तेरह जून की सुबह इजराइल ने एक ही ऑपरेशन में ईरान के एटमी ठिकानों और मिसाइल केंद्रो के कई ठिकाने तबाह किए। निश्चित ही ईरान जवाब देगा। पर क्या दे सकेगा? न्यूयार्क में 9/11 के हमले से 13 जून 2025 के पच्चीस वर्षों में मुसलमान ने हर तरफ अपने को ठुकवाया है और प्रतिकार संभव ही नहीं है। सोचें, ढाई साल से गजा में फिलस्तीनों पर बेरहम कहर है। पर एक भी मुस्लिम देश नही उठा जिसने इजराइल को चेताने की हिम्मत बताई हो। अब ऐसी स्थिति में मलेशिया भागे हुए जाकिर नाईक जैसे कथित इस्लामी रहनुमा की इस दलील पर सोचने की जरूरत नहीं है कि, “अल्लाह का प्लान बेस्ट ऑफ़ प्लान है, जिसका इंसान को बाद में पता चलता है। मिसाल के तौर पर अल्लाह तआला फ़िलस्तीन को अगर एक दिन में जिताना चाहता तो जिता सकता था लेकिन नहीं जिताया क्योंकि अल्लाह बेहतर प्लानर है”।.. या यह वाक्य कि, ‘16 हज़ार मासूम बच्चों की मौत का नुक़सान हुआ तो क्या हुआ? … ‘वो जन्नत में गए। यही तो इनाम है, जिसे आप नुक़सान कह रहे हैं। इसको मैं शहादत कह रहा हू’।
हां, ऐसा दिमाग ही जहर की वह फैक्टरी है जो अऱब देशों की पेट्रो कमाई से पिछले साठ सालों में सऊदी अरब की वहाबी दलीलों से दुनिया में मदरसों-मस्जिदों के जरिए वायरस की तरह फैला है। इसी के चलते कभी अच्छा-खासा खाता पीता ईरान खुमैनी के मुल्लाराज में फंसा। दशकों से वहा लोग बरबादी में रोते हुए है। उसे इजराइल के मुकाबले में कोई समर्थन नहीं मिलने वाला है।
इसलिए क्योंकि दुनिया का हर कोना मुसलमान के खिलाफ उकसा हुआ है। इस सप्ताह खबर थी कि यूरोपीय संघ के दक्षिणपंथी नेताओं की सभा हुई। इसमें हंगरी के प्रधानमंत्री से ले कर फ्रांस की ल पेन ने प्रवासियों (मुख्यतया मुस्लिम शरणार्थियों) के खिलाफ कमर कसने की राजनीति का निश्चय किया। सचमुच कोई भी गैर मुस्लिम देश अब मुसलमान को शरण नहीं देना चाहता। डेनमार्क, स्वीडन जैसे महा उदार देशों में भी इस्लाम अब बरदाश्त नहीं है। डोनाल्ड ट्रंप ने पहले टर्म में भी और अभी हाल में कई देशों के नागरिकों के अमेरिका में प्रवेश पर पाबंदी लगाई। ताकि इनसे मुसलमान अमेरिका में न आएं!
यूरोप का हर देश पछता रहा है कि क्यों कर उन्होने उत्तर अफ्रीका में संकटों से भागे मुसलमानों को शरण दी। उन्हे हर अब लौटाने की कोशिशों में है।
उदारीकरण से पिछले पचास वर्षों में मुसलमान सर्वत्र फैले। मगर अंत में इनका नतीजा है जो जहां भी ये गए उन देशों की राजनीति में दक्षिणपंथ फैला। जिन उदारवादी दलों, लिबरल ने मुसलमानों को शरण दी या दिलाई वे सभी अब अपने देश में रक्षात्मक हैं, खलनायक हैं। फिर भले फ्रांस का राष्ट्रपति हो या जर्मनी का चांसलर! अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप ने विश्वविद्यालयों के खिलाफ सख्ती के तौर-तरीके अपनाए हैं तो वजह यहूदी लॉबी का हावी होना है तो साथ ही यह तथ्य भी है कि पढ़ने के लिए आए मुस्लिम-अरब छात्रों ने बाइडेन प्रशासन के समय कैंपस में प्रदर्शन, हल्ला किया था।
सोचें, मिस्र, सऊदी अरब, खाडी के पड़ोसी देशों ने न तो लीबिया, सीरिया आदि के शरणार्थियों की मानवीय मदद की, न ही फिलस्तीनियों के लिए आंसू बहाए मगर मुस्लिम एक्टिविस्टों ने लंदन, पेरिस, वाशिंगटन के उदारवादी माहौल में प्रशासन की नाक में दम किया।
सो, मुझे नहीं लगता कि ईरान की कमर तोड़ देने वाले इजराइली हमले का दुनिया में खास विरोध होगा। किसी की ईरान के लिए सहानुभूति नहीं है। रूस और चीन भी तेहरान का मुखर समर्थन नहीं करेंगे। जब गजा पर इजराइल की अबाध कार्रवाई पर कोई नहीं बोल पाया तो उस ईरान को कहां समर्थन मिलना है, जिसके मौलाना एटमी हथियार बनवाने की तैयारी में थे।