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इतिहास राख में ही लोटपोट रहता है!

दुनिया हमेशा धुएँ की हल्की-सी गंध में जीती आई है, कुछ स्मृति से उठती, कुछ स्थाई या घटना विशेष से जलती हुई। यदि इतिहास से उसका रोमांच निकाल दे, तो जो बचता है वह बस मलबा है विरासत के वस्त्रों में सजा हुआ। ट्रॉय की राख, यूरोप की खाइयाँ, हिरोशिमा की चमक, काबुल की धूल।

हर सदी शांति के प्रवचन से शुरू हुई। पर खत्म विनाश पर हुई। हथियार बदले हैं, तलवारें अब ड्रोन हैं, उपनिवेश अब “क्लाइंट स्टेट”, जबकि प्रवृत्ति वही है: वर्चस्व की, जिसे नियति के नाम पर पेश किया जाता है। चारों ओर देखिए। दुनिया फिर घावव भरे नक्शे जैसी दिखती है। ग़ाज़ा के मोहल्ले मलबे में हैं, यूक्रेन की खाइयाँ थकान में जमी हैं, सूडान के शिविर भूख में सूख रहे हैं, और म्यांमार के जंगल बिना गवाहों के जल रहे हैं।

अलग महाद्वीप, वही कोरियोग्राफी, व्यवस्था का पतन, संवेदना का क्षरण, और युद्ध का सुविधाजनक सामान्यीकरण। हम इसे जियोपॉलिटिक्स कहते हैं, पर सच में यह पतन है, बस बेहतर तकनीक के साथ। मानवता आगे नहीं बढ़ रही, बस अपने ही दोषों के चक्कर काट रही है, शालीनता से, हथियारों से लैस, ऑनलाइन, और उदासीन।

हर युग ने अपने युद्धों के लिए नई भाषा गढ़ी है। ग्रीक सम्मान के लिए लड़े, क्रूसेडर धर्म के लिए, साम्राज्य सभ्यता के नाम पर, और शीतयुद्ध की ताक़तें आज़ादी के लिए। बीसवीं सदी ने शपथ ली थी कि, “कभी नहीं फिर।” दो विश्वयुद्ध, औश्वित्ज़, हिरोशिमा, ये सब अमानवीयता के अंत की घोषणा माने गए। संस्थाएँ बनीं, संधियाँ लिखी गईं, और शांति की भाषा धर्मग्रंथों की तरह दुहराई गई। पर हम फिर लौट आए हैं, सुरक्षा, व्यवस्था और ईश्वर के नाम पर हत्या करने। कुछ ही दशकों में वियतनाम, रवांडा, इराक़, सीरिया और अब ग़ाज़ा, यूक्रेन, म्यांमार। हर युद्ध का अपना कारण है, पर सब मिलकर एक पैटर्न बनाते हैं, दुनिया बार-बार अपने ही बुरे स्वभाव में लौट आती है, हर बार यह सोचकर कि यह नया है।

शायद यह अन-लर्निंग का युग है, जहाँ हम ज्ञान उतनी ही सहजता से छोड़ देते हैं जितनी आसानी से किसी त्रासदी पर स्क्रोल कर आगे बढ़ जाते हैं। हर युद्ध विराम अस्थायी लगता है, हर आक्रोश क्षणिक, हर नक्शा राजनय से नहीं, निराशा से बदलता है। दुनिया हर बार उसी संकट को नए हैशटैग के नीचे रीबूट करती है। ग़ाज़ा में युद्धविराम की लौ बस झिलमिलाती है, फिर बुझ जाती है, एक विराम जिसे लोग शांति समझ बैठते हैं।

यूक्रेन में युद्ध मौसम जैसा हो गया है भविष्यवाणी किया जाने वाला, झेला जाने वाला, और अब सामान्य। म्यांमार में लोकतंत्र अब एक व्यंग्य की तरह खेला जा रहा है जहाँ चुनाव राख और हवाई हमलों के बीच घोषित हो रहे हैं। हर संघर्ष अपने औचित्य का अभिनय करता है, पर कोरियोग्राफी एक ही है, विनाश नीति बन चुका है, मौन रणनीति, और शक्ति प्रदर्शन।

हम इन घटनाओं को क्षेत्रीय कहते हैं, जैसे भूगोल दुःख को सीमित कर सके। पर सीमाएँ अब पीड़ा नहीं रोकतीं; वे बस उसे बाँट देती हैं।

ग़ाज़ा में जो होता है, उसकी गूँज कीव में सुनाई देती है; म्यांमार में जो जलता है, उसकी हल्की रोशनी वैश्विक चेतना में टिमटिमाती है, फिर एल्गोरिद्म के अंधेरे में खो जाती है।

मानवता अब ऐसे ही जीती है संवेदना और विस्मृति, आक्रोश और उदासीनता के चक्र में। हम शांति को इसलिए नहीं खोते कि हम उसे संभाल नहीं सकते, बल्कि इसलिए कि अब शांति लाभदायक नहीं रही। दुनिया अब विस्फोटों से नहीं, उदासीनता से खत्म होती है। न कोई मशरूम क्लाउड, न घोषणापत्र, बस थकान, जो सामान्यता का रूप ले लेती है।

इतिहास बताता है पतन कभी अपनी घोषणा नहीं करता। रोम को पता नहीं चला कि वह गिर रहा है, जब तक वह गिर नहीं गया। यूरोप को एहसास नहीं हुआ कि वह मर रहा है, जब तक उसकी खाइयाँ अपने बेटों से भर नहीं गईं। आज का भ्रम भी वैसा ही है कि परमाणु हथियार सिर्फ़ रोकथाम हैं, अंत नहीं, कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस क्रूरता से ऊपर सोच पाएगी, न कि उसे और तेज़ करेगी, कि पृथ्वी जल सकती है और फिर भी हमें माफ़ कर देगी।

पर अगर इस बार यह चक्र पुनर्जन्म में नहीं, विनाश में टूटे तो? अगर जिन युद्धों के साथ हमने जीना सीख लिया —डिजिटल, वैचारिक, जलवायु — वही मिलकर कुछ और बड़ा, अंतिम रूप ले लें तो?

ऑरवेल ने लिखा था — “किसी समाज को नष्ट करने का सबसे प्रभावी तरीका है उसकी अपनी इतिहास की समझ को मिटा देना।” आज यह विनाश वैश्विक है। स्मृति अब व्यर्थ समझी जाने लगी है। हम एक संकट से दूसरे में बढ़ते हैं, बिना ठहराव, बिना मनन, जैसे भूलना ही अब जीने का एकमात्र तरीका रह गया हो।

शायद यहीं इतिहास रूपकों से खाली हो गया है। दुनिया विनाश के हर रूप का रिहर्सल कर चुकी है, प्राचीन, परमाणु, एल्गोरिद्मिक, और फिर भी यह मानती है कि वह नया अंत लिख सकती है। पर अब कोई विजेता नहीं बचे जो अगला अध्याय लिख सके। बस बचे हैं थके हुए जीवित लोग, जिनमें पढ़ने की ताक़त तक नहीं बची। शायद यह दुनिया का अंत नहीं, बस उस भ्रम का अंत है कि हम इसे बार-बार तोड़ सकते हैं और फिर से शुरू कर सकते हैं। अब जो प्रश्न बचा है, वह यह नहीं कि कौन जीतेगा, बल्कि यह कि क्या अब कुछ ऐसा बचा भी है जिसे जीतना सार्थक हो?

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By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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