भी उन के लिए बरसों का नासूर बन जाता है। सो, ऐसा कभी नहीं होने वाला है कि विपक्षी मंडलेश्वरों से निराश लोग इसलिए किसी महामंडलेश्वर की शरण में चले जाएंगे कि उस के सिर पर ज़रा बड़ा और दैशिक छत्र तना हुआ है। विश्वास के संकट का सैलाब आएगा तो सब-कुछ अपने साथ बहा ले जाएगा।
इवीएम के बटन नरेंद्र भाई मोदी की उंगलियों के इशारे पर नाचते हैं या नहीं, मुझे नहीं मालूम। अगर नाचते हैं, इसलिए वे दस साल से हमारे कंधों पर सवार हैं तो उन की इस बैताली को सलाम कीजिए। अगर नहीं नाचते हैं, फिर भी वे दस बरस से लगातार चुनावी समर्थन की सीढ़ियां दौड़-दौड़ कर चढ़ रहे हैं तो उन के परिश्रम और ऊर्जा का अभिनंदन कीजिए। दोनों ही स्थितियों में नरेंद्र भाई के गले से जयमाला निकालने के लिए क्या किसी के पास कोई जुगत है? उन की बैताली का तोड़ पहले तो आप लाएंगे कहां से और अगर ले भी आए तो आप की गुहार सुनने वाले कान कहीं हैं क्या? उन की मेहनत और जोश का पहले तो कोई जवाबी पोस्टकार्ड आप के पास है नहीं और अगर यह ख़त आप ने रच भी लिया तो उसे यार-ए-बाम तक ले जाने वाले कबूतर कहीं हैं क्या? दस-बीस साल से अपनी सियासी टोलियों में जिन्होंने लिपिक भर्ती अभियान के तहत नियुक्तियां की हैं, वे रातोंरात पैदल सैनिकों को कैसे जन्म दे देंगे?
इसलिए नीतीश कुमार अगर बीच-बीच में अपना मटमैलापन नहीं भी दिखाते, ममता बनर्जी कोप भवन के भीतर-बाहर नहीं भी हो रही होतीं, अरविंद केजरीवाल फूफागिरी नहीं भी कर रहे होते और अखिलेश यादव के क़दम ग़ाहे-ब-ग़ाहे नहीं भी लड़खड़ा रहे होते तो भी क्या इंडिया-समूह 2024 की गर्मियों में रायसीना पर्वत पर अपना ध्वज वंदन कर लेता? शायद नहीं कर पाता। मगर अगर यह बेसुरा कमरमटक्का नहीं हो रहा होता तो हर जगह साझा प्रत्याशी खड़े करने के बावजूद लोकसभा चुनाव में उसे जो भी डेढ़-दो सौ सीटें मिलतीं, कम-से-कम इज़्जत से तो मिलतीं। इन दिनों चल रहे प्रहसन के बाद तो केंद्र में विपक्ष की सरकार भी बन जाए तो वह अगर-मगर-किंतु-परंतु के चीथड़ों में ही लिपटी दिखाई देगी।
मैं अब भी यह तो नहीं कहूंगा कि कांग्रेस एक बड़ा मौक़ा पूरी तरह चूक गई है। लेकिन यह ज़रूर है कि वह एक अहम अवसर खो रही है। मुट्ठी से फिसल रही रेत को थामने की संजीदा कोशिश अगर वह आज से भी आरंभ कर दे तो इंडिया-समूह बदशक़्ल होने से बच सकता है। मुझे नहीं पता कि कांग्रेस ने इंडिया-समूह के अंतर्विरोधों के तानेबानों को सुलझाने में शुरू से इतनी उदासीनता क्यों बरती? क्या जानबूझ कर? क्या नादानी में? क्या अति-आत्मविश्वास के चलते? क्या लिपिकों की मूढ़ सलाहों के चलते? क्या आगत के आसार बेहद धुंधले देख कर? क्या यह सोच कर कि ऐसे-ऐसे मेंढकों को तोलने वाली तराजू वह लाए कहां से?
जो भी हो। हालांकि यह काम छह महीने पहले से ही होना चाहिए था, मगर मैं आश्वस्त हूं कि आज भी अगर इंडिया-समूह की एकीकरण-डोरियां सोनिया गांधी के पल्लू में बांध दी जाएं तो पूरा दृश्य ही बदल जाएगा। कोई नीतीश, कोई ममता, कोई केजरीवाल, कोई अखिलेश, सोनिया के नेकनीयत और पारदर्शक उपक्रम के तंतु तोड़ने का पाप करने से पहले कई-कई बार सोचेगा। विपक्षी दलों को एकमंचीय करने और उन्हें एकाकार बनाए रखने की प्रक्रिया अगर सोनिया की सीधी रहनुमाई में चली होती तो इंडिया-समूह के राजनीतिक दलों की संख्या 28 से कहीं ज़्यादा होती। मैं अपनी प्रामाणिक निजी जानकारी के आधार पर कह रहा हूं कि ठोस सियासी जनाधार रखने वाले कई राजनीतिक दल अभी भी ऐसे हैं, जो न इधर हैं, न उधर और जिन्हें मलाल है कि इंडिया-समूह की तरफ़ से उन से क़ायदे के किसी व्यक्ति ने संपर्क ही नहीं किया।
सो, कोई माने तो ठीक, न माने तो ठीक, सच्चाई यही है कि नरेंद्र भाई को सच्चे मन से टक्कर देने का थोड़ा भी जज़्बा अगर विपक्ष में बन जाए तो, जीत-हार छोड़िए, भारतीय जनता पार्टी की चूलें तो बुरी तरह हिल जाएं। राजनीति भले ही गणित हो, लेकिन वह दौड़ती तभी है, जब सोच-समझ वाले इतना समझ लें कि दो और दो का अर्थ हमेशा चार नहीं होता है। कुछ क़दम बिना हिसाब-क़िताब लगाए भी जब कोई चलने को तैयार होता है, मंज़िलें तभी क़रीब आती हैं।