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मैकाले को गाली और विरासत की पूजा!

मैकाले को बेचारा माने या महान? इसलिए क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने कोसा है। कहा है कि मैकाले भारतीयों की ‘गुलामी की मानसिकता’ का ज़िम्मेदार है। पर फिर अगले दिन उन्होंने मैकाले की विरासत का अभिनंदन किया। मत्था टेका। पेचीदा मसला है। सोचें, भारत की आज बनावट और बुनावट क्या है? नरेंद्र मोदी यदि बतौर प्रधानमंत्री सत्ता भोग रहे हैं, तो किसके कारण? इसके लिए वे संविधान को पूजते हैं। और इस संविधान की बनावट-बुनावट क्या है? मोटामोटी अंग्रेज़ मैकाले का सपना। मैकाले, बर्क, जेम्स मिल, लॉर्ड कर्ज़न यानी मालिक अंग्रेज़ों के क़ानूनों, इस्पाती खांचे-ढांचे की शासन-पद्धति का एक कलमबद्ध ग्रंथ!

पर क्या इस सत्य का भान हम भारतीयों को है? लगभग नहीं। यही मैकाले-अंग्रेज़ों की महान उपलब्धि है। वे एक ऐसी क़ौम, एक ऐसा देश रच गए जिन्हें इतना भी अहसास नहीं कि स्वतंत्र भारत की बनावट का आधार ही गुलामी की अंग्रेज़ व्यवस्था है।

यही मैकाले, लॉर्ड कर्ज़न या ब्रिटिश संसद से ठप्पा लगे हुए भारत सरकार अधिनियम 1935 को लागू करवाने वाले गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलिंग्डन की महानता का प्रमाण है। ये भारतीयों को इतना अज्ञान में डुबो गए कि उन्हीं की विरासत वाला शासन और उसका संविधान आज भी यथावत है पर उसे प्रधानमंत्री मोदी पूजते हैं और अपने को विश्वगुरु भी कहते हैं!

मैकाले की शिक्षा नीति से निश्चित ही एक सीमा तक (आखिर उससे पहले भी सदियों से गुलाम थे) भारतीयों में गुलामी की मानसिकता बनी। पर उसका आज़ादी के बाद और पुख्ता होना तो स्वतंत्र भारत के शासन-सत्ता तंत्र से ही है। इस तंत्र के राजाधिराज पिछले ग्यारह वर्षों से प्रधानमंत्री मोदी स्वयं हैं। और वे संविधान की महिमा का बखान करते हुए नागरिकों से क्या आह्वान करते हैं? यह कि संविधान में बताए कर्तव्यों को पूरी ईमानदारी और प्रतिबद्धता से निभाना चाहिए। और क्या हैं ये कर्तव्य? मतलब—सरकार को माईबाप मानो। सत्ता की शान में कोई गुस्ताख़ी नहीं।

पता है, नागरिकों को कर्तव्यों में बाँधने और सरकार को मनमानी करने की सुविधा देने वाला संविधान प्रावधान कब बना था? जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया हुआ था। कर्तव्य की बात 1950 के मूल संविधान में नहीं थी। इन्हें सोवियत संविधान से प्रेरित होकर इंदिरा गांधी ने आपातकाल के समय मौलिक कर्तव्य के नाम से 42वें संशोधन (1976) में संविधान में डलवाया था।

पर इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी का फर्क है। उन्होंने या उनके आगे-पीछे के किसी प्रधानमंत्री ने सत्तावान बनने के बाद संविधान की वह पूजा-अर्चना नहीं की, जैसी नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद से लगातार करते हैं। जबकि हिसाब से संघ परिवार और भारतीय संस्कृति के विचारकों ने संविधान को लेकर संविधान सभा की बहस में यह कहा हुआ है कि यह मानो अंग्रेज़ शासन की रचना है। संविधान सभा में डॉ. रघुवीर से लेकर के.एम. मुंशी, के.टी. शाह, एच.वी. कामथ, संपूर्णानंद, रविशंकर शुक्ला आदि कई कांग्रेसी, वामपंथी, राष्ट्रवादी नेताओं ने संविधान के भारतीयकरण यानी देशज बनाने के ढेरों तर्क दिए और भाषण किए।

डॉ. रघुवीर ने भारत की सभ्यतागत राष्ट्र (हिंदू राष्ट्र नहीं) की रचना के लिए सांस्कृतिक तत्वों—“ऋत”, “सत्य”, “धर्म-जन्य कर्तव्य”, राष्ट्रीय भाषा—जैसे सूत्रों को संविधान में समाहित करने की आवश्यकता बताई। उनका आग्रह था कि भारत का संविधान केवल क़ानून का दस्तावेज़ न हो बल्कि यह भारतीय सभ्यता का भाव-दस्तावेज़ भी हो। पर उन्हें नहीं सुना गया। तभी उन्होंने अंत में कहा—“यह संविधान भारतीय नहीं लगता; यह भारत की धरती में उगा हुआ वटवृक्ष नहीं, बल्कि विदेशी पौधा है।”

डॉ. रघुवीर से भी अधिक मुखर के.एम. मुंशी, एच.वी. कामथ, के.टी. शाह थे। के.टी. शाह विचारों में वामपंथी थे, लेकिन उनका “भारतीय संस्कृति की विशिष्टता” के आग्रह के साथ तर्क था कि “संविधान में यह चिन्हित होना चाहिए कि भारतीय राष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत क्या है।” इसी तरह नंदलाल बसु, रविशंकर शुक्ला, संपूर्णानंद, लक्ष्मीकांत माने, अनंतराय चौधरी आदि ने देशज शिक्षा, भाषा, नैतिक मूल्यों के सूत्र संविधान में डालने की माँग की।

लेकिन मैकाले का स्टील फ्रेमवर्क, आई.सी.एस. नौकरशाही, प्रभुवर्ग और पंडित नेहरू ने किसी की नहीं सुनी। मानने वाले मानते हैं कि डॉ. आंबेडकर ने संविधान लिखा। असलियत में अंग्रेज़ संविधान का खाका बना गए थे। सो मैकाले की संतानों ने जैसा चाहा वैसा ही औपनिवेशिक ढांचे को लगभग अपनाते हुए संविधान रचा। उसे लिखना भी क्या था—गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 की सरचनात्मक निरंतरता पर ठप्पा था। इस वास्तविकता का डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में मज़ाक-आलोचना के अंदाज़ में भी आभास कराया। उन्होंने कहा था कि संविधान में गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 के तीन-चौथाई हिस्से उठा लिए गए हैं—तो “आयरिश संविधान से भी हिस्से लिए गए!”

ऐसा क्यों हुआ? इसलिए क्योंकि नेहरू और उनकी ओर से संविधान मसौदा प्रारूप बनाने वाले आई.सी.एस. अफ़सर बी.एन. राउ—मैकाले की शिक्षा से पोषित स्टील-फ़्रेम की अफ़सर जमात—पूरी तरह लॉर्ड कर्ज़न के फ़लसफ़े की मुरीद थी। और लॉर्ड कर्ज़न का क्या सूत्र था? लॉर्ड कर्ज़न ने बंगाल के टुकड़े करने के अलावा प्रशासन को यह सूत्र भी दिया था कि: “भारत को केन्द्र से ही चलाया जाना चाहिए, एक मज़बूत हाथ से, और प्रशासनिक एकता की पूर्ण पकड़ के साथ।” (India must be governed from the center, by a strong hand, and with complete administrative unity.)

इसी सूत्र से गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 का वह फ्रेमवर्क बना था जिसे संविधान सभा ने अपनाया। ऐसा नेहरू के ठप्पे याकि ‘आईडिया ऑफ़ इंडिया’ के इलाहामों से भी था। उनके सपनों को शक्ल1909 में आई.सी.एस. बने कोंकणी ब्राह्मण बेनेगल नरसिंह राउ ने दी। जबकि वे संविधान सभा के सदस्य नहीं थे, मगर नेहरू के पसंदीदा थे। ध्यान रहे कि राउ गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 की ड्राफ्टिंग के समय में भी सैमुअल होरे के सहायक अफ़सर थे। उनकी सेवाओं के लिए ब्रिटिश महारानी ने उन्हे नाइटहुड से सम्मानीत किया था।

एक और तथ्य। 1935 के एक्ट के लागू होने के बाद भारत में प्रांतीय और केंद्रीय असेंबलियों के चुनाव शुरू हो गए थे। चुनाव से चुनी सरकारों के प्रमुख तब ‘प्रांतीय मंत्री’—‘सरकारी मंत्री’ कहलाते थे। लॉर्ड माउंटबेटन ने उसी क्रम के अंग्रेज़ क़ानून—भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947—के तहत स्वतंत्रता से पहले नेहरू को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई थी।

इसलिए यह न सोचें कि संविधान से चुनाव होना और निर्वाचित प्रतिनिधियों व भारतीयों को सत्ता मिलना प्रारंभ हुआ। अंग्रेज़ इस सबका बीजारोपण कर गए थे। सो मैकाले को यदि भारतीयों की मानसिक गुलामी का जनक मानें तो 1905 में लॉर्ड कर्ज़न, 1935 में गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलिंग्डन, 1946 में लॉर्ड माउंटबेटन, 1950 में जवाहरलाल नेहरू और 2025 में नरेंद्र मोदी का सिलसिला वही है जो स्टील फ्रेम शासन की विरासत है। इसका मूल मंत्र लॉर्ड कर्ज़न का यह वाक्य था कि भारतीयों पर शासन केंद्रीकरण, आदेशात्मक नियंत्रण और राज्य–नागरिक दूरी की व्यवस्थाओं से होना चाहिए।

इसलिए अंग्रेज़ की व्यवस्था से ही भारत की चाल-ढाल है और भारत का संविधान है। केंद्रीकरण, आदेशात्मक नियंत्रण, और राज्य–नागरिक दूरी की व्याख्या का मामला बहुत बड़ा है, बहुत लिखना होगा। सो फिलहाल इतना ही सोचें कि दिल्ली में 1947 से पहले लाटसाहेब उर्फ़ लॉर्ड माउंटबेटन और उनके तंत्र की बनावट क्या थी? कार्यपालिका के अधिकार (Executive Power) नागरिक अधिकारों से बेइंतहा अधिक। आई.सी.एस.–आई.ए.एस. की स्टील फ्रेम में अफ़सर का न बाल-बाका और वह केंद्र नियंत्रित सर्वाधिक सुरक्षित नौकरी लिए।  किसी तरह की कोई सीधी जवाबदेही नहीं। वही नागरिकों को अधिकार प्राप्त है मगर पाबंदियों, यानी reasonable restrictions के अधीन।

साथ ही संघीय ढांचा भी लॉर्ड कर्ज़न की सोच अनुसार बना हुआ है। मतलब संविधान ने सबकुछ सरकार यानी कार्यपालिका यानी स्टेट-सेंट्रिक बनवा दिया है। नतीजतन अफ़सरों का धर्म नागरिक के अधिकारों की चिंता नहीं, वेयक्तिक नागरिक स्वतंत्रता नहीं बल्कि “प्रजा” को नियंत्रित करना है। जनता पर शासन करना है; उससे जनता अनुमति लेगी, उससे फरियाद करेगी। वह स्वतंत्र नहीं नियंत्रित प्रजा है जिसे राज्य अनुमति देगा, नौकरशाही आदेश देगी और पुलिस-थाने उसे लागू कराएंगे या तलब करेंगे।

यही तो अंग्रेज़ों का—मैकाले, कर्ज़न का—औपनिवेशिक राज का मॉडल था। तभी

उन दिनों भारत का गवर्नर-जनरल ब्रिटेन में मुफ़स्सिल नेता की तरह होता था लेकिन भारत में वह लाटसाहेब—भगवान। और जिसके कारिंदे कलेक्टर, थानेदार प्रजा में भय बनाए रहते थे। प्रजा पर ऊपर से आदेश आते थे। ‘लाइसेंस-परमिट-इंस्पेक्टर राज’ था, और लोग यानी नागरिक महज़ “दरख़्वास्तकर्ता”।

सोचें—नेहरू राज से लेकर नरेंद्र मोदी के राज तक के निरंतर अनुभवों पर। क्या संविधान ने भारतीयों को औपनिवेशिक राज के मॉडल से अलग कोई अनुभव कराया है? किसी भी प्रधानमंत्री ने ‘स्टेट बनाम सिटिजन’ की औपनिवेशिक संरचना नहीं बदली। इसलिए कि संविधान ऐसा कहता नहीं। तभी नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी दोनों समान भावसंविधान के प्रति आस्था वैसे ही दर्शाते हैं जैसे धर्मग्रंथ के प्रति। आकिर नेहरू-गांधी परिवार हो या संघ परिवार सभी के लिए संविधान वह साधन है जिससे अंग्रेज़ लाटसाहेबों जैसी सत्ता एकछत्रता जो बनती है।

इसलिए मैकाले या कर्ज़न या अंग्रेज़ों को दोषी ठहराना व्यर्थ है तो नरेंद्र मोदी को भी ठहरना व्यर्थ है। सदियों से गुलामी के भोक्ता हम भला कैसे स्वतंत्रता के पंख लिए उड़ सकते है।

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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