nayaindia Uniform Civil Code सरकार ने क्यों नहीं नौवर्षों में समान नागरिक संहिता बनवाई?

सरकार ने क्यों नहीं नौ वर्षों में समान नागरिक संहिता बनवाई?

कैसी बेहूदगी है! नौ वर्षप्रधानमंत्री पद पर रहने के बाद नरेंद्र मोदी अब बात कर रहे हैं कि एक घर, दो कानून नहीं चलेगा!भला उन्हें किसने रोका था, संविधान के इस निर्देशक सिद्धांत (अनुच्छेद44) केसंकल्प में अमल से? दो टूक यहभी सत्य है कि सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कॉमन सिविल कोड बनाने के लिए कहा है। बकौल खुद नरेंद्र मोदी-सुप्रीम कोर्ट डंडा मारता है…लेकिन वोट बैंक के भूखे लोग अड़ंगा लगा रहे हैं! लेकिन हम चाहते हैं!

तो रोका किसने और कब था? क्या मोदी सरकार लोकसभा-राज्यसभा में एक देश, एक विधान के कानून प्रस्ताव की मंजूर नहीं करा सकती? क्या राष्ट्रपति उस पर दस्तखत नहीं करेंगे? क्या वैसी कोई बाधा है जैसी पंडित नेहरू जब हिंदू कोड बिल पास करा रहे थे तब तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद का मन नहीं मान रहा था?

ऐसी कोई बाधा, कोई किंतु-परंतु नरेंद्र मोदी और अमित शाह, भाजपा-संघ-संविधान-सुप्रीम कोर्ट की ओर से नहीं है। एक देश, एक विधान के संकल्प में ही गृहमंत्री अमित शाह ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाई (हालांकि इस मामले में भी कुछ और राज्यों के विशेष दर्जे की धाराओं को हटाए बिना)। राज्य का पुर्नगठन किया। तब क्यों व्यर्थ में अब कानून और व्यवस्था की अलग-अलग असमानताओं, दर्जे को मिटाने में नरेंद्र मोदी और अमित शाह विरोधी दलों व मुसलमानों को ललकार रहे हैं?क्यों नहीं बिना हल्लेबाजी के संसद में सीधे रखें नए कानून का प्रस्ताव और उसे पास करा कर अपने आपको बुनियादी परिवर्तनकारी, प्रगतिशील साबित करें?रूढिवादियों, अंधविश्वासियों व परंपरावादियों पर हथौड़े चलाएं।

संविधान से साफ निर्देश है। सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है और सुप्रीम कोर्ट की मौजूदा तासीर में तो समान लिंग में विवाह पर विचार तक की हिम्मत है तो भला समान नागरिक संहिता का कानून बनाने पर क्यों मोदी व भाजपा को विपक्ष पर दोषारोपण करना चाहिए?क्यों मुस्लिम-आदिवासी और कठमुल्ला हिंदू संगठनों की परवाह करनी चाहिए? क्योंकर यह नौटंकी है जो राज्य सरकारों में अलग-अलग प्रस्ताव से नागरिक संहिता बनाने का ढोंग रचा जा रहा है?

इसलिए क्योंकि बातें बनाकर, मुसलमान के विरोध का हल्ला बना कर हिंदुओं में इन्हें अपनी वोट राजनीति पकानी है। पूरे देश में हल्ला बना रखा है कि मुसलमान ज्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं। इनकी आबादी को रोकना जरूरी है। इसलिए भारत के हर नागरिक को देश के एक कानून से परिवार-जीवन को एक विधान में, शादी, तलाक, संपत्ति के मामले को एक सांचे में ढालेंगेतभी मुसलमानों की आबादी बढ़ना रूकेगी। मतलब यह कि समान नागरिक संहिता मुसलमान की आबादी को रोकने का ब्रह्मास्त्र है। यदि ऐसा है तो मोदी सरकार ने नौ वर्ष से इस कानून का डंडा हवा में क्यों लटका रखा है? इसका कानून क्यों नहीं बना डाला?

इसलिए ताकि मुसलमान, कांग्रेस और विपक्ष के विरोध का हल्ला बने। मीडिया में फिजूल शोर होता रहे और वोट के मामले में हिंदू गोलबंद बना रहे। ओवैसी का विरोध, मुस्लिम संगठनों की हवाबाजी से हिंदू दिल-दिमाग में क्योंकि भभका बनता है तो उन्हें उकसाए रहो और बातें बना कर हिंदुओं को बेवकूफ बनाओ!

अपनी गारंटी है कि इसी मॉनसून सत्र में यदि मोदी सरकार नागरिक संहिता बिल रखे और अमित शाह अनुच्छेद 370 जैसी फुर्ती दिखा कर लोकसभा-राज्यसभा में बहस व जवाब दे कर संसद का ठप्पा लगाएं तो जुलाई के महीने में ही राष्ट्रपति के दस्तखत सहित समान नागरिक संहिता कानूनी तौर पर संविधान में स्थान लिए होगी। गारंटी है कि न कांग्रेस इसके खिलाफ वोट करेगी और न आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी या वामपंथी पार्टी!

पर ऐसा होगा नहीं? और यदि दिखावे के लिए मोदी सरकार ने संसद में कोई प्रस्ताव रखा भी तो वह चूं-चूं का मुरब्बा होगा। इसलिए कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह, भाजपा और संघ को हिंदू वोटों की चिंता पहले है। और इसमें तय मानें कि समान नागरिक संहिता के जो तीन तत्व (विवाह-तलाक-संपत्ति) हैं उसमें हिंदू जीवन की बुनियाद भी फंसी है? सोचें, ईमानदारी से सोचें कि हिंदुओं के सेठ, गुजराती-मारवाड़ी-बनिया-ब्राह्मण-जाट-पिछड़ा-दलित-आदिवासी क्या अपने उत्तराधिकार में संतान, लड़के-लड़की में संपत्ति में बराबर के बंटवारे के नियम-कानून मानेंगे? क्या हिंदू विवाह और तलाक की इस आधुनिक-प्रगतिशील व्यवस्था के लिए तैयार हैं कि विवाह बंधन तब तक जब तक मियां-बीवी राजी? और जब रजामंदी खत्म तो शादी वैसे ही सहज खत्म जैसे अमेरिका, पश्चिमी देशों याकि आधुनिक-प्रगतिशील समाजों में है! पति-पत्नी अपने अलग-अलग रास्तों में नई गृहस्थी बसाएंगे!

हां, अंबानी हों या अडानी या भारत का खेतिहर सामान्य हिंदू परिवार, सब संपत्ति के बंटवारे, उत्तराधिकार में या हिंदू संयुक्त परिवार, एचयूएफ में बेटों में जो संपति याकि विरासत बांटते हैं वह समान नागरिक संहिता के बाद बेटियों में बराबरी के वितरण की बाध्यता वाली होगी। पुत्र व पुत्री के लिए समान व्यवस्था। विवाह पंजीकरण,लिव इन रिलेशनशिप, समान लिंग यौन व्यवहार, समान लिंग शादी, विवाह आयु सीमा, तलाक के बाद पत्नी व बच्चों के भरण पोषण की व्यवस्था, पहली पत्नी के बच्चों को भी बराबर के अधिकार, एक तरफा तलाक तथा हलाला पर रोक के साथ में सबकुछ बरबार समान अधिकारों के साथ। इसमें जरा भी ऊंच नीच का कानून बना जैसे यदि महिला की इच्छा को तरजीह जैसी व्यवस्थाएं बनी तो भारत के 140 करोड़ लोगों में हर परिवार और उसके जीवन पर विनाशकारी प्रभाव बनेगा। हर घर अदालत के दरवाजे बैठा होगा। समान नागरिक संहिता में नंबर एक पेंच यह है कि पुरूष व स्त्री को समान अधिकार मिले, बिना कथित महिला सशक्तिकरण, सामाजिक न्याय, विशेषाधिकार के बारीक मगर गहरे सामाजिक जुमलों के। क्या संघ-भाजपा-मोदी-शाह में सोचने की, ऐसी समानता बनाने की है हिम्मत, दूरदृष्टि?

मेरा मानना था, है और रहेगा कि पूरे देश में घर-परिवार-जीवन के लिए एक से नागरिक कानून होने चाहिए और इस फालतू के झमेले में नहीं उलझना चाहिए कि आबादी में फलां-फलां वर्ग या वर्ण में लोग क्या-क्या सोचेंगे? ऐसी चिंताए करनी ही नहीं चाहिए। जब पंडित नेहरू ने हिंदू बिल कोड पास करा कर ठानी तो उसके पीछे भारत के सनातनी जीवन को वक्त अनुकूल प्रगतिगामी बनाना था वैसे हीमोदी-शाह को एक भारत-श्रेष्ठ भारत के अपने जुमले में पंडित नेहरू जितनी हिम्मत तो दिखानी चाहिए।

बहुसख्यक, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों याकि कथित वोट बैंकों की चिंता छोड़ भारत को यूरोप, अमेरिका, ब्रिटेन जैसी समान नागरिक संहिता की व्यवस्था में स्त्री-पुरूष और परिवार की बेसिक संरचना को समानता (न किसी को तरजीह, स्त्री-पुरूष के बराबर अधिकार, बिना सशक्तिकरण, तुष्टीकरण के) की कसौटी में ढाला तो अपने आप पच्चीस साल बाद भारत की समाज रचना बदली हुई होगी। मुसलमान भी तुर्की या यूरोप के मुसलमान जैसे स्त्री-पुरूष समानता जैसी जिंदगी जीता हुआ होगा तो हिंदुओं के तमाम वर्ग-वर्ण स्त्री-पुरूष की आधुनिकता में जाति और कुनबे की रूढ़ियों से बाहर निकले हुए होंगे। हिंदू तब रियल सनातनी जीवन जीते हुए होगा।

लेकिन न नरेंद्र मोदी सेकुलर पंडित नेहरू हैं और न जातनिरपेक्ष हिंदुत्ववादी सावरकर। वे वोटों के सौदागर हैं। उन्होंने पिछले नौ साल वोट की राजनीति में अपने अवसर गंवाए हैं। उनका पूरा कार्यकाल अल्पकालिक-तात्कालिक जीत-हार,सत्ता खोने या घटने के भय में नस्ल और देश को डराने या व्यर्थ के प्रंपचों, टोटकों, विश्वगुरू जैसी मूढ़ताओं में जाया रहा है। इसलिए नोट रखें समान नगारिक संहिता का उनका एजेंडा या तो छलावा होगा या चूं-चूं का मुरब्बा!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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