और आईने में वही है जो लालू, राबड़ी और नीतीश का 45 साला जंगल राज है! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी डबल इंजन सरकार, विकसित भारत का चाहे जितना शोर बनवाएं वह सब बिहार में धूल है! मैंने 1984 के लोकसभा चुनाव से बिहार को कवर करते करते 45 साल खपा दिए पर यह शाश्वत सत्य यथावत है कि बिहार कभी नहीं बदल सकता और भारत भी नहीं! लालू-राबड़ी को अफसर (जैसे राजबाला वर्मा) चलाते थे वैसे नीतीश कुमार को दीपक कुमार आदि चलाते आए हैं। वैसे ही नरेंद्र मोदी को पीके मिश्रा, डोवाल, जयशंकर आदि अफसर। नीतीश ने खुद को, बिहार को सोशल इंजीनियरिंग में जर्जर बनाया तो नरेंद्र मोदी ने धर्म-जात की डबल इंजीनियरिंग में भारत को जर्जर!
पचास सालों से (जेपी आंदोलन के हल्ले से) बिहार में सामाजिक क्रांति देख रहा हूं। मगर उसी अनुपात में समाज पहचान की भूख का नशेड़ी बना रहा है। विकास नाम की चिड़िया कही नहीं। सब पॉवर, पहचान, गरीबी की तमाम दरिद्रताओं में जी रहे हैं। पचास साल पहले भी दिवाली-छठ पर लोग रेल-बस में कैटल क्लास की तरह आते जाते थे तो इस दफा भी छठ से पहले पूरे देश में बिहार के लोग वैसी ही नियति में सफर करते दिखे।
नरेंद्र मोदी-अमित शाह की उपलब्धि है जो जात के संग धर्म और पैसे की इंजीनियरिंग में भी लोगों को बांध दिया। दिमागी जड़ता में अंधविश्वासों व बाजार की नई धार बनाई। प्रदेश के धंधों-ठेकेदारी में बालू माफिया को छोड़ बाकी क्षेत्रों में अब दक्षिण भारत या गुजराती सेठ ठेकेदार-व्यापारियों का बाजार पर कब्जा है। मुनाफे-भ्रष्टाचार के आयाम क्योंकि भरपूर हैं तो इसकी बदौलत सड़कों के जाल, बिजली की सप्लाई और सुरसा जैसी फैली आबादी का बाजार चमचमाता हुआ है। लेकिन न उसमें ‘मेड इन बिहार’ है और ‘न मेड इन भारत’ और न लोकल रोजगार!
बिहार की खूबी अब शिक्षा (कभी हुआ करती थी), राजनीतिक चेतना नहीं है, बल्कि बेगारी, बेरोजगारी और जातियों के नए-नए झंडारोहण हैं! इस सबसे ऊपर बिहार का वोट की मंडी में कनवर्ट होना है। कभी बिहार बुद्ध से लेकर आजादी के आंदोलन, माओवादी विचारों, समाजवादी विचारों, जेपी आंदोलन, संपूर्ण क्रांति, मंडल क्रांति में दिमागी फितरत लिए होता था। अब वह मंडी है, जिसमें मोदी-नीतीश सरकार ने नकद पैसा बांट कर बिहारियों में नई सियासी बारहखड़ी सिखलाई है। घर-घर नोट के बदले वोट का विमर्श है। मतलब बालू के ठेकेदारों, शराब के ठेकेदारों, जाति-उपजातियों के ठेकेदारों, धर्म के ठेकेदारों के बाद बिहार की नई राजनीति का नाम है दो हजार, पांच हजार, दस हजार रुपए बांट कर पांच साल के लिए वोटों की खरीदारी का पुख्ता दर्शन!
तभी मेरा मानना है विधानसभा चुनाव का फैसला जात-पांत की बजाय वोट बाजार से होगा। इस बाजार में न राहुल गांधी की जाति जनगणना का अर्थ है न तेजस्वी-मुकेश सहनी के समीकरणों का और न नीतीश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग का। प्रशांत किशोर के कथित जन सुराज का तो खैर रत्ती भर अर्थ नहीं है। सब कुछ मोदी-शाह के प्रबंधन, रेवड़ियों, नोट और वोट की गणित में होगा! चाहे तो इसे बिहार का विकसित आईना मानें!


