हम बाँझ हो रहे हैं!
पर सवाल यह है कि क्या हम बाँझ हो रहे हैं या हो चुके हैं? और उससे भी बड़ा सवाल यह कि बाँझ होना आखिर है क्या? मेरा मानना है, बाँझपन को केवल स्त्री या पुरुष की संतान उत्पन्न करने की अक्षमता के अर्थ में नहीं, बल्कि बंजरता, अनुत्पादकता, नाकाबिलियत और असमर्थता के उस गहरे अर्थ-भाव में समझना चाहिए जहाँ जीवन केवल चलता है, पर कुछ रचता नहीं। हम इसकी प्रक्रिया में हैं! और ‘हम’ का अर्थ? हम हिंदू! हिंदू समाज, उसकी भीड़, उसका भविष्य! दिक्कत यह है कि भीड़ की भेड़चाल में हम कुल आबादी के उन आंकड़ों में जीते...