nayaindia lok sabha election 2024 भारत का यह अंधा, आदिम चुनाव!

भारत का यह अंधा, आदिम चुनाव!

lok sabha election 2024
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क्या आप अनुमान लगा सकते हैं कि 1952 के पहले आम चुनाव और 18वें आम चुनाव में क्या समानता है? तब कोई सवा 17 करोड़ वोटर थे और 2024 के लोकसभा चुनाव में कोई 97 करोड़ वोटर मतदान के अधिकारी हैं। मतलब 1952 के मुकाबले छह गुना अधिक। हिसाब से 1952 के बाद के 70 वर्षों में न केवल भारत के मतदाता पढ़े-लिखे, समझदार, बुद्धिमान होने चाहिए, बल्कि लोकतंत्र अपनी इस तासीर में पका हुआ होना चाहिए था- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। lok sabha election 2024

पता नहीं रामधारी सिंह दिनकर ने यह लाइन कब लिखी। लेकिन उनकी कविता की इन पंक्तियों- ‘सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा, तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो, अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है, तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो’। से लगता है यह 1952 याकि पहले आम चुनाव के आसपास लिखी गई होगी।

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मगर क्या 1952 में जनता जागरूक थी? तब लोग गांधी-नेहरू, कांग्रेस के अंधविश्वास में थे। लोगों ने दिल्ली की सत्ता पर पहले से बैठे पंडित नेहरू और कांग्रेस नेताओं को आंख मूंद ठप्पा मारा। आजादी और लोकतंत्र के बावजूद भारत के लोग और खासकर हिंदू तब भी देवता रूपी नेहरू की आरती लिए हुए वोट डालते थे। और पता है उस पहले आम चुनाव में लोकसभा की 489 सीटों पर मतदान हुआ था तो नेहरू के प्रति जनभक्ति कैसी उमड़ी थी? कांग्रेस को तब 44.87 प्रतिशत वोट मिले। lok sabha election 2024

वह 364 सीटों पर विजयी हुई। नंबर दो और तीन पार्टी सीपीआई व सोशलिस्ट थीं, जिन्हे 16 व 12 सीट मिली थीं। हिंदू महासभा को चार, रामराज्य परिषद् व जनसंघ को तीन-तीन सीटें मिली थीं। इन तीन हिंदुवादी पार्टियों को कुल कोई छह प्रतिशत वोट मिले थे।

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जाहिर है जनता ने मतदान केंद्रों में जवाहर लाल नेहरू की आरती उतारते आंख मूंद वोट डाले। वह जनता, जिसमें आजादी के बाद यह चेतना बननी थी कि ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’। मगर वे ही लोग चुने गए जो सत्ता में थे। कुलीन थे। लुटियन दिल्ली की कोठियों के देवता थे। और कोई न माने इस बात को लेकिन हकीकत है कि लुटियन दिल्ली के तब के सत्तावानों के आगे कम्युनिस्ट पार्टी व उसके नेता अजय घोष हों या जयप्रकाश नारायण की समाजवादी बिरादरी हो या करपात्री महाराज की रामराज्य परिषद् या श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जनसंघ का जनता से जमीनी जुड़ाव कम नहीं था।

हालांकि पंडित नेहरू और कांग्रेस की भी जनता में पैठ थी। मगर तब भी पक्ष-विपक्ष का बुनियादी फर्क यह था कि कांग्रेस को सत्ता का, लुटियन दिल्ली के तिलिस्म का एडवांटेज था वहीं विपक्षी नेता फांके मारते हुए थे। और हम हिंदुओं का यह मूल चरित्र है कि जो सत्ता में है वह देवता है, भगवान है। नेहरू ताउम्र भगवान, अवतार के रूप, विश्व गुरू के नाते पूजे गए तो इंदिरा गांधी ने बार-बार बिजली कड़का कर लोगों को हतप्रभ किया। वे देवी बनीं। दुर्गा कहलाईं।

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और वैसा ही नरेंद्र मोदी का फिनोमिना है। नरेंद्र मोदी की सत्ता का राज हिंदू मानस के भक्त- गुलाम चरित्र को उकेरना है। उनका 2014 का चुनाव सामान्य था। मनमोहन सरकार और कांग्रेस के खिलाफ अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल के आंदोलन, इस्लामी चरमपंथ पर बने वैश्विक-देशी नैरेटिव तथा मीडिया के बवंडरों ने नरेंद्र मोदी के अवसर बनाए थे। और अच्छे दिन का एक जुमला हवा बना गया। सन् 2019 के चुनाव में उन्होंने पुलवामा की बिजली कड़काई। और असुरक्षित हिंदू मतदाता को छप्पन इंची छाती का देवता मिला। नतीजतन छप्पर फाड़ जीत। वह चुनाव नरेंद्र मोदी की सियासी शातिरता का प्रतीक था।

नरेंद्र मोदी ने पिछले पांच वर्षों में बतौर अवतार अपने को उस हिंदू मानस में गहरा पैठा लिया है, जो शताब्दियों से सत्ता की चारण वंदना तथा आरती लिए अवतार को तलाशता होता है। दिनकर बहुत गलत थे जब उन्होंने जनता को आह्वान करते हुए सोचा- ‘आरती लिए तू किसे ढूंढता है मूरख, मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में…’?

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भूल जाएं, गुलामी काल और 1947 से पहले के वक्त को। सिर्फ सोचें जवाहर लाल नेहरू से नरेंद्र मोदी तक के भारतीय लोकतंत्र पर। 1975 की इमरजेंसी एक अपवाद (नसंबदी जैसे उसके अलग कारण हैं) है अन्यथा  गुलामी काल में सर्वाधिक दीन-हीन जीवन जीने वाले उत्तर भारतीय हिंदुओं का लब्बोलुआब क्या यह नहीं लगेगा कि आजादी के बाद भी 70 वर्षों से वह लगातार आरती लिए राजप्रासादों, लुटियन दिल्ली के सत्तावानों को देवता बनाते आई है? lok sabha election 2024

सत्तर वर्षों में वोट राजनीति में असंख्य मोड़ आए। समाजवाद, उदारीकरण, जातिवाद, मंदिरवाद आदि के साथ समुदाय, समूहों, क्षेत्रवाद से लोगों को भरमाया गया। लेकिन जो कुछ हुआ वह देवताओं को गढ़ कर, नेता को  देवता बना कर। गांधी अवतार थे। नेहरू अवतार थे तो अंबेडकर भी अवतार। ऐसे ही कांशीराम और मायावती कम नहीं पूजे गए। वही दक्षिण में पेरियार, जयललिता, एनटी रामाराव और यूपी-बिहार में चरण सिंह से लेकर लालू यादव सब बिरादरी के देवता के रूप में प्राण प्रतिष्ठा पाए हुए नेता।

जाहिर है सत्ता की भूख, खौफ आदि कारणों ने सत्ता के पीर-बाबाजी, देवी-देवता इतने बनाए कि जनता अपना-अपना देवता ढूंढ फिरकनी की तरह घूमते रहती है। कभी भी खुद में यह जागरूकता, यह समझ पैदा नहीं होती कि वे स्वंय हैं लोकतंत्र के देवता! तभी सोचें, क्या किसी भी मायने में भारत के लोकतंत्र में यह बोध हुआ कि- सदियों की ‘ठंढ़ी-बुझी राख सुगबुगा उठी,…सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’।

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इक्कीसवीं सदी व सन् 2024 में तो कहना ही क्या! पूरा देश झूठमेव जयते हो गया है और लोग झूठ में झूम रहे हैं। पूरा देश फ्री के राशन, पांच सौ, हजार, दो-हजार रुपए की नकदी के धर्मादे का पर्याय है लेकिन लोग इसे विकसित भारत मान रहे हैं। किसान लगातार आंदोलन करते हुए हैं। मजदूर बेहाल हैं। नौजवान पकौड़े, पान-गुटके, छोले-कुलचे, ठेले के स्टार्टअप से जैसे तैसे गुजर कर रहे हैं या डिलीवरी बॉयज् के रूप में, प्रतियोगिताओं की तैयारियों में उम्र गुजार दे रहे हैं। lok sabha election 2024

बावजूद इस सबके इन सबमें नरेंद्र मोदी अवतार हैं। इसलिए क्योंकि अवतार और भक्ति में जीना कौम का डीएनए है। भारत में सत्ता क्योंकि पॉवर-शक्ति का मंदिर है तो सत्तावान के लिए झांकियों से लोगों के बीच अपने आपको विश्व गुरू, विश्व नेता, कल्कि अवतार बनाना चुटकियों का काम है। आप और मैं कल्पना नहीं कर सकते कि पंजाब में कितने हजार डेरे हैं, उत्तर भारत में कितने लाख संत, गुरू और स्वघोषित भगवान हैं। सो, धार्मिकता भक्तिमय तो उसी के विस्तार में जनता और लोकतंत्र भी सर्वोच्च नेता की आरती उतारता हुआ।

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लोकसभा का 18वां आम चुनाव अनिवार्यतः नरेंद्र मोदी की आरती का है। नरेंद्र मोदी और संघ परिवार ने इतनी तरह के अंधविश्वासों, काले टोने-टोटकों में उत्तर भारत के हिंदुओं पर वशीकरण किया है जो मतदाताओं को न अपने खुद के अस्तित्व का अहसास है और न दीन-दुनिया की रियलिटी का। सब भक्ति में डूबे हुए और अपना सर्वस्व नरेंद्र मोदी को समर्पित किए हुए।

1952 के पहले लोकसभा चुनाव में लोगों का नेहरू के प्रति समर्पण देश की स्वतंत्रता में उनके योगदान से भी प्रेरित था। जबकि 2024 में लोगों की भक्ति शुद्ध रूप से नरेंद्र मोदी की अवतार पूजा से है। लोकतंत्र अब एक टोटका है, जिसमें हिंदुओं को आंख मूंदकर वोट डालना है। इसलिए भी क्योंकि भारत की जनता सदा-सर्वदा भक्तिकाल और आरती उतारते रहने को शापित है।

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उनसे सत्ता परिवर्तन तभी होता है जब मौजूदा अवतार बासी हो जाए और लोग नए अवतार को उभरता देखें। ऐसा धर्म के मामले में भी है। कभी अचानक संतोषी माता का सब व्रत करने लगे और फिर अचानक प्रवचकों की एक के बाद एक दुकानों से स्वघोषित भगवानों की भीड़ हो गई। इसलिए 2024 के 18वें आम चुनाव की पहचान, खूबी भक्ति व अंधविश्वास की आरती को वोट है। झूठमेव जयते पर ठप्पा लगाना है।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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