तभी विपक्षी पार्टियों का यह आरोप है कि चुनाव आयोग के जरिए केंद्र सरकार राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी का काम कर रही है। सोचें, अगर केंद्र सरकार को एनआरसी का काम करना है तो उसे यह काम डंके की चोट पर करना चाहिए। उसे संसद को और देश को बताना चाहिए कि भारत में बड़ी संख्या में घुसपैठिए हैं और उनकी पहचान करने के लिए एनआरसी की जरुरत है। ध्यान रहे एनआरसी और एनपीआर यानी राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर बनाने? में कोई बुराई नहीं है। लेकिन यह जरूरी काम भी सरकार चोरी छिपे कर रही है और इसके लिए चुनाव आयोग को आगे किया है। जाहिर है आयोग सिर्फ अवैध मतदाताओं की पहचान नहीं कर रहा है, बल्कि जिनके ऊपर संदेह है या जो मतदाता जरूरी दस्तावेज मुहैया नहीं करा पा रहे हैं, उनकी सूचना गृह मंत्रालय को दे रहे हैं। परंतु सवाल है कि उसके बाद क्या होगा? क्या उसके बाद गृह मंत्रालय उन लोगों की और गहन परीक्षा करेगा और उसके बाद उनको देश से निकाला जाएगा? इस बारे में कुछ भी स्पष्टता नहीं है।
ऊपर से चुनाव आयोग ने एक सस्पेंस यह कह कर बना दिया है कि बिहार में 35 लाख लोगों के नाम कटेंगे। इन 35 लाख में कोई विदेशी या अवैध नागरिक शामिल नहीं हैं। आयोग का कहना है कि इनमें से 10 लाख लोगों की मृत्यु हो चुकी है और बाकी लोग लोग स्थायी रूप से बिहार से बाहर चले गए हैं। फिर सवाल है कि सूत्रों के हवाले से बडी संख्या में रोहिंग्या, बांग्लादेशी या नेपाली नागरिकों के मतदाता होने की जो खबरें आई थीं उनका क्या? क्या इसका यह मतलब निकाला जाए कि चुनाव आयोग कोई अवैध मतदाता नहीं पहचान सका है और दस्तावेज नहीं जमा करा पाने की वजह से किसी का नाम नहीं कटेगा? इस बारे में आयोग को स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। ऐसा लग रहा है कि अभी चल रहे विवादों को ठंडा करने के लिए आयोग ने मृत और स्थायी रूप से बाहर चले गए 35 लाख लोगों का आंकड़ा जारी किया है और 25 जुलाई को मतगणना प्रपत्र जमा करने की तारीख समाप्त होने के बाद यह बताया जाएगा कि कितने लोगों के दस्तावेज पूरे नहीं। अंतरिम मतदाता सूची में उनका नाम नहीं होगा। वैसे यह आंकड़ा भी बहुत संदिग्ध है। क्योंकि आयोग कह रहा है कि 2003 की मतदाता सूची में करीब पांच करोड़ मतदाता थे और उनको किसी तरह का दस्तावेज नहीं देना है। यानी उन्हें सिर्फ अपने नाम का सत्यापन करना है। सवाल है कि 2003 में जो पांच करोड़ मतदाता थे उनमें से क्या अगले 22 साल में सिर्फ 10 लाख या उससे कम लोगों की ही मृत्यु हुई है? अगर पांच करोड़ मतदाताओं में 60 साल से ऊपर के 20 फीसदी मतदाता भी होंगे तो मरने वालों का आंकड़ा ज्यादा बड़ा होगा।
बहरहाल, सबकी दिलचस्पी यह देखने में है कि चुनाव आयोग इस कवायद में कितने अवैध मतदाता पकड़ता है या कितने लोगों के दस्तावेजों से आयोग संतुष्ट नहीं होता है और उनका नाम मतदाता सूची से बाहर कर देता है। चुनाव आयोग जिन लोगों के नाम काटेगा उनकी सोशल प्रोफाइलिंग भी होगी। उससे विपक्ष के इन आरोपों की सचाई पता चलेगी कि चुनाव आयोग विपक्षी गठंबधन के समर्थकों के नाम काटने के लिए यह अभियान चला रहा है। विपक्षी गठबंधन के समर्थकों का मतलब है कि मुस्लिम, यादव और दलित का एक समूह।
कुल मिला कर अभी तक यह नहीं पता चल सका है कि चुनाव आयोग ने आखिर किस मकसद से अचानक और इतने कम समय में बिहार की मतदाता सूची का पुनरीक्षण करने का फैसला किया?
आयोग की ओर से किसी पार्टी को भरोसे में नहीं लिया गया। जून के महीने तक लोगों के नाम मतदाता सूची में जोड़े जाते रहे। जिनके नाम जून में जुड़े थे उनको भी कह दिया गया कि आपको मिला वोटर आईकार्ड संदिग्ध है और आप फिर से अपने को भारत का नागरिक साबित कीजिए ताकि आपका नाम मतदाता सूची में शामिल हो। इस बार यह प्रावधान कर दिया गया कि आधार, मनरेगा और राशन कार्ड नहीं चलेगा। ऐसे 11 दस्तावेजों की सूची जारी की गई। बिहार के बहुत कम लोगों के पास इनमें से कोई भी दस्तावेज है। चुनाव आयोग ने साफ कहा कि आधार नागरिकता प्रमाणित करने का दस्तावेज नहीं है। फिर भी अगर आधार के नाम पर मतदाता बनाए जा रहे हैं तो फिर इस कवायद का क्या मतलब है? आधार को बिहार में सबके पास है, बल्कि कई जिले तो ऐसे हैं, जहां एक सौ लोगों की आबादी पर 125 आधार हैं। फिर किस आधार पर लोगों के नाम कटेंगे और मतदाता सूची की शुचिता सुनिश्चित होगी? क्या यह माना जाए कि सब कुछ किसी खास प्रयोजन से किया जा रहा है और वह प्रयोजन पहले से तय है, जिसका इस दिखावे से कोई लेना देना नहीं है? ध्यान रहे इसके बाद यह कवायद पश्चिम बंगाल और असम में होने वाली है और फिर पूरे देश में मतदाता सूची का पुनरीक्षण होगा।