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रुपए का गिरना अब अच्छा हो गया!

indian rupee

रुपए की कीमत एक डॉलर 90 रुपए पर पहुंच गई। अब इसके शतक लगाने का इंतजार है। किसी ने सोशल मीडिया में तंज किया कि जब 87 या 88 रुपए का डॉलर था, तब हिसाब लगाना बड़ा मुश्किल होता था, 90 का हो गया तो थोड़ा आसान हो गया है, लेकिन अगर सौ रुपए का एक डॉलर हो जाए तो भारत के लोगों के लिए हिसाब लगाना और भी बहुत आसान होगा। एक समय था, जब रुपए की गिरती कीमत को देश की प्रतिष्ठा से और प्रधानमंत्री की उम्र से जोड़ा जाता था। इस पर चिंता जताई जाती थी। लेकिन अब या तो छिटपुट तरीके से मजाक उड़ाया जाता है या यह बताया जाता है कि रुपए का गिरना देश की अर्थव्यवस्था और नागरिकों के लिए कितना अच्छा है। सोचें, यह बात देश के बड़े अर्थशास्त्री और सरकार में बैठे लोग कह रहे हैं!

भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी अनंत नागेश्वरन ने कहा है कि अब वे रुपए की गिरती कीमत पर अपनी नींद खराब नहीं करते हैं। उन्होंने कनफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज यानी सीआईआई के एक कार्यक्रम मे यह बात कही। साथ ही उन्होंने कहा कि रुपए की गिरती कीमत अब महंगाई या निर्यात को प्रभावित नहीं कर रही है। सवाल है कि रुपए की गिरती कीमत अगर पहले महंगाई प्रभावित करती थी तो अब क्यों नहीं कर रही है? क्या अब भारत बाहर से तेल नहीं खरीदता है? अब अपने तेल के कुएं मिल गए हैं? हकीकत यह है कि अपनी ऊर्जा जरुरतों के लिए भारत की आयात पर निर्भरता पहले से बढ़ गई है। नरेंद्र मोदी ने कहा था कि तेल के आय़ात पर भारत की निर्भरता कम की जाएगी और ऊर्जा के दूसरे स्रोत खोजे जाएंगे लेकिन असल में अब 81 फीसदी से ज्यादा तेल आयात किया जा रहा है। क्या डॉलर महंगा होने से तेल का आयात महंगा नहीं हो रहा है? ऐसा लग रहा है कि जनता के ऊपर सौ रुपए लीटर से ऊपर की कीमत पर पेट्रोल खरीदने का बोझ डाल कर सरकार आराम से बैठी है कि तेल का आयात महंगा हो तो क्या फर्क पड़ता है, जनता तो पहले से ही ज्यादा कीमत चुका रही है!

भारत दुनिया के दूसरे देशों के बने उत्पादों के आयात पर निर्भर देश है। निर्यात के मुकाबले आयात बहुत ज्यादा है। अकेले चीन से हर साल एक सौ अरब डॉलर से ज्यादा यानी करीब एक लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का व्यापार घाटा है। अक्टूबर महीने में भारत का वैश्विक व्यापार घाटा बढ़ कर 41 अरब डॉलर से ज्यादा यानी करीब 40 हजार  करोड़ रुपया महीने का हो गया है। इस तरह सालाना घाटा करीब पांच लाख करोड़ रुपए का होगा। लेकिन मुख्य आर्थिक सलाहकार को लग रहा है कि इससे महंगाई प्रभावित नहीं हो रही है। हकीकत यह है कि सरकार के महंगाई के आंकड़े कुछ भी कहें वास्तविक जीवन में महंगाई लोगों की कमर तोड़ रही है। निर्यात करने वालों को जरूर डॉलर में पैसे मिलने से फायदा हो रहा है लेकिन वह फायदा तो चुनिंदा लोगों को है।

इसी तरह कई लोगों ने इस आधार पर रुपए की गिरती कीमत को सही ठहराया कि भारत में बाहर के मुल्कों से बहुत पैसा आता है और वह डॉलर में होता है। डॉलर महंगा होने से रेमिटेंसेज यानी बाहर के पैसे पर निर्भर लोगों की आय बढ़ गई है। अब अगर उनको एक हजार डॉलर आता है तो वह 90 हजार रुपया हो जाता है। सोचें, यह कैसा तर्क है! डॉलर महंगा होने से विदेश में पढ़ने वाले लाखों बच्चों को ज्यादा रुपए देने पड़ रहे हैं, घूमने जाने वालों को ज्यादा खर्च करना पड़ रहा है या आयात का बिल बढ़ रहा है पर उसको रेमिटेंसेज के पैसे से ढक दिया जाएगा!

नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने से पहले 2013 में तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार पर निशाना साधते हुए कहा था, ‘आज देखिए, रुपए की कीमत जिस तेजी से गिर रही है और कभी कभी तो लगता है कि दिल्ली सरकार और रुपए के बीच में कंपीटीशन चल रहा है, किसकी आबरू तेजी से गिरेगी। देश जब आजाद हुए तब एक रुपया एक डॉलर के बराबर था। जब अटलजी ने पहली बार सरकार बनाई, तब तक मामला पहुंच गया था 42 रुपए तक, अटलजी ने छोड़ा तो 44 रुपए पर पहुंच गया था। लेकिन इस सरकार में और अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के कालखंड में 60 रुपए पर पहुंच गया है’। सोचें, उस समय एक डॉलर की कीमत 60 रुपए पहुंचने पर मोदी ने उसे देश की आबरू से जोड़ा दि था। आज वही डॉलर 90 रुपए का हो गया यानी 11 साल में 50 फीसदी महंगा हो गया लेकिन इससे देश की आबरू पर कोई असर नहीं हो रहा है! उलटे यह देश के लिए अच्छा हो गया है!

हकीकत है कि अब भारत की मुद्रा यानी रुपया एशिया में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाली मुद्रा है। इसका अर्थ है कि भारत की अर्थव्यवस्था की वास्तविक तस्वीर वैसी नहीं है, जैसी दिखाई जा रही है। वैसे भी भारत के आंकड़ों को आईएमएफ ने सी ग्रेड में डाला हुआ है। इसलिए उन आंकड़ों पर कोई भरोसा नहीं कर रहा है। असल में भारत की अर्थव्यवस्था पर अमेरिका की ओर से लगाए गए टैरिफ का बड़ा असर हो रहा है। रुपए की कीमत का गिरना उससे भी जुड़ा है। हालांकि टैरिफ से पहले ही डॉलर की कीमत 85 रुपए से ऊपर पहुंच गई थी। एक रिपोर्ट के मुताबिक संस्थागत विदेशी निवेशकों ने जुलाई के बाद से यानी टैरिफ बढ़ाए जाने के बाद से एक लाख करोड़ रुपए रुपए से ज्यादा की बिकवाली की है यानी अपना पैसा भारतीय बाजार से निकाला है। इससे भी रुपए पर दबाव पड़ा है। रुपए की कीमत गिरने का तीसरा बड़ा कारण यह है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश नदारद है। निवेश आए तो उसके साथ विदेशी मुद्रा आती है। लेकिन निवेश की रफ्तार सालों से सुस्त है। सो, आयात का बिल बढ़ रहा है, विदेशी निवेशक पैसा निकाल रहे हैं, बाहर से निवेश नहीं आ रहा है फिर भी रुपए का कमजोर होना देश के लिए अच्छा बताया जा रहा है। कहीं ऐसा न हो कि डॉलर की कीमत सौ रुपए पहुंच जाए तो देश में ताली, थाली बजवा कर या दीये जलवा कर उसका जश्न मनवाया जाए!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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