Thursday

17-07-2025 Vol 19

सड़कों पर चलने वाले आन्दोलन ही सफल होते हैं

22 Views

सामान्य जनता को कुछ हद तक परेशान करने वाले आन्दोलन सफल होते हैं, यह चौकाने वाला तथ्य है, क्योंकि ये नतीजे जनता और मीडिया के विचारों के बिलकुल विपरीत हैं| पर, 70 प्रतिशत से अधिक आन्दोलन विशेषज्ञों ने इसी तरीके को किसी आन्दोलन की सफलता का सबसे बड़ा करण बताया है| इससे इतना तो स्पष्ट है कि सामाजिक आन्दोलनों के बारे में हमारी जानकारी बहुत सीमित है और इसका विश्लेषण कभी व्यापक तरीके से नहीं किया जाता| 

9 जुलाई को सभी प्रमुख ट्रेड संगठनों ने सम्मिलित तौर पर बीजेपी सरकार की जन-विरोधी नीतियों के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी हड़ताल और धरण प्रदर्शन का आयोजन किया था| प्रदर्शन नई दिल्ली के जंतर-मंतर रोड पर भी किया गया था| बहुत दिनों बाद किसी प्रदर्शन में भीड़ नजर आ रही थी, प्रेस के भारी-भरकम कैमरे चित्र खींच रहे थे और अनेक डिजिटल न्यूज आउट्लेट के प्रतिनिधि रेपोर्टिंग करते नजर आ रहे थे| शायद बहुत दिनों बाद एक परंपरागत प्रदर्शन नजर आ रहा था| हवा ने लहराते लाल झंडे, किसान-मजदूर जैसे प्रदर्शनकारी, और नारों के साथ डफली की आवाज – नारे भी जिन्दाबाद, वापस लो-वापस लो, होश में आओ और नहीं  चलेगी-नहीं चलेगी जैसे परंपरागत अंदाज वाले| नारों में किसान-मजदूरों को भी संबोधित किया जा रहा था| आश्चर्य यह था कि आजकल के विरोध की परंपरा से उलट किसी व्यक्ति-विशेष पर कोई प्रहार नहीं था, बस नीतियों का विरोध था| लहराती तख्तियों पर नारे स्पष्ट और सरल शब्दों में लिखे गए थे और युवाओं की भागीदारी अच्छी-खासी थी| यह एक अपवाद था, क्योंकि हमारे देश में तो अब आंदोलनों और प्रदर्शनों की परिपाटी ही खत्म होती जा रही है| बीजेपी सरकार में गरीबों को गरीबी, भूखों को भूख और बेरोजगारों को बेरोजगारी अब प्रभावित नहीं करती – सबकी समस्याएं अब सत्ता और मीडिया के ध्रुवीकरण, तुष्टीकरण, झूठ, बेमानी और बेशर्मी से ही खत्म हो जाती हैं|

आंदोलनों पर नजर रखने वालों के अनुसार ऐसे अहिंसक आन्दोलन जो सामान्य जनता की रोजमर्रा की जिन्दगी को प्रभावित करते हैं – जैसे सड़कों को अवरुद्ध करना, सरकारी कार्यालयों में प्रवेश को रोकना, सांस्कृतिक या खेल समारोहों में बाधा पहुँचना, बाजारों का मार्ग अवरुद्ध करना – जनता, सत्ता और मीडिया की नजर में भले ही बेकार के हों, पर आन्दोलन विशेषज्ञों की नजर में ऐसे तरीके ही आन्दोलनों को सफल बनाते हैं| अधिकतर विशेषज्ञों के अनुसार किसी आन्दोलन को सफल बनाने का यही सबसे प्रभावी तरीका है| आन्दोलन विशेषज्ञों का यह सर्वेक्षण यूनाइटेड किंगडम स्थित  आन्दोलनों पर अध्ययन करने वाली संस्था सोशल चेंज लैब ने करवाया है| इसने यूरोप के 120 आन्दोलन विशेषज्ञों से सर्वेक्षण में सवाल पूछा था – किसी आन्दोलन को सफल बनाने का सबसे प्रभावी तरीका क्या है?

हमारे देश के लोगों को आन्दोलनों के बारे में समझना कठिन है, क्योंकि यहाँ सामाजिक या आर्थिक विषयों पर आन्दोलन ही नहीं होते| हमारे देश में पिछले 50 वर्षों के दौरान तीन बड़े और राष्ट्रीय स्तर पर आन्दोलन हुए हैं – जयप्रकाश नारायण का आन्दोलन, अन्ना हजारे का आन्दोलन और किसानों का आन्दोलन| इसमें से पहले दो आन्दोलन कांग्रेस के सत्ता पर एकाधिकार, निरंकुश सत्ता और भ्रष्टाचार के विरुद्ध थे| दोनों ही आन्दोलनों के साथ देश की जनता जुडी और इन आन्दोलनों की शुरुआत भी एक स्पष्ट उद्देश्य को लेकर हुई| फिर, ये आन्दोलन सत्ता पर काबिज होने के लिए चलाये जाने लगे| जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के बाद हिन्दू राष्ट्र और सामाजिक ध्रुवीकरण वाली बीजेपी सत्ता का एक हिस्सा बनी और अन्ना हजारे के आन्दोलन के बाद तो पूरी तरह सत्ता पर काबिज ही हो गयी| इन दोनों आन्दोलनों के जो उद्देश्य थे, और जनता जिन समस्यायों से छुटकारा पाना चाहती थी – वही समस्याएं अब पहले से भी व्यापक बनकर जनता के सामने खडी हैं| कुल मिलाकर आन्दोलनों का नाटक करने वाले और सडकों पर संघर्ष का दिखावा करने वाले सभी सत्ता का सुख भोग रहे हैं और एक जीवंत प्रजातंत्र को निरंकुश सत्ता में बदल दिया| जाहिर है, ऐसी निरंकुश सत्ता के काबिज होने के बाद आन्दोलनों को कुचला गया, झूठे आश्वासन देकर उन्हें ख़त्म कराया गया और अब तो जनता आन्दोलन करना ही भूल गयी है|

हमारे देश में तो जिन आन्दोलनों को सफल कहा जा सकता है, उन आन्दोलनों का असर ही उल्टा हो गया| एक साल से भी अधिक चले किसान आन्दोलन के बाद भी किसानों को कोई फायदा नहीं हुआ, उलटा सरकारी तौर पर और सामाजिक तौर पर भी किसान पहले से अधिक उपेक्षित हो गए| पहले कभी-कभी किसानों की समस्याओं से सम्बंधित कुछ समाचार प्रकाशित भी होते थे, पर आन्दोलन ख़त्म होने के बाद तो मीडिया ने भी उनको भुला दिया|

फ्रांस में 17 वर्ष के बच्चे की मृत्यु पुलिस वालों की गोली से हो जाती है तो पूरा फ्रांस सडकों पर उतर जाता है| दूसरी तरफ हमारे देश में किसी को पुलिस वाले मार डालते हैं, तब सत्ता-समर्थक जश्न मनाते है, मीडिया उसे आतंकवादी और देशद्रोही करार देती है, सोशल मीडिया पर एक धर्म विशेष के बारे में हिंसा भड़काई जाती है| सत्ता पुलिसवालों को अगली ह्त्या के लिए बढ़ावा देती है और इन सबके बीच देश की बेरोजगार और भूखी जनता अगले शाम पेट भरने के इंतजाम में व्यस्त रहती है| हमारे देश में हरेक आन्दोलनकारी, भले ही वह देश का नाम बढ़ा रहा हो, सत्ता और पुलिस की नजर में देशद्रोही ही है|

सामाजिक बदलाव की संभावना वाले आन्दोलन अधिक सफल होते हैं| भले ही ऐसे आन्दोलन को समाज का कोई भी एक पीड़ित वर्ग शुरू करे पर धीरे धीरे सामाजिक बदलाव की संभावना का आकलन कर समाज का हरेक वर्ग ऐसे आन्दोलन से जुड़ जाता है| दरअसल अब तक आन्दोलनों पर सारे अध्ययन यह मान कर किये गए हैं कि लोग केवल भावनात्मक तौर या फिर आवेश में आन्दोलनों से जुड़ते हैं, पर स्टेनफोर्ड पब्लिक स्कूल ऑफ़ बिज़नस के समाजशास्त्रियों द्वारा किये गए अध्ययन से यह स्पष्ट है कि जब सामान्य लोगों को महसूस होता है कि किसी आन्दोलन का व्यापक असर समाज पर पड़ेगा, तब ऐसे आन्दोलनों से अधिक लोग जुड़ते हैं और ऐसे आन्दोलन लम्बे समय तक चलते हैं| इस अध्ययन को पर्सनालिटी एंड सोशल साइकोलॉजी बुलेटिन नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है|

आन्दोलनों की सफलता में भागीदारियों की सामरिक सोच, प्रतिस्पर्धा और इसका व्यापक असर बहुत महत्त्व रखता है| आन्दोलनों में सार्थक भागीदारी निभाने वाले लोगों या समूहों में चार मौलिक प्रश्नों के उत्तर ढूंढे जाते हैं – इस आन्दोलन से हमें क्या लाभ होगा, हमसे समाज को क्या लाभ होगा, समाज से हमें क्या लाभ होगा और आन्दोलन से समाज को क्या लाभ होगा| इन प्रश्नों के उत्तर के लिए मस्तिष्क में एक सामरिक और प्रभावकारी विचारधारा पनपती है| केवल आत्मकेंद्रित आन्दोलन कभी सफल नहीं होते| सामरिक और प्रभावकारी विचारधारा के सन्दर्भ में यदि ब्लैक लाइव्ज मैटर आन्दोलन का आकलन करें तो अश्वेतों के लिए यह अपने अधिकार और समाज में बराबरी का मसला था| एशियाई और लैटिना आबादी का समर्थन इसलिए था कि जब अश्वेतों को समाज में बराबरी का दर्जा मिलेगा तब इन लोगों को अपने आप ही बराबरी का दर्जा मिल जाएगा| श्वेत आबादी, जो समाज में सबसे सशक्त तबका है, उन्हें आन्दोलन से उम्मीद थी कि जब समाज से भेदभाव ख़त्म हो जाएगा तब जाहिर है समाज में अमन-चैन कायम होगा और समाज में स्थिरता बढेगी| इस आन्दोलन में शामिल लोगों से बातचीत में अधिकतर प्रतिभागियों ने व्यापक सामाजिक बदलाव की आशा जताई थी|

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर एरिका चेनोवेथ और जोए मार्क्स ने 2010 से 2014 के बीच दुनियाभर में किये गए बड़े आन्दोलनों का विस्तृत अध्ययन किया है| इनके अनुसार 70 प्रतिशत से अधिक अहिंसक आन्दोलनों की अगुवाई महिलाओं ने की है और महिलाओं की अगुवाई वाले आन्दोलन अपेक्षाकृत अधिक बड़े और अधिकतर मामलों में सफल रहे हैं| महिलाओं के आन्दोलन अधिक सार्थक और समाज के हरेक तबके को जोड़ने वाले रहते हैं, इनकी मांगें भी स्पष्ट होती हैं| महिलायें आन्दोलनों के नए तरीके अपनाने से भी नहीं हिचकतीं|

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर एरिका चेनोवेथ और जोए मार्क्स के अनुसार पुलिस या सरकारें महिला आन्दोलनों का दमन केवल महिलाओं के कारण नहीं करतीं बल्कि महिलाओं के आन्दोलन के नए तरीके और अहिंसा से वे भी अचंभित रहते हैं| आन्दोलनों के इतिहास में 1980 के दशक तक हिंसक आन्दोलनों का जोर रहा, पर इसके बाद एकाएक आन्दोलनों में महात्मा गांधी के अहिंसक, सविनय अवज्ञा और असहयोग आन्दोलनों के तरीके शामिल हो गए| ऐसा दुनिया भर में किया जा रहा है, और भारत में भले ही महात्मा गांधी को भुला दिया गया हो पर वैश्विक स्तर पर आज के आन्दोलन उन्हीं की राह पर किये जा रहे हैं| अहिंसा का समावेश होते ही महिलाओं की संख्या आन्दोलनों में बढ़ने लगी और अब तो वे दुनिया भर में आन्दोलनों का नेतृत्व कर रही हैं|

सोशल चेज लैब के निदेशक जेम्स ओज्दें ने कहा है कि सामान्य जनता को कुछ हद तक परेशान करने वाले आन्दोलन सफल होते हैं, यह चौकाने वाला तथ्य है, क्योंकि ये नतीजे जनता और मीडिया के विचारों के बिलकुल विपरीत हैं| पर, 70 प्रतिशत से अधिक आन्दोलन विशेषज्ञों ने इसी तरीके को किसी आन्दोलन की सफलता का सबसे बड़ा करण बताया है| इससे इतना तो स्पष्ट है कि सामाजिक आन्दोलनों के बारे में हमारी जानकारी बहुत सीमित है और इसका विश्लेषण कभी व्यापक तरीके से नहीं किया जाता|

Mahendra Pandey

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *