उत्तम मन्वादि के प्रारंभ की तिथि कार्तिक मास की पूर्णिमा है। उत्तम मन्वादि सहित अन्य सभी मन्वादि तिथियों पर नदियों में स्नान, हवन, दान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक अनुष्ठान किये जाने का विधान है। लेकिन उपनयन, विद्यारम्भ, विवाह, निर्माण, गृह प्रवेश, यात्रा आदि में सभी मन्वादि तिथियों का त्याग करना ही उत्तम कहा गया है। धार्मिक कार्यों के लिए शुभ मानी जाने वाली इन मन्वादि तिथियों में पवित्र नदियों में स्नान करना दान देना तथा हवन करना आदि श्रेष्ठ कार्य शुभ माने गए हैं।
6 नवंबर- उत्तम मन्वादि पर विशेष
पौराणिक मान्यतानुसार सृष्टि के प्रलय के बाद मानव सृष्टि के प्रारंभ करने वाले को मनु कहा जाता है। ब्रह्मा द्वारा सृजित यह मनु ही विश्व और सभी प्राणियों की उत्पत्ति करते हैं, जो प्राणियों के जाति के रूप में उनकी आयु की अवधि तक बनती और चलती रहतीं हैं। उन मनु की मॄत्यु के उपरांत ब्रह्मा पुनः एक नए मनु की सृष्टि करते हैं, जो फ़िर से सभी प्रकार की सृष्टि करते हैं। विष्णु आवश्यकता के अनुसार समय- समय पर अवतार लेकर इसकी संरचना और पालन करते हैं। नए इंद्र और सप्तर्षि भी नियुक्त होते हैं। मनु के विभिन्न मन्वंतरों के काल में अलग-अलग मनु और सप्तर्षि हुए हैं। वर्तमान मे श्वेत वराह कल्प का सातवां मन्वंतर अर्थात वैवस्वत मनु चल रहा है।
इससे पूर्व छः मन्वंतर- स्वायम्भुव, स्वारोचिष, औत्तमि, तामस, रैवत, चाक्षुष बीत चुके है, और चलायमान इस सातवें वैवस्वत के पश्चात आगे भविष्य में सावर्णी, दक्ष सावर्णी, ब्रह्म सावर्णी, धर्म सावर्णी, रुद्र सावर्णी, देव सावर्णी और इंद्र सावर्णी नामक मन्वंतर आयेंगे। मान्यता है कि इस कल्प में होने वाले सात भावी मनुओं के द्वारा द्वीपों और नगरों सहित सम्पूर्ण पृथ्वी का एक सहस्त्र युगों तक पालन होगा। प्रत्येक मन्वंतर ब्रह्मा द्वारा सृजित एक विशेष मनु द्वारा रचित एवं शासित होता है। और उस मनु के शासन काल को मन्वंतर के नाम से जाना जाता है। चौदह मनु और उनके मन्वंतर को मिलाकर एक कल्प बनता है।
यह ब्रह्मा का एक दिवस होता है। यह समय चक्र भारतीय कालगणना वैदिक समयरेखा के अनुसार होता है। प्रत्येक कल्प के अंत में प्रलय आती है, जिसमें ब्रह्मांड का संहार होता है और वह विराम की स्थिति में आ जाता है, जिस काल को ब्रह्मा की रात्रि कहते हैं। इसके उपरांत सृष्टिकर्ता ब्रह्मा पुनः सृष्टि रचना आरंभ करते हैं, जिसके बाद फ़िर संहारकर्ता भगवान शिव इसका संहार करते हैं। और यह सब एक अंतहीन प्रक्रिया अथवा चक्र में निरंतर चलता ही रहता है। प्रत्येक प्रलय के पश्चात पुनः सृष्टि के प्रारंभ होने की तिथि मन्वादि तिथि कहलाती है। यह एक मन्वंतर को चिह्नित करती है।
भारतीय मान्यतानुसार मानवता के प्रजनक की भी आयु होती है। यह समय मापन की खगोलीय अवधि है। मन्वंतर एक संस्कॄत शब्द है, जो मनु+अंतर के योग से बना है। मन्वंतर अर्थात मनु की आयु। पौराणिक ग्रंथों में प्रलय के बाद एक नए मन्वंतर के प्रारंभ होने के दिन को मन्वादि संज्ञा से संज्ञायित करते हुए कहा गया है कि प्रत्येक प्रलय के बाद जिस तिथि को पुनः सृष्टि का प्रारंभ हुआ था, वह तिथियां मन्वादि तिथियां कहलाती हैं। मन्वादि तिथि से प्रत्येक सृष्टि प्रलय के बाद सृष्टि का आरंभ होता है। एक कल्प में चौदह मन्वंतर होते हैं, इसलिए चौदह मन्वादि तिथियां होती हैं। विभिन्न मनुओं के नाम अर्थात उस मनु के और उनके नाम के मन्वंतर की प्रारंभ होने की मन्वादि तिथियां भिन्न हैं। श्वेतवाराह कल्प के प्रथम मनु स्वायंभुव मनु मन्वंतर के प्रारंभ की तिथि चैत्र शुक्ल की तृतीया है।
स्वरोचिष मनु मन्वंतर की प्रारंभ तिथि चैत्र पूर्णिमा, औतम (उत्तम) की कार्तिक पूर्णिमा, तामस की कार्तिक शुक्ल द्वादशी, रैवत की आषाढ़ शुक्ल द्वादशी, चाक्षुष की आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा, वैवस्वत की ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा, सावर्णी की फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा, दक्ष सावर्णी की आश्विन शुक्ल नवमी, ब्रह्म सावर्णी की माघ शुक्ल सप्तमी, धर्म सावर्णी की पौष शुक्ल त्रयोदशी, रुद्र सावर्णी की भाद्रपद शुक्ल तृतीया, देव सावर्णी की श्रावण माह की अमावस्या, इंद्र सावर्णी की प्रारंभ की तिथि श्रावण कृष्ण पक्ष की अष्टमी है।
ब्रह्मपुराण के अनुसार चार युगों सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग का एक महायुग माना जाता है। इस प्रकार के इकहत्तर महायुग मिलकर एक मन्वंतर बनाता है। महायुग की अवधि 43 लाख 20 हज़ार वर्ष मानी गई है। मानवीय गणना के अनुसार एक मन्वंतर में तीस करोड़, अड़सठ लाख, बीस हज़ार वर्ष होते हैं। चौदह मन्वंतरों का एक कल्प होता है। प्रत्येक मन्वंतर में सृष्टि का एक मनु होता है और उसी के नाम पर उस मन्वंतर का नाम पड़ता है। मान्यतानुसार ये चौदह मनु यश की वृद्धि करने वाले हैं। वेद, पुराणों में भी इनके प्रभुत्व का वर्णन है। ये प्रजाओं के पालक है। इनके यश का कीर्तन श्रेयस्कर है। मन्वंतरों में कितने ही संहार होते हैं और संहार के बाद कितनी ही सृष्टियां होती रहती है, इन सबका संपूर्ण व यथावत वर्णन सैंकड़ों वर्षों में भी संभव नहीं।
मन्वंतरों के बाद जो संहार होता है, उसमें तपस्या, ब्रह्मचर्य और शास्त्रज्ञान से संपन्न कुछ देवता और सप्तर्षि शेष रह जाते हैं। एक हज़ार चतुर्युग पूर्ण होने पर कल्प समाप्त हो जाता है। उस समय सूर्य की प्रचंड किरणों से समस्त प्राणी दग्ध हो जाते हैं। तब देवता आदित्यगणों के साथ ब्रह्मा को आगे करके परब्रह्म परमेश्वर में लीन हो जाते हैं। वे भगवन ही कल्प के अंत में पुनः सब भूतों की सृष्टि करते हैं, वे अव्यक्त सनातन देवता हैं। यह सम्पूर्ण जगत उन्हीं का है।
पौराणिक ग्रंथों में तीसरे मन्वंतर के लिए मनु उत्तम कहे गए हैं। इन्हें औतमी भी कहा गया है। उत्तम मनु पहले मनु स्वायंभुव के पौत्र अर्थात पोते और प्रियव्रत के पुत्र थे। उत्तम मनु के शासनकाल में देवताओं का नाम सत्य, वेदश्रुत और भद्र था और सप्तर्षि वशिष्ठ के सात पुत्र- कौकुन्धि, कुरुण्डी, दलाय, शंख, प्रवाहित, मीता और सम्मिता थे। हिरण्यगर्भ के तेजस्वी पुत्र ऊर्ज, तनूर्ज मधु, माधव, शुचि, शुक्र, सह, नभस्य तथा नभ पराक्रमी थे। उनके तीन प्रमुख पुत्र थे- पवन, सृंजय और यज्ञहोत्र। उत्तम मन्वंतर काल में सत्यजित इंद्र थे। उत्तम मन्वंतर में हुए विष्णु अवतार का नाम सत्यसेन था, जिन्होंने लोकों में उत्पात मचाने वाले राक्षसों का वध किया। तीसरे मनु उत्तम के मन्वंतर के प्रारंभ होने का दिन उत्तम मन्वादि कहा जाता है।
उत्तम मन्वादि के प्रारंभ की तिथि कार्तिक मास की पूर्णिमा है। उत्तम मन्वादि सहित अन्य सभी मन्वादि तिथियों पर नदियों में स्नान, हवन, दान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक अनुष्ठान किये जाने का विधान है। लेकिन उपनयन, विद्यारम्भ, विवाह, निर्माण, गृह प्रवेश, यात्रा आदि में सभी मन्वादि तिथियों का त्याग करना ही उत्तम कहा गया है। धार्मिक कार्यों के लिए शुभ मानी जाने वाली इन मन्वादि तिथियों में पवित्र नदियों में स्नान करना दान देना तथा हवन करना आदि श्रेष्ठ कार्य शुभ माने गए हैं। वर्तमान सातवें वैवस्त मन्वंतर में ऋषि अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप, गौतम, भरद्वाज, विश्वामित्र तथा जमदग्नि सप्तर्षि होकर आकाश में विराजमान हैं। साध्य, रूद्र, विश्वेदेव, वसु, मरुद्गण, आदित्य और अश्विनौकुमार इस मन्वंतर के देवता माने गए हैं।
वैवस्वत मनु के इक्ष्वाकु आदि दस पुत्र हुए। महातेजस्वी सप्तर्षि महर्षियों के ही पुत्र और पौत्र आदि सम्पूर्ण दिशाओं में फैले हुए हैं। प्रत्येक मन्वंतर में धर्म की व्यवस्था तथा लोक रक्षा के निमित रहने वाले सप्तर्षि में से चार महर्षि मन्वंतर बीतने के बाद अपना कार्य पूरा करके रोग, शोक से रहित ब्रह्मलोक में चले जाते है। तत्पश्चात दूसरे चार तपस्वी आकर उनके स्थान की पूर्ति करते हैं। भूत और वर्तमान काल के सप्तर्षिगण इसी क्रम से होते आये हैं। प्रातःकाल उठकर इनका नाम लेने से मनुष्य सुखी, यशस्वी तथा दीर्घायु होता है।


