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28-06-2025 Vol 19

पचास साल पहले भय तो अब भयाकुल-भक्तिमय भारत!

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दोष हजार साल की गुलामी का है। हम हिंदुओं की दासता की प्रवृत्तियों का है! हिंदू की सच्चाई ‘हुकूम’ (सत्ता) से न केवल डरना है, बल्कि लाल किले का बादशाह हो या लाल किले की बुर्ज से भाषण देने वाला प्रधानमंत्री सभी की आरती उतारने का स्थायी मनोविकार भी है। तभी तो 11 हजार गोरे अंग्रेजों (अधिकतम संख्या का आंकड़ा) ने दो सौ साल भारत पर राज किया। फिर भी नेहरू-पटेल-श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अंतरिम सरकार में अंग्रेजों के तंत्र को उखाड़ फेंकने की रत्ती भर हिम्मत नहीं थी। सभी तब अराजकता और गद्दी को लेकर भयाकुल थे।

इंदिरा गांधी हमेशा डरी रहीं कि उन्हें सत्ता से हटाने की साजिश है। इस चक्कर में उन्होंने कांग्रेस को खत्म किया। राजनीति को व्यक्तिवादी बनाया। तब भी कैबिनेट, संगठन सभी वैसे ही हुकूमपालक थे जैसे आज नरेंद्र मोदी के आगे उनके मंत्री, संसदीय दल, भाजपा सब चरणदास हैं। मई 2025 में तो दुनिया ने यह भी देखा कि युद्ध ऑपरेशन के समय में भी भारतीय सेनाओं के प्रमुख उनसे हर रोज भाषण सुनते थे, गर्दन हिलाते थे।

सत्ता की चिंता में इंदिरा गांधी की इमरजेंसी थी। वे विदेशी ताकतों, सीआईए की साजिश में भयाकुल रहती थी। उसका हल्ला करती थीं। कथित सीआईए साजिश और जेपी के पुलिस को उकसाने के दो-तीन वाक्यों से भयाकुल इंदिरा गांधी इतनी घबराईं कि आपातकाल लगा दिया। उसके बाद भयाकुल भारतीयों का वह व्यवहार था, जिससे दुनिया ने जाना कि हिंदुओं में तो मानवाधिकारों की रत्ती भर लौ नहीं है। उन्हें चाहे जिस दिशा में हांका जा सकता है। आपातकाल बाद की पहली सुबह से ही लोग सन्न और भाग्य भरोसे थे।

मैं उस वक्त का साक्षी हूं। तब मैं जेएनयू में था। तब भी फ्री थिंकर दक्षिणपंथी। जेएनयू से लेकर बगल के आईआईटी के होस्टल के कमरों में कथित भूमिगत प्रतिरोध को सुनता-जानता था। तब लगता था बहुत बहादुरी है। बाद में साबित हुआ कि उंगली पर गिनने वाले चंद मर्दों के अपवाद को छोड़ कर सडक पर कोई प्रतिरोध या गिफ्तारी देने और कलम से लिखने का साहसी नहीं था। उलटे लोग माफी मांग कर जेल से छूटे।

भारत की किसी संस्था कैबिनेट, पीएमओ, राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट, विधायिका, कार्यपालिका, मीडिया और जनता (खासकर हिंदू, जबकि मुसलमानों ने कुछ जगह नसबंदी का विरोध किया था) सभी भयाकुल मानस में गांधीवादी विनोबा भावे द्वारा घोषित अनुशासन पर्व को मनाते हुए थे!  उन दिनों सिर्फ वैश्विक संस्थाएं एमनेस्टी इंटरनेशनल आदि भारत में लोकतंत्र खत्म होने, जेलबंद कैदियों का हल्ला करती थे। विदेशी मीडिया में भारत की खबर मिलती थी जबकि भारत का मीडिया वैसे ही इंदिरा की चरण वंदना करता था जैसे इन दिनों वह नरेंद्र मोदी की करता है।

मेरा मानना है कि यदि विश्व नेताओं व विश्व राजनीति में इंदिरा गांधी अपने अछूत हो जाने, पिता नेहरू की विरासत के उलट काम करने की बदनामी के मनोविज्ञान में व्यथित नहीं होतीं तो वे शायद ही आपातकाल खत्म करने के लिए उत्प्रेरित होतीं।

चुनाव जब हुए तब भी भारत का जनादेश विभाजित था। दक्षिण भारत ने इंदिरा गांधी और कांग्रेस को जिताया था। जनता गठबंधन को 41 प्रतिशत और कांग्रेस को 35 प्रतिशत वोट मिले थे। वामपंथियों को साढ़े चार प्रतिशत। इससे भी प्रमाणित है कि हिंदुओं के दिल-दिमाग में मानवाधिकारों, स्वतंत्रता, कारिंदों-कोतवालों के पिंजरों से मुक्ति, मानवीय गरिमा, निर्भयता और पुरुषार्थ में जीने का सभ्यतागत साहस, स्वभाव है ही नहीं। हालांकि उसके बाद भारत ने अब तक के अनुभव में एकमेव ऐसा प्रधानमंत्री पाया, जिसने जनता से भाषणों में कहा कि निर्भयी बनो। वे थे मोरारजी देसाई। एक अकेला प्रधानमंत्री, जिसने प्रधानमंत्री बनने के लिए भागदौड़, छलकपट नहीं की। झूठ नहीं बोला। झूठे वादे नहीं किए। प्रधानमंत्री के नाम का जब फैसला होना था, उस रात भी मोरारजी रात को निर्धारित नौ बजे सोए। जब उनके हटाने की राजनीति हो रही थी तो रविंद्र वर्मा आदि ने उन्हें जागते रहने के लिए कहा, जिसे उन्होंने अनसुना किया। चंद्रशेखर ने उनसे एक बार कहा, यदि पाकिस्तान ने हमला किया तब भी क्या आपको कोई नहीं उठाएगा?  मोरारजी का जवाब था, मैंने सेनाध्यक्ष बनाया हुआ है। वह और सेना निर्णय करेंगे, वे जवाब देंगे? जब सेना है तो नागरिकों को चैन की नींद नहीं सोनी चाहिए? सेना सुरक्षा की गारंटी है! ऐसी निर्भयता और संस्थाओं को स्वतंत्रता, उनकी जवाबदेही और भरोसा करने वाले भारत में राजनेता दुर्लभ रहे हैं। जबकि यह तथ्य-सत्य नोट रखें कि दुनिया के विकसित-लोकतांत्रिक देशों का भाग्य ऐसे ही निर्भयी नेताओं के शासन से बना है।

हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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