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30-04-2025 Vol 19

श्रीराम भक्त गोस्वामी तुलसीदास

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उन्होंने भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया। रात को पुस्तक विश्वनाथ-मन्दिर में रख दी गई। प्रात:काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो पुस्तक पर सत्यं शिवं सुन्दरम्‌ लिखा हुआ पाया गया, जिसके नीचे भगवान शंकर की सही (पुष्टि) थी। उस समय वहाँ उपस्थित लोगों ने सत्यं शिवं सुन्दरम्‌ की आवाज भी कानों से सुनी। तुलसीदास रचित राम चरितमानस का वेद विरूद्ध कई बात उसमे समाहित होने के कारण काशी के पंडितों के साथ ही अन्य कई वर्गों ने भारी विरोध किया।

23 अगस्त -गोस्वामी तुलसीदास जयंती

हिन्दी साहित्याकाश के परम नक्षत्र, भक्तिकाल की सगुण धारा की रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि गोस्वामी तुलसीदास (1511 – 1623) एक साथ कवि, भक्त तथा समाज सुधारक तीनों रूपों में मान्य है। आदिकाव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का अवतार माने जाने वाले तुलसीदास ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित ग्रन्थ श्रीरामचरितमानस की रचना की, जिसे वाल्मीकि रामायण का प्रकारान्तर से अवधी भाषान्तर माना जाता है । भविष्योत्तर पुराण में भगवान शिव ने अपनी पत्नी पार्वती से कहा है कि वाल्मिकी का अवतार फिर से कलयुग में तुलसीदास के रूप में होगा। अपने 126 वर्ष के दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास ने कालक्रमानुसार रामललानहछू, वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञाप्रश्न, जानकी-मंगल, रामचरितमानस, सतसई, पार्वती-मंगल, गीतावली, विनय-पत्रिका, कृष्ण-गीतावली, बरवै रामायण, दोहावली और कवितावली आदि कालजयी ग्रन्थों की रचनाएँ कीं। तुलसीदास की हस्तलिपि कैलीग्राफी के ज्ञाता के समान अत्यधिक सुन्दर थी। उनके जन्मस्थान राजापुर के एक मन्दिर में श्रीराम चरितमानस के अयोध्याकाण्ड की एक प्रति सुरक्षित रखी हुई है। समस्त उत्तर भारत में बड़े भक्ति- भाव से पढ़ी जाने वाली महाकाव्य श्रीरामचरितमानस को विश्व के एक सौ सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में 46 वाँ स्थान दिया गया। उन्हें सम्मान में गोस्वामी, अभिनववाल्मीकि, इत्यादि उपाधि प्राप्त है। 

पारम्परिक जानकारी के अनुसार तुलसीदास का जन्म उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिला के अंतर्गत राजपुर नामक गाँव में पं० आत्माराम शुक्ल एवं हुलसी दम्पति के घर में विक्रम संवत 1568 तदनुसार 1511 ईस्वी के श्रावण मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ था। फिर भी तुलसीदास के जन्म स्थान और जन्म दिवस, दोनों ही के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। कईयों का विचार है कि इनका जन्म विक्रम संवत के अनुसार वर्ष 1554 में हुआ था, लेकिन कुछ अन्य का मानना है कि तुलसीदास का जन्म वर्ष 1532 में हुआ था। उन्होंने 126 साल तक अपना जीवन बिताया। इनका जन्म स्थान विवादित है। कुछ विद्वान मानते हैं कि इनका जन्म सोरों शूकरक्षेत्र, वर्तमान में कासगंज (एटा) उत्तर प्रदेश में हुआ था, लेकिन अन्य कुछ विद्वान् इनका जन्म राजापुर जिला बाँदा (वर्तमान में चित्रकूट) में हुआ मानते हैं। जबकि अधिकांश विद्वान तुलसीदास का जन्म स्थान राजापुर को मानने के पक्ष में हैं। कहा जाता है कि गर्भवती माता हुलसी के गर्भ अर्थात कोख में शिशु के बारह महीने तक रहने के कारण शिशु अत्यधिक हृष्ट पुष्ट था और उसके मुख में दाँत दिखायी दे रहे थे। जन्म लेने के साथ ही उसने राम नाम का उच्चारण किया। जिसके कारण उसका नाम रामबोला पड़ गया। 

इस बात का उल्लेख उन्होंने विनयपत्रिका में भी किया है। उनके जन्म के दूसरे ही दिन उनकी माता हुलसी का निधन हो गया। इस पर पिता ने किसी और अनिष्ट से बचने के लिए बालक को चुनियाँ नाम की एक दासी को सौंप दिया और स्वयं विरक्त हो गये। इनके जन्म के कुछ दिन बाद इनके पिता की मृत्यु हो गयी थी। कही -कहीं चौथे दिन ही पिता की मृत्यु भी हो जाने की बात लिखी मिलती है, लेकिन संसार से विरक्त हो जाने की बात भी आई है। अपने माता- पिता के निधन के बाद अपने एकाकीपन के दुख को तुलसीदास ने कवितावली और विनयपत्रिका में भी वर्णन किया है।  रामबोला के साढे पाँच वर्ष का होने पर दासी चुनियाँ भी नहीं रही। रामबोला गली-गली भटकता हुआ अनाथों की तरह जीवन व्यतीत करने को विवश हो गया। ऐसी मान्यता है कि देवी पार्वती ने एक ब्राह्मण का रुप लेकर रामबोला की परवरिश की और भगवान शंकर की प्रेरणा से रामशैल पर रहनेवाले श्री अनन्तानन्द के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी अर्थात नरहरि बाबा ने इस बालक रामबोला को ढूँढ निकाला और विधिवत उसका नाम तुलसीराम रखा। 

बाबा नरहरि ने अयोध्या में तुलसीराम का विक्रम संवत 1561 माघ शुक्ला पंचमी दिन शुक्रवार को यज्ञोपवीत-संस्कार सम्पन्न कराया। संस्कार के समय भी बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री-मन्त्र का स्पष्ठ उच्चारण किया, जिसे सुन व देखकर सभी चकित हो गये। इसके बाद नरहरि बाबा ने रामबोला को वैष्णवों के पाँच संस्कार करके बालक को राम-मन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या में ही रहकर उसे विद्याध्ययन कराया। बड़ी प्रखर बुद्धि वाले बालक रामबोला गुरु मुख से एक बार जो सुन लेते थे, उसे वह कंठस्थ कर लेते थे। कुछ काल के बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुँचे। वहाँ नरहरि बाबा ने बालक रामबोला को रामकथा सुनाई, परन्तु वह उसे भली -भाँति समझ न आयी। उनतीस वर्ष की आयु में विक्रम संवत 1583 को ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी दिन गुरुवार को राजपुर से थोड़ी दूर अवस्थित यमुना पार की एक गाँव की दीनबन्धु पाठक की अतिसुन्दरी पुत्री भारद्वाज गोत्र की कन्या रत्नावली के साथ उनका विवाह सम्पन्न हुआ । गौना का विधान न होने के कारण उनकी पत्नी रत्नावली के अपने मायके में ही रहने के कारण वे काशी जाकर शेष सनातन के साथ रहकर वेद-वेदांग के अध्ययन में जुट गये। लेकिन अचानक एक दिन उन्हें अपनी पत्नी की याद आई और वे वियोग में व्याकुल होने लगे। जब उनसे पत्नी बिन नहीं रहा गया तो वे गुरूजी से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि राजापुर लौट आये। लेकिन गौना नहीं होने के कारण पत्नी रत्नावली मायके में ही थी। 

इसलिए तुलसीराम ने भयंकर अँधेरी रात में उफनती यमुना नदी तैर पारकर सीधे अपनी पत्नी के शयनकक्ष में जा पहुँचे। रत्नावली भयंकर रात्रिकाल में अपने पति को अकेले आया देख कर आश्चर्यचकित हो गयी, और उसने लोक-लाज के भय से उन्हें चुपचाप वापस जाने को कहा। तुलसी पत्नी को उसी समय घर चलने का आग्रह करने लगे। उनकी इस अप्रत्याशित जिद्द से खीझकर उलाहना वश रत्नावली ने स्वरचित एक दोहे के माध्यम से उन्हें शिक्षा दी, जिससे सुन और उसका आशय समझ तुलसीराम तुलसीदास बन गये। कहा जाता है कि पत्नी को वहीं उसके पिता के घर छोड़ वापस अपने गाँव राजापुर लौट गये। राजापुर में अपने घर जाकर जब उन्हें यह पता चला कि उनकी अनुपस्थिति में उनके पिता भी नहीं रहे और पूरा घर नष्ट हो चुका है, तो उन्हें और भी अधिक कष्ट हुआ। उन्होंने विधि-विधान पूर्वक अपने पिता जी का श्राद्ध किया और गाँव में ही रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने लगे।

कुछ विद्वानों के अनुसार विवाह के कुछ वर्ष पश्चात रामबोला को तारक नाम के पुत्र की प्राप्ति हुई, जिसकी मृत्यु बचपन में ही हो गई। उनके अनुसार एक बार जब तुलसीदास हनुमान मंदिर गये हुए थे, उनकी पत्नी अपने पिता के घर चली गई। जब वे अपने घर लौटे और अपनी पत्नी रत्नावली को नहीं देखा तो अपनी पत्नी से मिलने के लिये यमुना नदी को पार कर गये। रत्नावली के दुखित होने और उलाहना देने की शेष कथा ऊपर की भांति ही है। अन्य कुछ लेखकों का यह भी मानना है कि वह अविवाहित और जन्म से साधु थे।

पत्नी के परित्याग के पश्चात कुछ दिन अपने गाँव राजपुर में रामकथा प्रवचन के बाद वे पुन: काशी चले गये और वहाँ की जनता को रामकथा सुनाने लगे। कथा के दौरान उन्हें एक दिन मनुष्य के वेष में एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान ‌का पता बतलाया। हनुमान से मिलकर तुलसीदास ने उनसे श्रीराम का दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान ने उन्हें कहा कि चित्रकूट में रघुनाथजी के दर्शन होंगें। इस पर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े। चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक दिन कदमगिरि पर्वत की प्रदक्षिणा करते समय अचानक मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। 

तुलसीदास उन्हें देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके। तभी पीछे से हनुमान ने आकर जब उन्हें सारा भेद बताया तो वे पश्चाताप करने लगे। इस पर हनुमान ने उन्हें सात्वना दी और कहा प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे। संवत 1607 की मौनी अमावस्या को बुधवार के दिन उनके सामने भगवान श्रीराम  पुनः प्रकट हुए। उन्होंने बालक रूप में आकर तुलसीदास से कहा- हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं? हनुमान  ने सोचा, कहीं वे इस बार भी धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके एक दोहा के माध्यम से श्रीराम इ उपस्थिति की बात बताया। तुलसीदास भगवान श्रीराम की उस अद्भुत छवि को निहार कर अपने शरीर की सुध-बुध ही भूल गये। अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गये।

संवत 1628 में वह हनुमान की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े। उन दिनों प्रयाग में माघ मेला लगा हुआ था। वे वहाँ कुछ दिन के लिये ठहर गये। पर्व के छः दिन बाद एक वटवृक्ष के नीचे उन्हें भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए। वहाँ उस समय वही कथा हो रही थी, जो उन्होने सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी। माघ मेला समाप्त होते ही तुलसीदास प्रयाग से पुन: वापस काशी आ गये और वहाँ के प्रह्लाद घाट पर एक ब्राह्मण के घर निवास करते हुए उनके अन्दर कवित्व शक्ति का प्रस्फुरण हुआ और वे संस्कृत में पद्य रचना करने लगे। परन्तु दिन में वे जितने पद्य रचते, रात्रि में वे सब लुप्त हो जाते। यह घटना नित्य ही घटती। आठवें दिन तुलसीदास को स्वप्न में भगवान शंकर ने आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो। स्वप्न में सुनी बात से तुलसीदास की नींद उचट गयी और वे उठकर बैठ गये। उसी समय भगवान शिव और पार्वती उनके सामने प्रकट हुए। तुलसीदास ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। इस पर प्रसन्न होकर शिव ने कहा- तुम अयोध्या में जाकर रहो और हिन्दी में काव्य-रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी। इतना कहकर गौरीशंकर अन्तर्धान हो गये। तुलसीदास उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर काशी से सीधे अयोध्या चले गये।

लोकोक्ति है कि विक्रम संवत 1631 में दैवयोग से श्रीराम नवमी के दिन वैसा ही योग बना, जैसा कि त्रेतायुग में राम जन्म के दिन था। उस दिन प्रातःकाल तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रन्थ सम्पन्न हुआ। संवत 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।

इसके बाद भगवान की आज्ञा से तुलसीदास काशी चले आये। वहाँ उन्होंने भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया। रात को पुस्तक विश्वनाथ-मन्दिर में रख दी गई। प्रात:काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो पुस्तक पर सत्यं शिवं सुन्दरम्‌ लिखा हुआ पाया गया, जिसके नीचे भगवान शंकर की सही (पुष्टि) थी। उस समय वहाँ उपस्थित लोगों ने सत्यं शिवं सुन्दरम्‌ की आवाज भी कानों से सुनी। तुलसीदास रचित राम चरितमानस का वेद विरूद्ध कई बात उसमे समाहित होने के कारण काशी के पंडितों के साथ ही अन्य कई वर्गों ने भारी विरोध किया। चोरी के प्रयास भी हुए। कहा जाता है कि चोरी करने गये चोरों को तुलसीदास की कुटी के आस- पास दो युवक धनुषबाण लिये पहरा देते हुए दिखाई दिए। दोनों युवक बड़े ही सुन्दर क्रमश: श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन करते ही चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गई और उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भगवान के भजन में लग गये। तुलसीदास ने पुस्तक अपने मित्र अकबर के नवरत्नों में से एक टोडरमल के यहाँ रखवा दी। इसके बाद उन्होंने अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति से एक दूसरी प्रति लिखी। उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की गई और पुस्तक का प्रचार दिनों-दिन बढ़ने लगा, और आज यह जन -जन की प्रिय बन चुकी है। तुलसीदास की मृत्यु  विक्रम संवत 1680 वि० तदनुसार 1623 ईस्वी में श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को तुलसीदास जी ने राम-राम कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया।

अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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