आज के दौर में व्यंग्य का रूप बदल गया है। अब यह किताबों से निकलकर मीम, कार्टून और स्टैंड-अप कॉमेडी तक पहुँच गया है। सोशल मीडिया पर हर दिन नेताओं के बयानों को तोड़-मरोड़ कर ऐसे चुटकुले बनते हैं कि आम आदमी हँसते-हँसते लोटपोट हो जाए। मगर इन चुटकुलों के पीछे एक कड़वा सच भी छिपा होता है। नेता जो जनता के सामने बड़े-बड़े वादे करते हैं, उनकी करनी और कथनी में काफ़ी अंतर होता है। (Kunal Kamra )
नेताओं पर व्यंग्य
भारत विविधताओं का देश है, और विविधता में एक बात जो हर काल और हर कोने में समान रूप से पाई जाती है, वह है नेताओं पर व्यंग्य। चाहे वह गली-मोहल्ले की चाय की दुकान हो या सोशल मीडिया का चहचहाता मंच, नेताओं को लेकर हास्य और तंज का सिलसिला कभी थमता नहीं। लेकिन सवाल यह है कि क्या हमारे नेता इस व्यंग्य को सहन कर पाते हैं?
या फिर यह हास्य उनके लिए एक कड़वी गोली बन जाता है, जिसे न निगलते बनता है और न उगलते? बीते दिनों एक और व्यंग्य को लेकर एक और विवाद हुआ जिससे यह विषय फिर से चर्चा में आ गया कि नेताओं और व्यंग्य का यह रिश्ता कितना गहरा और कितना नाजुक है।
नेताओं पर व्यंग्य कसना कोई नई कला नहीं है। प्राचीन काल से ही साहित्यकार, कवि और नाटककार शासकों और नेताओं की कमियों को उजागर करने के लिए हास्य रस का सहारा लेते आए हैं। भारत में चाणक्य से लेकर कबीर तक, और फिर आधुनिक युग में प्रेमचंद से लेकर हरिशंकर परसाई तक, व्यंग्य ने सत्ता को आईना दिखाने का काम किया है।
परसाई जी ने तो अपनी रचनाओं में नेताओं की चालाकी, ढोंग और वादों की हवा को इस तरह उड़ाया कि पाठक हँसते-हँसते गंभीर सवालों पर ठिठक जाए। मसलन, उनकी एक कहानी में नेता चुनावी सभा में कहता है, “मैं आपके लिए जान दे दूँगा,” और भीड़ तालियाँ बजाती है, लेकिन परसाई पूछते हैं, “क्या वह अपनी जान देगा या आपकी जान लेगा?” (Kunal Kamra )
आज के दौर में व्यंग्य का रूप बदल गया है। अब यह किताबों से निकलकर मीम, कार्टून और स्टैंड-अप कॉमेडी तक पहुँच गया है। सोशल मीडिया पर हर दिन नेताओं के बयानों को तोड़-मरोड़ कर ऐसे चुटकुले बनते हैं कि आम आदमी हँसते-हँसते लोटपोट हो जाए। मगर इन चुटकुलों के पीछे एक कड़वा सच भी छिपा होता है। नेता जो जनता के सामने बड़े-बड़े वादे करते हैं, उनकी करनी और कथनी में काफ़ी अंतर होता है।
वहीं यदि नेताओं की सहनशक्ति की बात करें तो लोकतंत्र में हर नागरिक को अपनी बात रखने का अधिकार है, और व्यंग्य भी अभिव्यक्ति का एक रूप है। लेकिन जब बात नेताओं पर तंज कसने की आती है, तो कई बार उनकी प्रतिक्रिया हैरान करने वाली होती है। कुछ नेता इसे हँसकर टाल देते हैं, तो कुछ इसे अपनी शान के खिलाफ मानकर कानूनी नोटिस भेजने से भी नहीं चूकते। वहीं कुछ नेताओं के कार्यकर्ता इस व्यंग्य को लेकर हिंसा करने में भी नहीं चूकते।
एक मशहूर उदाहरण है जब एक स्टैंड-अप कॉमेडियन ने किसी नेता के ‘विकास’ के दावों पर चुटकी ली। कॉमेडियन ने कहा, “नेता जी कहते हैं कि उन्होंने गाँव में सड़क बनवाई, पर गाँव वाले कहते हैं कि सड़क तो बन गई, बस गाँव गायब हो गया!” यह सुनकर दर्शक हँसे, लेकिन नेता जी ने इसे ‘चरित्र हनन’ करार देकर उस कॉमेडियन पर मुकदमा ठोक दिया। सवाल यह है कि क्या नेताओं को यह समझ नहीं कि जनता का हँसना उनके खिलाफ विद्रोह नहीं, बल्कि अपनी भड़ास निकालने का एक तरीका है? (Kunal Kamra )
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दूसरी ओर, कुछ नेता ऐसे भी हैं जो व्यंग्य को खेल की भावना से लेते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी इसका बेहतरीन उदाहरण थे। उनकी कविताओं और हास्यबोध ने न केवल जनता का दिल जीता, बल्कि यह भी दिखाया कि एक नेता व्यंग्य को न सिर्फ सहन कर सकता है, बल्कि उसे अपने पक्ष में भी इस्तेमाल कर सकता है। एक बार संसद में उन पर तंज कसा गया, तो उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “मैं बुरा नहीं मानता, क्योंकि सच सुनने की आदत जो पड़ गई है।”
एक स्वस्थ लोकतंत्र में व्यंग्य सिर्फ हँसाने का जरिया नहीं, बल्कि समाज का दर्पण भी है। यह नेताओं को याद दिलाता है कि वे अजेय नहीं हैं, और जनता उनकी हर हरकत पर नजर रखे हुए है। जब नेता कोई अव्यावहारिक वादा करते हैं, जैसे “हर घर में सोने की चिड़िया लाएँगे”, तो व्यंग्य के जरिए जनता पूछती है, “क्या चिड़िया अंडे भी देगी, या सिर्फ उड़ान ही भरेगी?” यह हास्य सत्ता को जवाबदेह बनाए रखने का एक तरीका है। (Kunal Kamra )
लेकिन व्यंग्य की यह ताकत तब कमजोर पड़ती है, जब उसे दबाने की कोशिश की जाती है। कई बार नेताओं के समर्थक विद्रोही” तक करार दे देती हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या हमारा लोकतंत्र इतना कमजोर है कि एक हँसी भी उसे हिला दे? नेताओं को यह समझना होगा कि व्यंग्य उनकी आलोचना नहीं, बल्कि उनकी लोकप्रियता का पैमाना है।
जिस नेता पर चुटकुले नहीं बनते, उसे कौन याद रखता है? अगर जनता आपके ऊपर हँस रही है, तो इसका मतलब है कि आप उनके ज़हन में हैं। इसे सहन करने की क्षमता ही एक नेता को महान बनाती है। आखिर, जनता का प्यार और गुस्सा दोनों ही उनके ध्यान का प्रमाण हैं। नेताओं को यह भी देखना चाहिए कि व्यंग्य में छिपी सच्चाई को कैसे सुधारा जाए।
नेताओं पर व्यंग्य और उसे सहन करने की क्षमता एक सिक्के के दो पहलू हैं। जहाँ व्यंग्य लोकतंत्र को जीवंत बनाता है, वहीं उसे सहन करने की कला नेताओं को जनता के करीब लाती है। यह न तो नेताओं को कमजोर करता है और न ही जनता को बेकाबू। यह बस एक संतुलन है, हँसी और गंभीरता का, सत्ता और जवाबदेही का। तो अगली बार जब कोई नेता मंच से बड़े-बड़े दावे करे, और जनता उस पर चुटकुला बनाए, तो दोनों को चाहिए कि इसे हँसकर टाल दें। आखिर, हँसी में जो ताकत है, वह गुस्से में कहाँ? (Kunal Kamra )