nayaindia मतदान: चुनावी रणनीति और अवसर

उम्मीद रखें, समय आ रहा!

मतदान

यों रावण ने भी राम को थका दिया था। वह अजय भाग्य जो पाए हुए था। लेकिन समय के आगे भला अहंकार कितना दीर्घायु होगा? इस सत्य को मैंने बतौर पत्रकार, 12 प्रधानमंत्रियों के आने-जाने के अनुभवों में बारीकी से बूझा है। इसलिए न तो समय पर अविश्वास करना चाहिए और न उम्मीद छोड़नी चाहिए। आज नहीं तो कल, यह नहीं तो वह, और यदि कोई नहीं तब भी परिवर्तन में ही अवसर। इसलिए मैं राष्ट्र राज्य के हर चुनाव के समय नई उम्मीद में (शुरुआत जनता पार्टी की मोरारजी सरकार से) रहा और बार-बार निराशा के बावजूद मैंने इस विश्वास को बनाए रखा कि इस बुरे, अहंकारी समय को भी समय मिटा देगा। मेरा एक अनुभव अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के शाइनिंग इंडिया का था।

ध्यान रहे वाजपेयी कैबिनेट में सत्ता का गुरूर कम नहीं था। खास कर बृजेश मिश्र, लालकृष्ण आडवाणी, जसवंत सिंह, प्रमोद महाजन, अरूण जेटली, वेंकैया नायडू एंड पार्टी में! तभी इन्होंने इंडिया को चमका मान छह महीने पहले लोकसभा चुनाव कराया था। उससे पहले प्रदेश विधानसभाओं में भाजपा भारी जीती थी। सो, लोकसभा चुनाव के सिनेरियो में तब जनसर्वे (जनवरी 2004 में) एनडीए को 335 सीट मिलने की हवाबाजी करते हुए थे। लेकिन हुआ क्या? 2004 के चुनाव में भाजपा 138 सीटों पर सिमटी और सोनिया गांधी की कांग्रेस ने 145 सीटें जीत कर यूपीए की सरकार बनाई।

ठीक बीस साल बाद अब कथित ‘विश्व गुरू’ नरेंद्र मोदी की चकाचौंध में भारत वोट डालता हुआ है। लेकिन पहले ‘शाइनिंग इंडिया’ के चुनाव पर बात करें। तब मैं ‘दैनिक भास्कर’ अखबार में रोजाना चुनावी विश्लेषण और ‘पंजाब केसरी’ में साप्ताहिक ‘गपशप’ कॉलम लिखता था। और मैंने माहौल बूझा और समय को बदलता लिखा। मुझे शाइनिंग इंडिया नजर नहीं आया। सो, भाजपा की जीत के अवसर नहीं। और वही हुआ। याद करें बिना विपक्ष के वाजपेयी राज की वह कैसी अप्रत्याशित हार थी। सोनिया गांधी और तब की कांग्रेस में उतना भी दम नहीं था, जितना आज है। आखिर इस चुनाव में तो राहुल-प्रियंका दबा कर भाषण कर रहे हैं जबकि तब सोनिया गांधी के लिए हिंदी उच्चारण भी मुश्किल था। वाजपेयी के तब लोग भक्त थे, सोनिया गांधी के नहीं!

संयोग है कि तब भी मतदान के चरणों में कम वोट से मतदाताओं के मूड को बूझ कर मेरा पूछना था कि यह वोटिंग क्यों नहीं शाइनिंग वाली है? इसका अर्थ तो फिर शाइनिंग इंडिया फुस्स।

हां, मेरा तर्क है यदि कोई पार्टी या नेता एवरेस्ट पर बैठ कर हल्ला बनाए, वह शाइनिंग इंडिया या अच्छे दिनों या विकसित भारत, चार सौ सीटों का कानफोड़ू हल्ला करे तो उसी अनुपात में यदि लोगों का उत्साह मतदान में नहीं दिखा तो सत्ताधारी पार्टी का बाजा बजा। वाजपेयी सरकार ने शाइनिंग इंडिया की अखिल भारतीय गूंज बनवाई थी, दिल्ली मीडिया में नैरेटिव बनाया था तो हिसाब से लोगों को उत्साह में झूमते हुए 1999 के मुकाबले में अधिक मतदान करना था। लेकिन लोगों ने कम वोट डाले। 58.3 प्रतिशत मतदान हुआ। मतलब 1999 के मुकाबले में 1.7 प्रतिशत वोट कम। और परिणाम में भाजपा 135 सीटों पर सिमटी!

इसका अर्थ यह नहीं कि यह कोई पक्की थ्योरी है कि मतदान कम हुआ तो सत्ताधारी पार्टी हारी। जब चुनाव रूटिन का हो, मतलब पक्ष और विपक्ष दोनों सामान्य ढंग, बिना हवाबाजी के लड़ रहे हों तो कम मतदान सत्ताधारी पार्टी के लिए अनुकूल हो सकता है। लोगों के यथास्थिति वाले मूड में सत्ताधारी पार्टी की वापसी संभव है। लेकिन भारत के चुनावी इतिहास के विश्लेषण में ऐसी थ्योरी नहीं बनती। गौर करें सन् 1957 से 2019 के 16 चुनावों के वोट टर्नआउट और नतीजों पर। 10 बार वोटिंग बढ़ी तो उसमें छह बार सत्ताधारी दल (नेहरू, इंदिरा, मोदी) की वापसी हुई। और छह दफा मतदान कम हुआ तो चार बार विपक्षी पार्टी की सरकार बनी। 1977 में बनी जनता पार्टी सरकार ने निराश किया।

नतीजतन 1980 में लोगों का कम मतदान हुआ और इंदिरा गांधी की वापसी हुई। वीपी सिंह, चंद्रशेखर की सरकारों के खराब प्रदर्शन के बाद 1991 का चुनाव हुआ तो लोग निराश-हताश थे, चुनाव में अधबीच राजीव गांधी की हत्या हुई तो बाद के चरण में कुछ मतदान बढ़ा लेकिन कुल मतदान 56.7 प्रतिशत कम ही था जो पिछले चुनाव (जिसमें वीपी सिंह से माहौल बना था) से 5.2 प्रतिशत कम था।

कम मतदान से तब कांग्रेस के निराकार पीवी नरसिंह राव की किस्मत चमकी। वे प्रधानमंत्री बने। फिर वाजपेयी सरकार का उदाहरण है। उनके 1999 के चुनाव में मतदान पिछले चुनाव (जिससे वाजपेयी की 13 महीने की सरकार बनी थी) से कोई दो प्रतिशत कम 60 प्रतिशत था। पर वह चुनाव क्योंकि 13 महीने की सरकार के घटनाक्रम में वाजपेयी के प्रति सहानुभूति के साथ था तो कम मतदान में भी लोगों द्वारा तब यथास्थिति बनाए रखना था। लेकिन पांच साल बाद कम मतदान से वही वाजपेयी सरकार अप्रत्याशित हारी।

इस बैकग्राउंड में नरेंद्र मोदी के 2014, 2019 और 2024 के मौजूदा चुनाव पर गौर करें तो क्या हाईलाइट है? वे उत्तरोत्तर बढ़ती आंधी के प्रधानमंत्री हैं। उन्होंने 2014, 2019 और 2024 के तीनों चुनाव एवरेस्ट पिच पर नगाड़े बजवाते हुए लड़े। मतलब अच्छे दिनों का, 15 लाख रुपए हर परिवार को बांटने का, पाकिस्तान को उसके घर में घुसकर मारने का और भारत को विश्वगुरू, विकसित बनाने के विशाल प्रोपेगेंडा के साथ वे एवरेस्ट पर बैठे चक्रवर्ती राजा की तरह वोट मांगते आए और मांग रहे हैं।

इसी अनुपात के तूफानी जोश से लोगों ने 2014 में रिकॉर्ड वोट 66.6 प्रतिशत (2009 के मुकाबले 8.23 प्रतिशत अधिक), 2019 में नए रिकार्ड़ 67.40 फीसदी (2014 से 0.96 प्रतिशत अधिक) वोट डाले। इस हकीकत में 2024 के मौजूदा चार सौ पार के हुंकारे में वोटिंग उत्साह से, अधिक होते हुए क्या नहीं होनी चाहिए? लेकिन उलटे मोदी के जादू के कोर इलाकों में भी मतदान घटता हुआ है तो इसका क्या वहीं अर्थ नहीं जो वाजपेयी के शाइनिंग इंडिया के चुनाव का था?

वाजपेयी की शाइनिंग टीम का 335 सीटों का हल्ला था वही मोदी का चार सौ पार का आंकड़ा है तो जाहिर है शोर के अनुपात में पहले तो वोटिंग बढ़नी चाहिए और यदि वैसा नहीं हुआ तब भी मोदी के लिए कम से कम 2014 जितनी वोटिंग तो हो।

कुल मतदान का आंकड़ा ओवरऑल याकि मैक्रो लेवल का पहलू है लेकिन इस चुनाव में ज्यादा चौंकाने वाली बात नीचे, सीटवार लड़ाई याकि माइक्रो लेवल की वोटिंग है। जहां भी भाजपा के सीटिंग सांसद को नए, अनाम या बड़ी हैसियत के चेहरे से जहां भी शौर के साथ टक्कर मिली है वहां ज्यादा वोटिंग है। दूसरा ट्रेंड है कि विपक्षी सत्ताधारी प्रदेशों में ज्यादा मतदान और नरेंद्र मोदी के जादुई इलाकों में कम मतदान। राजस्थान की सभी 25 सीटों पर मतदान हो गया है। इसके वोट आंकड़ों में अधिकतम मतदान बाडमेर, बांसवाड़ा, श्रीगंगानगर, चुरू, कोटा जैसी उन सीटों पर है, जहां भाजपा विरोधी रविंद्र भाटी, राजकुमार रोत, प्रहलाद गुंजल, राहुल कस्वां, कुलदीप इंदौरा जैसे विरोधी उम्मीदवारों की मेहनत, दंबगी से उनका नैरेटिव बना और वहां मतदान भी ज्यादा।

लब्बोलुआब में मतदान के दो चरणों के संकेत हैः 1- भाजपा के सीटिंग सांसदों के खिलाफ नाराजगी, एंटी-इन्कम्बेंसी भारी है। 2- भाजपा कार्यकर्ता चुनाव में पहले जैसे एक्टिव नहीं हैं। 3-चुनावी सीट पर स्थानीय जोश और मोदी का माहौल बनवाती भाजपा मशीनरी नहीं है। 4- अधिकांश सीटों पर जात-पांत में वोट पड़ते हुए है। 5- जातीय समीकरण में भाजपा का उम्मीदवार अपनी जाति में ही अधिक वोट ले पा रहा है। 2019 जैसा सर्वजनीय माहौल नहीं है। 6- मोदी का नाम है पर उनका चेहरा अब लोगों से स्वंयस्फूर्त वोट डलवाने वाला चुंबक नहीं रहा।

लोग मोदी भक्त हैं लेकिन बाकी सब कुछ भूल कर वोट डालने का वह जोश कतई नहीं जो 2014 व 2019 में था। 7- दलित, आदिवासी, ओबीसी जातियों, राजपूत और सीट पर उम्मीदवार अनुसार फॉरवर्ड जातियों में निराशा, हताशा, संविधान, आरक्षण, नौकरी, महंगाई जैसे वे मुद्दे हैं, जिनसे मोदी का वोट पहले जैसा एकजुट नहीं है। वह बिखरा-छितरा है। 8- चुनाव के फीके, उदासीन माहौल में लोग अपनी चिंता, मूड और सरोकारों में हैं न कि नरेंद्र मोदी को वोट डालकर जीताने की चिंता में। तभी मोदी बनाम बेफिक्र उदासीन लोगों व समुदायों के बीच का ठंडा चुनाव है। इसमें कांग्रेस या विपक्ष बेमतलब है। चुनाव मोदी बनाम लोगों में है।

आखिरी बिंदु 2024 के चुनाव में निर्णायक साबित होगा। इसका संकेत राजस्थान में हुआ मतदान है। 2014 और 2019 में मोदी ने 25 की 25 सीटें जीती थीं। लेकिन इस दफा कम से कम चार-पांच सीट भाजपा के हाथ से निकल रही है। और मेरी यह कसौटी है कि यदि लाखों के अंतर से जीतने वाली सीटों के प्रदेश राजस्थान में भाजपा चार सीट भी हारती है तो उस उत्तर प्रदेश में क्या हो रहा होगा, जहां 2019 में भाजपा ने कोई 11 सीटें पांच प्रतिशत से कम वोटों से जीती थी। वही पंद्रह सीटें पांच से दस प्रतिशत वोटों के अंतर से जीती थी। जबकि इस चुनाव में तो मुसलमान का कंफ्यूजन दूर है।

पहले की तरह बसपा-ओवैसी का वोटकटवा रोल नहीं होगा। फिर दलित और आदिवासी जब राजस्थान, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़ में बांसवाडा, मंडला, झाबुआ, छिंदवाड़ा, करौली, बस्तर जैसी सीटों पर कम या अधिक मतदान में भाजपा के लिए मुसीबत है तो इन प्रदेशों से कई गुना अधिक जातिवादी प्रदेश यूपी, बिहार, झारखंड में क्या होगा? क्या यूपी में भाजपा 64 सीटें वापिस जीत लेगी?

लब्बोलुआब चावल का एक दाना, सात राउंड के चुनाव के पहले दो राउंड वे संकेत दे रहे हैं जो 2004 में थे। तभी समय का कमाल देखें, जो पंद्रह दिन में नरेंद्र मोदी की भाषा बदल गई। याद करें 2014 के नरेंद्र मोदी को, तब वे खुद हर, हर मोदी लिए हुए थे और अब वे घर-घर राहुल गांधी को पहुंचा रहे हैं। मरी हुई कांग्रेस को जिंदा कर दिया है। दिन-रात मुसलमान-मुसलमान के निगेटिव प्रचार का रोना-धोना हैं। न अबकी बार चार सौ पार का नारा अब गूंज रहा है और न भाषण में मोदी की गांरटी है।

अब तो वे अपने (मोदी की गांरटी या मैं) और भाजपा का नाम छोड़कर बोलने लगे हैं कि ‘एनडीए’ आएगी तो एनडीए यह करेगी, वह करेगी। वे छतीसगढ़ में रात गुजार रहे हैं तो अमित शाह भोपाल के ताज होटल में रात गुजारते हुए भाजपा कार्यकर्ताओं का हडका रहे है तो राजगढ़ की बिगड़ी सीट को सुधारने के लिए दिग्विजय सिंह के यहा जाने को मजबूर है।  सोचें, उस मध्य प्रदेश, छतीसगढ़ में मोदी-शाह का दो-चार सीट गंवाने की चिंता में रात में सोना नहीं, जहां पंद्रह दिन पहले तक भाजपा द्वारा एक भी सीट गंवाने का दूर-दूर तक अनुमान नहीं था।

सो, उम्मीद रखिए और मानिए समय बलवान है। याद है न- तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान। भीलां लूटी गोपियां, वही अर्जुन वही बाण।

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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