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अविश्वास, टकराव बना रहेगा!

एक के बाद एक चुनावी जीत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार और राजनीति को वह निरंतरता दी हुई है, जिसका हिसाब से यह नैरेटिव बनना चाहिए कि मोदी सरकार का काम बोल रहा है। जनादेश ‘अच्छे दिनों’ का प्रमाण है। पर क्या चुनाव नतीजों की चर्चा में इस तरह की कोई पुण्यता है? जबकि नैरेटिव और मीडिया पूरी तरह सत्ता के कहने में है। बावजूद इसके ‘अच्छे दिनों’ की दुहाई देने का किसी के भी पास वह आधार नहीं है, जिससे सचमुच लगे कि चुनावी जीत ‘अच्छे दिन’ की बदौलत है। बिहार में लालकिले के आगे यदि विस्फोट की गूंज थी तो मेरा मानना है वह तो असुरक्षा, चिंता और भय की था न कि अच्छी फीलिंग।

चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह व भाजपा, एनडीए का प्रमुख सुर लोगों को लालू यादव का जंगल राज याद कराना था। या घुसपैठियों को निकाल बाहर करने व हिंदू-मुस्लिम नैरेटिव को सुलगाना। ऑपरेशन सिंदूर हो या राहुल गांधी को पप्पू बताने से लेकर माता जानकी मंदिर बनाने की तमाम वे बातें थीं, जिनका मतदाता की रोजमर्रा की जिंदगी से नाता नहीं है। फिर भी नीतीश-भाजपा के एनडीए एलायंस की छप्पर फाड़ जीत है। इसलिए यह बहुत जल्द वैसे ही बासी हो जाएगी जैसे महाराष्ट्र, हरियाणा की चुनावी विजय का हस्र है। दस-पंद्रह दिन बाद फिर राहुल गांधी, विपक्ष से चुनाव आयोग, ईवीएम मशीन और धांधलियों का रोना रोता मिलेगा। दिसंबर में जब संसद का सत्र शुरू होगा तो इन्हीं बातों के हंगामे में वह स्वाहा!

मतलब महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड के चुनावों के बाद पक्ष-विपक्ष का जो राजनीतिक नजारा था वह ढर्रा जस का तल चलता रहेगा। मोदी सरकार-भाजपा भी 2026 के शुरू होते ही उत्तर प्रदेश, बंगाल, तमिलनाडु के आगामी विधानसभा चुनावों के लिए फिर वही ए टू जेड फॉर्मूलों (घोषणाओं, सरकारी खजाना खोल पैसा बांटने, जंगल राज, हिंदू-मुस्लिम, आतंकी धमाकों, विपक्ष को तोड़ने-बांटने आदि, आदि) के रोडमैप बनाने में जुटेगी।

बिहार के नतीजों के बाद अनुमान लगा सकते हैं कि विपक्ष के बिखरे वोटों की वजह से विरोधी पक्ष नतीजों को लेकर अविश्वास की गांठ बांधे रहने वाला है। मोदी-भाजपा विरोधी जितने भी वोट हैं वे बिहार के बाद और अधिक अविश्वास में चुनाव नतीजों पर गौर करेंगे। सरकार, चुनाव आयोग पर पहले की तरह ठीकरा फूटेगा।

यही भारत के लोकतंत्र में आधी से ज्यादा आबादी का अब स्थायी तौर पर पकता सियासी मनोभाव है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी ठाना हुआ है कि जब से मैं (गुजरात से) जीत रहा हूं, मेरी स्वीकार्यता है तो साथ ही अस्वीकार्यता भी है। मुझे क्या फर्क पड़ रहा है? मेरे अपने अच्छे दिन है वही परम उपलब्धि है। भला लोकतंत्र, राजनीति और राष्ट्र-राज्य की सेहत के दिनों की क्या चिंता।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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