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भारत अब कूटनीति भी दिखाता है!

कूटनीति गुपचुप मौन में होती है। पर इन दिनों भारत कूटनीति और सैन्य ऑपरेशन (आरपेशन सिंदूर) दोनों का एक सा प्रदर्शन कर रहा है। भारत अपनी कूटनीति को साउथ ब्लॉक के गलियारों की मौन रणनीति के मौन परिणामों से नहीं, बल्कि ड्रॉइंग रूम, फ़ोन की स्क्रीन और खाने की मेज़ों तथा फोटोशूट से दिखलाता है। विदेश नीति तभी विशिष्ट कूटनीतिज्ञों का कौशल और कला थी। लेकिन पिछले ग्यारह वर्षों में यह बदला है। इसका श्रेय निर्विवाद रूप से नरेंद्र मोदी को जाता है। जिस दिन वे विदेश की ज़मीन पर शोमैन के आत्मविश्वास के साथ उतरे — जयकारों का हाथ हिलाकर जवाब देते हुए, संयुक्त राष्ट्र में हिंदी बोलते हुए, शिखर सम्मेलनों को तमाशों में बदलते हुए — उसी दिन से भारत की विदेश नीति तमाशा राजनीति का हिस्सा है।

पहला कार्यकाल पूरी तरह से ऑप्टिक्स पर था: लगातार विदेश यात्राएँ, विश्व नेताओं के साथ फ़ोटो-ऑप, “नया भारत”  का वह हल्ला जिसमें दुनिया मानों भारत पर फिदा है। इसका फायदा यह हुआ कि आम भारतीय भी कंधे उचका कर ओबामा, ट्रंप, पुतिन, शी जिन पिंग सभी को भारत के प्रधानमंत्री का भक्त मान गौरवान्वित था।

दूसरे कार्यकाल में, और जैसे ही दुनिया भर में युद्ध भड़कने लगे, यह जुड़ाव और गहरा हुआ। भारतीय लोग लड़ाईयों को फ़ॉलो करने लगे, यहाँ तक कि आधे-अधूरे सचों को भी पकड़कर—जैसे वह गढ़ी हुई कहानी कि रूस ने यूक्रेन पर हमला रोककर भारतीय छात्रों को सुरक्षित निकलने दिया। मतलब जो कभी दूर था, वह व्यक्तिगत और लगभग सिनेमाई बन गया। विदेश नीति अब केवल संधियों और व्यापारिक समझौतों का नक्शा नहीं रही, बल्कि राष्ट्र के लिए कहानी बन गई—हर इशारा घरेलू दर्शकों के लिए बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया।

भारत ने जब G20 की मेज़बानी की, तो उसे केवल एक और सम्मेलन की तरह नहीं देखा गया। उसे तमाशे में बदल दिया गया—वैश्विक मंच के लिए और घरेलू गौरव के लिए। विश्व के मामलॉ अब थिंक टैंकों, शोधकर्ताओं, कॉरपोरेट्स या नेताओं की बपौती नहीं रही, बल्कि राष्ट्रीय उत्सव की तरह गढ़ी गई। इसे ओलंपिक जैसे भव्य आयोजन की तरह पेश किया गया—जहाँ नीति से ज़्यादा प्रदर्शन था।

यही है भारत की नई विदेश नीति की रूपरेखा: कूटनीति को तमाशे में बदलना, और राजनीति की तरह पेश करना। अगर अमित शाह घरेलू राजनीति और चुनावी गणित को बारीकी से सँभालते हैं, तो एस. जयशंकर देशों, राजदूतों और कूटनीतिज्ञों को भाजपा के हित में उसी तरह सँभालते हैं जैसे मोदी और शाह आम जनता से जुड़ने के लिए सादी हिंदी बोलते हैं, वैसे ही जयशंकर वैश्विक मंच पर छोटे-छोटे, तीखे वाक्यों में बोलते हैं—जिससे विदेश नीति सहज और सहभागी लगती है। यों विचार में बुराई नहीं है। लेकिन जैसे शाह की राजनीति मतदाता को एक ही स्क्रिप्ट में बाँध देती है, कल्पना और विकल्पों को कुचल देती है, वैसे ही जयशंकर की शैली विदेश नीति को भी संकुचित कर जाती है—विकल्पों को धुँधला, नागरिकों को भ्रमित और कूटनीति को विकल्पहीन प्रदर्शन में बदलकर।

देखिए मौजूदा परिदृश्य। भारत आज ट्रंप से नाराज़ है, क्योंकि ट्रंप मोदी—और भारत—से नाराज़ हैं। नतीजा: भारतीय निर्यात पर 50 प्रतिशत टैरिफ। अर्थशास्त्री कह सकते हैं असर सीमित होगा, लेकिन चोट साफ़ महसूस हो रही है। पर अर्थशास्त्र से परे, सामाजिक और सांस्कृतिक असर और गहरा है। मोदी सरकार स्वदेशी के आह्वान के साथ नागरिकों से कह रही है: “अमेरिका का बहिष्कार करो।” और यह राष्ट्रवादी मानसिकता वाले नागरिकों—जो आज लगभग हर कोई है—को अजीब दुविधा में डाल देता है: मैकडॉनल्ड्स और कोक को छोड़ो, नेटफ़्लिक्स और स्टारबक्स से किनारा करो, एडिडास को नकारो और शायद हॉलीवुड को भी।

यह पैटर्न नया नहीं है। नागरिक पहले भी यह भुगत चुके हैं। कभी टिकटॉक और चीनी ऐप्स, कभी मालदीव और उसके समुद्रतट, कभी तुर्की और उसका नेता, और पाकिस्तान तो हमेशा सूची में। हर बहिष्कार उत्साह, हैशटैग और छाती ठोकने से शुरू होता है, लेकिन जल्दी ही रोज़मर्रा से टकरा कर ढह जाता है—भारतीय उपकरणों में चीनी स्क्रू, भारतीय कारखानों में विदेशी रसायन, भारतीय मॉल में विदेशी ब्रांड। जो संकल्प देशभक्ति से शुरू होता है, वह चयनात्मक विस्मृति में समाप्त होता है।

यह चक्र जनता को भ्रमित करता है। आज भारत का असली दुश्मन कौन है? कौन सा देश अपनाना सुरक्षित है, कौन सा ब्रांड उपभोग करना सुरक्षित है? विदेश नीति मूड स्विंग्स में बदल गई है—घरेलू राजनीति के लिए प्रस्तुत, राष्ट्रवाद के पैकेज में बाँधी हुई। आम नागरिक के लिए यह विरोधाभास का रंगमंच बन गया है: अमेरिकी कॉफ़ी पीते हुए अमेरिका को कोसना, चीनी स्क्रीन पर बैठकर चीन के बहिष्कार के नारे लगाना, मालदीव की छुट्टियाँ बुक करते हुए मालदीव के नेताओं को गाली देना।

ख़तरा केवल पाखंड का नहीं है—यह थकान का है। नागरिकों को यह विश्वास करने की आदत डाली जा रही है कि कूटनीति मनमर्जी पर चलती है: दोस्त जब दुश्मन बने तो बहिष्कार करो, और जो पहले दुश्मन था उसे दोस्त बना लो। लेकिन विदेश नीति तमाशा नहीं है। यह अनुशासन है—निरंतरता, विश्वसनीयता और विश्वास के धीमे संचय पर आधारित। कूटनीति हैशटैग और हैंडशेक से नहीं चलती; यह व्यापार वार्ताओं, ऊर्जा मार्गों की सुरक्षा, दीर्घकालिक गठबंधन, युद्ध रोकने और अस्थिर दुनिया में स्थिरता बनाने का काम है।

जयशंकर की शैली ने इसे तेज़ पलटाव के तमाशे में बदल दिया है—कभी पुतिन के साथ कंधे से कंधा, तो अगले दिन यूक्रेन के लिए गांधी का हवाला। कभी मालदीव के बहिष्कार के नारे, तो अगले महीने खाड़ी के शासकों के लिए लाल कालीन। यह तमाशे घरेलू दर्शकों को रोमांचित कर सकते हैं, पर विदेश में साझेदारों को असहज करते हैं, जिन्हें प्रदर्शन नहीं बल्कि पूर्वानुमान चाहिए। समस्या व्यावहारिकता नहीं है—वह ज़रूरी है। समस्या प्रदर्शन है। जब विदेश नीति को तालियों के लिए मंच बना दिया जाता है, तो जोखिम यही है कि कूटनीति खोखली हो जाएगी। नागरिकों को रणनीति पर बहस करने के बजाय वफ़ादारी की झूलती लहरों पर चीयर करने की आदत पड़ जाती है। भारत भावुक, अप्रत्याशित और अविश्वसनीय दिखता है—वैसा नहीं जैसा किसी महाशक्ति को दिखना चाहिए।

तो आज भारत की विदेश नीति क्या है? यह व्यवहारिकता और प्रदर्शन का मिश्रण है—गणना में यथार्थवादी, प्रस्तुति में नाटकीय। जयशंकर ने इसे सीधेपन की भाषा दी है, मोदी ने इसे जन राजनीति का रंगमंच। मिलकर उन्होंने भारत को पहले से कहीं ज़्यादा ऊँचा और दृश्यमान बनाया है। लेकिन विश्वसनीयता के बिना दृश्यता ख़तरनाक मुद्रा है। अगर रणनीति तमाशे में बदलती रही, तो भारत पाएगा कि घरेलू तालियाँ विदेश में विश्वास की क़ीमत पर आती हैं। और भू-राजनीति की निर्मम गिनती में भ्रम का उत्तर सम्मान से नहीं, बल्कि तब भविष्य में अलगाव से, अछूत होने का मिलता है।

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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