ईरान अपनी भूमिगत परमाणु ताकत भी नहीं बचा पाया। और ऐसा होना डोनाल्ड ट्रंप की शूरवीरता नहीं है, बल्कि अमेरिकी सेना की वह महाशक्ति है, जिसके आगे दुनिया का कोई दूसरा देश नहीं टिक सकता। सवाल है क्या पश्चिम एशिया अब ट्रंप और नेतन्याहू के वर्चस्व में दबा रहेगा? दूसरा सवाल है क्या ईरान के लोग धार्मिक उन्माद से पैदा हुए खामेनेई के इस्लामी निजाम को उखाड़ फेंकेंगे या जस के तस जकड़े रहेंगे? इजराइल-अमेरिका के इरादों के मुताबिक ईरान बदलेगा या ईरानी लोग जिहादी भभकों में डूबेंगे? तीसरा सवाल है कि ईरान के एटमी ठिकानों की तबाही के बाद ट्रंप की मनमानी बढ़ेगी या वे घरेलू राजनीति में ही रमे रहेंगे? सवाल यह भी है कि चीन और रूस, जो अपनी अलग वैश्विक व्यवस्था बनाने के इरादों में अमेरिका के खिलाफ ताना-बाना बुने हुए थे वे अब डर कर थम जाएंगे या अमेरिकी चौधराहट के खिलाफ देशों को गोलबंद करना जारी रखेंगे? आखिर में तात्कालिक चिंता है कि ईरान सरेंडर करेगा या इजराइल और अमेरिकी अड्डों पर निशाने साध कर वैश्विक सनसनी बनाएगा?
आखिरी सवाल पहले। मेरा मानना है ईरान चाहे जितना धमाल मचाए और चीन-रूस दोनों उसके पीछे खड़े हो जाएं, मगर असलियत है कि तेल के अलावा ईरान में कुछ भी नहीं है! ईरान ही क्यों, खाड़ी और अरब देशों को भी मिला लें तो इन सबके पास बेइंतहा तेल-दौलत भले हो लेकिन खुद की सैनिक ताकत क्या है? सोचें, कैसे इजराइल 1948 से लगातार इनकी धुनाई करते हुए है? अथाह पेट्रो डॉलर फिर भी अपनी रक्षा के लिए दूसरों पर निर्भर!
क्यों? दरअसल इजराइल जिस यहूदी घुट्टी में बना हुआ है उसका मूल मंत्र है दिमाग-बुद्धि में सत्य, तर्क, ज्ञान और विज्ञान की चेतना में सतत धड़कते रहना (सोचो हिंदुओं)। मेरा मानना है कि इस्लाम अपने मदरसों और मस्जिदों में चाहे जितना जिहाद और उन्माद गढ़ ले, लेकिन धर्म और उसके अंधविश्वासों के दम पर आधुनिक पृथ्वी पर राज संभव नहीं है। यों भी पृथ्वी को वही भोगता है, जीतता है जो असली वीर होता है। अर्थात “वीर भोग्या वसुंधरा”! शर्त यह कि वीर असली होना चाहिए। भोगने का अधिकारी वही होता है जो निर्भय, निडर, सत्यवादी होता है। छप्पन इंच की छाती तान कर, लोगों को झूठ, अंधविश्वासों से भरमाकर पराक्रम दिखाने से कोई वीर नहीं बनता। वीर वे होते हैं, वह नस्ल, वह कौम होती है जहां वैयक्तिक स्वतंत्रता, बुद्धि, ज्ञान-विज्ञान और पुरुर्षाथ खिला होता है।
कोई न माने इस बात को लेकिन इतिहास का सत्य है कि यूरोपीय पुनर्जागरण या पुनर्जन्म के चौदहवीं सदी में बीज फूटने के बाद से पृथ्वी लगातार पश्चिमी सभ्यता की गोद में है। उसने दुनिया को अपना उपनिवेश बनाया। यूरोप तमाम तरह की महाशक्ति का केंद्र हुआ। वह मानव सभ्यता की क्षमताओं के विस्तार का पैमाना बना। ऐसा इसलिए क्योंकि धार्मिक जड़ता की जगह यूरोप का 14वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी के बीच बौद्धिक, ज्ञान-विज्ञान, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक, सभ्यतागत पुनर्जन्म था।
यूरोप और फिर वहां से अमेरिका में जो हुआ उसका बीज मंत्र सिर्फ यह है कि मनुष्य की वैयक्तिक स्वतंत्रता में ही सब कुछ है। उसी में कौम की निडरता, एडवेंचर, पुरुषार्थ, किलिंग इंस्टिंक्ट और स्वतंत्र पंखों के साथ ज्ञान-विज्ञान, पराक्रम के अनंत में उड़ते रहना है।
सो, अमेरिका और इजराइल के आगे ईरान की कहानी में दम नहीं हो सकता। ईरान खाड़ी-अरब क्षेत्र का आईना है। अमेरिका ने इराक को रौंदा है तो अफगानिस्तान के तालिबानी हो या इस्लामी स्टेट के बगदादी या अल कायदा के बिन लादेन आदि सभी को पिछले पच्चीस वर्षों में उसने जैसे मारा है उसके आधुनिक इतिहास के सबक बेबाक है। इस्लाम और उसका नेतृत्व धर्म की उस आबोहवा में खोखला है, जिससे मजहब से उन्माद तो बनता है मगर बुद्धि, विवेक, ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा, राजनीति और अंततः सामरिक ताकत सभी को वह खा डालता है। खोखला बना देता है।
पश्चिम एशिया के ठाठबाट, कुवैत-दुबई-सऊदी अरब के विकास में दिखावे के लिए सब कुछ है पर वह सब तो तेल की कमाई की शॉपिंग है। पीछे की असलियत तो अंधविश्वास और परंपरागत जकड़न है। दुबई, कुवैत, सऊदी अरब की शानोशौकत के मुकाबले इजराइल सामान्य और हल्का लगेगा। मगर इजराइल का हर यहूदी वैयक्तिक स्वतंत्रता में जीवन जीता है। दुनिया भर के विश्वविद्यालयों में यहूदी प्रोफेसर हैं, वे विज्ञानी हैं, बौद्धिक उर्वरता का खजाना हैं। वही ताकत इजराइल की ताकत है। नेतन्याहू और उनकी सरकार की गजा में बर्बरताओं से चाहे जो इमेज बनी या बिगड़ी है वह अपनी जगह है मगर यह सत्य पहले से निर्विवाद है कि ईरान के पहले खुमैनी ने नक्शे से इजराइल को मिटा देने की कसम खाई थी। जैसे बिन लादेन और इस्लामी स्टेट के बगदादी ने अमेरिका को मिटाने या सबक सिखाने के नाम पर आतंक बनाया या सद्दाम हुसैन से लेकर कर्नल कज्जाफी ने पेट्रो डॉलर की ताकत में अपने को छपन्न इंची छाती वाला शूरवीर घोषित करके आतंक-रूतबा बनाया पर अंत नतीजे में तो बेमौत, मौत ही थी।
इसलिए जिन लोगों को यह उम्मीद या गलतफहमी है कि अमेरिका और पश्चिमी सभ्यता की बनवाई विश्व व्यवस्था या उसकी चौधराहट से अलग समानांतर नई विश्व व्यवस्था बन सकती है वे अंततः नाकाम होने हैं। चीन खुले-स्वतंत्र यूरोप-अमेरिका से तकनीक और पूंजी ले कर अपने को विश्व बाजार की फैक्टरी में कनवर्ट कर सकता है मगर उसका यह विकास धंधे की जड़ता और आबादी के शोषण से है। चाइनीज अनुशासित ढांचे के पिंजरे के लोग हैं तो चीन और स्लाविक रूसी सभ्यता अपने पिंजरे के शेर भले बने हों मगर वह उन लोगों, उस सभ्यता, उस कौम से आगे नहीं बढ़ सकते हैं, जहां मनुष्य स्वतंत्रता के पंख लिए हुए अनंत उड़ान के पक्षी हैं।
कहने को दस तरह के तर्क हैं कि अमेरिका खुद बरबाद होता हुआ है। पश्चिमी सभ्यता की दुकान में डोनाल्ड ट्रंप सांड़ बने हुए है। दूसरे महायुद्ध के बाद संभवतया पहली बार डोनाल्ड ट्रंप ने जी-7 देशों याकि ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, जापान किसी को भी विश्वास में लिए बिना ईरान पर हवाई हमला किया। डोनाल्ड ट्रंप सचमुच वह कर दे रहे हैं जो पुतिन या शी जिनफिंग की बुनावट है। मगर बावजूद इसके अमेरिकी लोग तो वैयक्तिक स्वंतत्रता की आबोहवा में जीने वाले हैं। तभी यह मामूली बात नहीं है कि जिस दिन ट्रंप ने अपनी शान में वाशिंगटन में सैन्य परेड रखी थी उसी दिन अमेरिका के तमाम शहरों में अमेरिकियों ने ट्रंप के खिलाफ प्रदर्शन किए। और उस दिन के प्रदर्शनों में लोगों की कुल संख्या अमेरिकी इतिहास के पुराने रिकॉर्ड को तोड़ने वाली थी।
डोनाल्ड ट्रंप हों या नेतन्याहू ये अमेरिका और इजराइल के न उम्रपर्यंत राष्ट्रपति हो सकते हैं और न वहां के खुमैनी बन सकते हैं। इसलिए कुछ भी हो जाए, पश्चिमी सभ्यता के आगे चाइनीज या इस्लामी या स्लाविक रूसी नेता दुनिया भर के कंगले देशों को लेकर अपनी विश्व व्यवस्था नहीं बना सकते। शीतयुद्ध में भी निर्गुट आंदोलन के नाम पर देशों की भीड़ और सोवियत संघ की कमान के कई देशों के जमावड़े की धुरियां बनी थीं? क्या हुआ? चीन की आर्थिक ताकत की वजह से उसकी अलग धुरी बनती लगती है। पर यदि आर्थिक याकि पैसे की ताकत पर शक्ति की धुरी बनना संभव होता तो क्या पश्चिम एशिया के 35 करोड़ मुसलमानों के आगे नब्बे लाख यहूदियों के इजराइल का बचा रहना संभव था?
सो, चीन हो या रूस या सऊदी अरब या ईरान, ये सब व्यापार से, व्यापार के लिए राजनीति करते हुए हैं। चीन की धुरी उसका विदेश व्यापार है। उसे अपने कारखाने चलाए रखने हैं। ईरान को तेल बेचते रहना है, पुतिन और शी जिनफिंग को अपना शासन बनाए रखना है। इन सबका तोता किसी न किसी उस स्वार्थ, उस चीज में अटका हुआ है, जिससे इनकी नस्ल की निडरता, स्वतंत्रता, बुद्धि, विवेक, ज्ञान-विज्ञान, तर्क और ईमानदारी से कोई जुड़ाव नहीं है। कोई आश्चर्य नहीं जो चीन और रूस में रत्ती भर हिम्मत नहीं हुई कि ट्रंप की मंशा जाहिर होने के बाद भी वे बोलते कि हम ईरान के साथ हैं।