मुझे लगता है कि भागवत अपने जन्मदिन 11 सितंबर को सेवानिवृत्ति का ऐलान कर देंगे। अब इस दृश्य की कल्पना करिए कि भागवत तो चल दें और छह दिन बाद, 17 सितंबर को, 75 का होने पर भी नरेंद्र भाई अपना झोला उठा कर जाने से इनकार कर दें। ऐसे में भागवत की तो नाहक ही बलि चढ़ जाएगी। यह बात भागवत भी अच्छी तरह जानते ही होंगे। लेकिन फिर भी उन्होंने यह पांसा फेंका है तो मैं तो उन के इस खिलंदड़े भाव का अभिवादन करता हूं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने सफाई दी है कि 75 बरस का हो जाने पर नए लोगों के लिए जगह खाली कर देने के उन के सुझाव का इस से कोई लेनादेना नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी सितंबर में 75 साल के हो रहे हैं। भागवत की उस्तादी भी ग़ज़ब की है। यह सफाई दे कर उन्होंने और साफ कर दिया कि उन्होंने यह बात नरेंद्र भाई के लिए ही कही है। पहले तो प्रधानमंत्री के 75 का होने के दो महीने पहले 75 की उम्र का मसला उठाना और हलचल मचने पर दोबारा यह कहना कि इस बात का इस से कोई मतलब नहीं है कि प्रधानमंत्री 75 के हो रहे हैं, बड़ा मज़ेदार प्रसंग है। भागवत खुल कर इशारा कर रहे हैं कि मतलब तो वही है, जो सब समझ रहे हैं, मगर नरेंद्र भाई जानबूझ कर न समझना चाहें तो वे जानें!
इस रोमांच का आनंद, मंद-मंद मुस्कान के साथ, लेने का माद्दा सिर्फ़ भागवत में ही है कि वे ख़ुद नरेंद्र भाई से छह दिन पहले 75 साल के हो जाएंगे और फिर भी प्रधानमंत्री को तीलीलीली करने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। सोचिए कि 75 को मुद्दा बना कर उन्होंने ख़ुद के लिए भी कितना बड़ा जोखिम ले लिया है? भले ही संघ-प्रमुख के सिंहासन से सेवानिवृत्ति की कोई तयशुदा उम्र नहीं है और वह पूरे जीवनकाल के लिए मिलता है, मगर नैतिकता तो यही कहती है न कि अगर भागवत ने राय दी है कि 75 का हो जाने पर नयों के लिए स्थान रिक्त कर देना चाहिए तो वे भी संघ-प्रमुख की गद्दी छोड़ें।
मुझे लगता है कि भागवत अपने जन्मदिन 11 सितंबर को सेवानिवृत्ति का ऐलान कर देंगे। अब इस दृश्य की कल्पना करिए कि भागवत तो चल दें और छह दिन बाद, 17 सितंबर को, 75 का होने पर भी नरेंद्र भाई अपना झोला उठा कर जाने से इनकार कर दें। ऐसे में भागवत की तो नाहक ही बलि चढ़ जाएगी। यह बात भागवत भी अच्छी तरह जानते ही होंगे। लेकिन फिर भी उन्होंने यह पांसा फेंका है तो मैं तो उन के इस खिलंदड़े भाव का अभिवादन करता हूं। आख़िर आज की हमारी दुनिया में कितने ऐसे लोग होंगे जो ‘तुम को ले डूबें, न ले डूबें, हम तो डूबेंगे’ की झोंक पाल लें? सो, क्या हमें अपने-अपने घरों की गच्चियों, बरामदों और छतों पर आ कर भागवत के लिए इसलिए ताली-थाली नहीं बजानी चाहिए कि उन्होंने उम्रदराज़ी के सियासी-कोरोना के ख़िलाफ़ एक युद्ध-सा छेड़ दिया है? अपने राजपाट की बाज़ी लगा कर कौन यह सब करता है?
मैं तो यह सोच-सोच कर सिहर रहा हूं कि 9 जुलाई को भागवत का बयान सामने आने के बाद से हमारे नरेंद्र भाई पर क्या बीत रही होगी? वे 10 बरस पहले 2015 के अगस्त महीने का वह दिन याद कर-कर के सुबक रहे होंगे, जब उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार और यशवंत सिन्हा को मार्गदर्शक मंडल का सदस्य बना कर हाशिए पर बैठा दिया था। न यह बीज तब बोया होता, न उन्हें आज ये दिन देखने पड़ते। दस बरस पहले नरेंद्र भाई का जलवा-जलाल ऐसा था कि दस बरस बाद की सोचने की उन्हें फ़ुर्सत ही कहां थी? वे चुनावी-अमृत छक कर आए थे और ‘मोदी-मोदी’ की तान पर झूम रहे थे। अब जब उन का रचा अमृतकाल दम तोड़ रहा है तो उन के अपने ही भाई लोग पचहत्तर-पचहत्तर का नारा बुलंद करने लगे हैं। यह तो हद हो गई।
जिन्हें लग रहा है कि भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष का चयन जिस तरह अरसे से अधर में लटका हुआ है, उस से यह साफ है कि नरेंद्र भाई की कुर्सी भी अब खतरे में हैं, वे भोले हैं। लिख कर रख लीजिए, भागवत भले ही अपना सर्वस्व उत्सर्ग कर दें, नरेंद्र भाई अपनी कुर्सी से टस-से-मस नहीं होने वाले। उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम का ख़िताब हासिल करने में कोई दिलचस्पी नहीं है। वे शुचिता-फुचिता के झमेले में पड़ने वाले जीव हैं ही नहीं। वे इन किताबी बातों का थोथापन जानते हैं। उन्हें मालूम है कि जिस दिन कुर्सी नहीं रहेगी, वे कहीं के नहीं रहेंगे। वह ज़माना गया, जब लोग त्याग-व्याग का एहतिराम किया करते थे। अब तो कुर्बानी देने वाले को राम-राम कर देते हैं। सो, नरेंद्र भाई अभी कहीं नहीं जाने वाले।
हां, लेकिन 15 सितंबर के बाद वे पुरानी हुमक-धमक वाले प्रधानमंत्री नहीं रह जाएंगे। उन के चेहरे की हरदिलअज़ीजी का मुलम्मा काफी-कुछ उतर गया है। उन की मक़बूलियत अब तेज़ी से रपट रही है। अब यह भरोसा दरक गया है कि मोदी हैं तो मुमक़िन है। अब वो दिन हवा होते जा रहे हैं, जब नरेंद्र भाई का पसीना गुलाब था। अब तो तमाम इश्तहारों से टपकता इत्र भी कोई ख़ुशबू नहीं बिखेर पा रहा है। इसलिए इस साल गांधी जयंती के बाद गांधी के देश में तब तक नाम को ही एक प्रधानमंत्री राज करेगा, जब तक नरेंद्र भाई की जगह कोई और नहीं ले लेता।
मैं दस बरस से लिख रहा हूं कि भाजपा को अगर एक राजनीतिक दल के तौर पर बचना है तो उसे मोदी-मुक्त होना होगा। नरेंद्र भाई और भाजपा सहअस्तित्व के सिद्धांत की अवधारणा के परस्पर विलोम बिंदु हैं। जब तक नरेंद्र भाई हैं, भाजपा का कोई अस्तित्व नहीं है। जिस दिन भाजपा अस्तित्व में आ जाएगी, नरेंद्र भाई अस्तित्वहीन हो जाएंगे। सियासी तौर पर अंततः दोनों में से एक ही बचेगा। नरेंद्र भाई या भाजपा। दोनों के राजनीतिक प्राणों की रक्षा एक साथ हो ही नहीं सकती।
इसीलिए भागवत ने पचहत्तर के पुराण का पाठ आरंभ किया है। वे व्यक्ति को नहीं, संगठन को बचाने के पक्षधर हैं। उन्हें भाजपा में दिलचस्पी है, नरेंद्र भाई में नहीं। आरएसएस का बीजमंत्र संगठनपरकता सिखाता है, व्यक्तिपरकता नहीं। नरेंद्र भाई संगठन को खूंटी पर लटका कर चल रहे हैं। ग्यारह साल में उन्होंने सारे मानव संसाधन, नीतिगत संसाधन और आर्थिक संसाधन अपनी व्यक्तिगत छवि के निर्माण में तिरोहित कर रखे हैं। आरएसएस शुरू से ही नरेंद्र भाई की इस कार्यशैली से असहज रहा है। अब इस असहजता ने ताल-ठोकू मुद्रा अख़्तियार कर ली है।
यही कारण है कि इस साल सितंबर महीने के तीसरे बुधवार के बाद नरेंद्र भाई 1, रेसकोर्स रोड से 1, लोक कल्याण मार्ग हो गए अपने प्रधानमंत्री निवास में रहते तो शायद रहेंगे, लेकिन लोगों को उन के घर की नामपट्टिका में 1 की जगह 75 का अंक दूर से दिखाई देता रहेगा। पचहत्तर का मज़मून भागवत-कृपा से उन पर ऐसा चस्पा हो गया है कि उन की आत्मा ‘बीते न बिताएं रतियां’ की धुन से तार-तार होती रहेगी। घर के बाहर अगर अपने ही लोग खड़े हो कर दिन-रात हांका लगाते रहें तो ऐसे घर में कौन चैन से सो सकता है? मगर नरेंद्र भाई की खुद्दारी को कमतर मत आंकिए। उन्हें कौन-सी कुंभकर्णी नींद लेने का शौक है? तीन घंटे की झपकी लेनी है। बाहर कैसा ही शोर मचे, ले ही लेंगे। नरेंद्र भाई के साम्राज्य का औपचारिक ध्वंस होना ख़ाला जी का खेल नहीं है। सो, उन के रक़ीबों को बहुत उचकने की ज़रूरत नहीं है।