भोपाल । अब जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव निकट आते जा रहे है वैसे-वैसे राजनीतिक सरगर्मी बढ़ती जा रही है, अभी से चुनाव के प्रथम चरण टिकट वितरण में ही भागादौड़ी और भागदौड़ के बीच स्पर्द्धा का माहौल है, एक ओर टिकट के लिए भागादौड़ी है, तो दूसरी ओर चुनाव लड़ने से बचने के लिए भागदौड़। आज प्रमुख प्रतिपक्षी दल कांग्रेस सहित किसी भी प्रतिपक्षी दल का बड़ा नेता चुनावी रण में उतरने को तैयार नही है, सभी अपने आपको टिकट देने वाले की कतार में रखना चाहते है,
टिकट प्राप्त करने वालों की कतार में नही, वहीं सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी में ‘उल्टी गंगा’ बह रही है, वहां टिकट याचकों की भीड़ है और टिकट से अपने आपकों वंचित कोई नही रखना चाहता, भाजपा के सभी टिकट याचकों को अपना भविष्य उज्जवल नजर आ रहा है, क्योंकि सभी मानते है कि मोदी ही तीसरी बार देश पर शासन करने वाले है, इसलिए हर कोई ‘बहती गंगा’ में ‘हाथ धोने’ नही बल्कि डुबकी लगाने के सपने देख रहा है।
जबकि प्रमुख प्रतिपक्ष दल कांग्रेस सहित अन्य प्रतिपक्षी दलों की स्थिति यह है कि येन-केन-प्रकारेण पारिवारिक या अन्य बहाने बनाकर नेता कार्यकर्ता टिकट से कन्नी काट रहे है, आज कांग्रेस सहित किसी भी प्रतिपक्षी दल का बड़ा नेता चुनाव लड़ने को तैयार नही, हर कोई अपने आपकों ‘चुनाव लड़ाने वाला’ ही समझ रहा है,
इस तरह प्रतिपक्षी दलों ने जहां प्रत्याशियों का संकट है तो सत्तारूढ़ दल में स्पर्द्धा। सत्तारूढ़ दल भाजपा का हर नेता कार्यकर्ता यह मान रहा है कि मोदी जी की चमक से वह राजनीतिक घटाटोप में से आसानी से बाहर आ जाएगा, जबकि कांग्रेस सहित प्रतिपक्षी दलों में यह विश्वास बढ़ता जा रहा है कि जब तक मोदी है तब तक दुर्भाग्य उनका पीछा नही छोड़ सकता, इसलिए सभी प्रतिपक्षी ‘अच्छे दिन’ का इंतजार कर रह है।
यह स्थिति सिर्फ राष्ट्रीय दलों में ही नही, क्षेत्रीय दलों की भी यही स्थिति है, हर दल भाजपा की निकटता चाहता है, जिसका ताजा उदाहरण महाराष्ट्र की शिवसेना (राज) है, जिसके अध्यक्ष राज ठाकरे ने दिल्ली जाकर भाजपा के ‘भीष्म पितामह’ या ‘चाणक्य’ अमित शाह से भेंट करके अपने आपकों ‘समर्पित’ किया, इसी तरह झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की भाभी व वरिष्ठ नैत्री सीता सोरेन ने भााजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली, बिहार के वरिष्ठ नेता पशुपति पारस ने भाजपा द्वारा की जा रही कथित उपेक्षा के कारण केन्द्रीय मंत्री पद से इस्तीफा दे दियाI
इस प्रकार कुल मिलाकर मौजूदा राजनीतिक मौसम ‘पंछी के इधर से उधर उड़कर जाने का है’, अब इस प्रक्रिया में ठहराव लोकसभा चुनाव निपट जाने के बाद ही आ पाएगा। हाँ, तो मूल चर्चा ‘भागदौड़’ और ‘भागादौड़ी’ की चल रही थी, सत्तारूढ़ दल में टिकट के लिए ‘भागदौड़’ और प्रतिपक्षी दलों में टिकट से बचने की ‘भागादौड़ी’ और इस खेल में दोनों ही प्रमुख दलों भाजपा-कांग्रेस के प्रमुख नामी-गिरामी नेता सबसे आगे है।
आज देश के राजनीतिक क्षितिज पर भाजपा का सूरज जहां दैदिव्यमान हो रहा है तो कांग्रेस का सूरज धीरे धीरे अस्ताचल की ओर जा रहा है, कांग्रेस की इस दशा-दिशा के लिए भाजपा को श्रेय नही दिया जा सकता क्योंकि कांग्रेस का बचकाना अनुभवहीन व बिखरा हुआ नैतृत्व स्वयं जिम्मेदार है, चूंकि प्रतिपक्षी दलों में सिर्फ कांग्रेस ही एक राष्ट्रीय स्तर का दल है, बाकी सभी क्षेत्रीय दल है, इसलिए कांग्रेस की इस दुर्दशा के दौर में यदि यह कहा जाए कि भारत में ‘भाजपा का एकछत्र राज’ है तो कतई गलत नही होगा।
वैसे इस स्थिति को भाजपा चाहे अपना ‘स्वर्ण युग’ मानती हो, किंतु वास्तव में यह भारत के लिए ‘अंध युग’ है, क्योंकि देश में एक ही दल की प्रमुखता देश का दुर्भाग्य है और किसी भी स्वतंत्र देश में प्रतिपक्षी का अपना महत्व होता है, कहा भी गया है ना- ‘‘निन्दक नीयरे राखिये आंगन कुटी छबाय’’।