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भारत में मुसलमान ज्यादा सुरक्षित

भारत में सभी प्रकार के मुसलमानों को समान और कुछ मामलों में अधिक संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। देश में लगभग 22 करोड़ मुसलमान हैं। पिछले सात दशक में उनकी आबादी सर्वाधिकसात गुना से अधिक बढ़ चुकी है। अगर भारत सच में मुसलमानों के लिए असुरक्षितहै, उनकी आबादी कैसे बढ़ी?

क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौर में भारतीय मुसलमान सताए जा रहे हैं? क्या वे स्वयं को ‘असुरक्षित’ महसूस करते हैं? इतिहास का वह कौन-सा दौर था, जब इस भूखंड के मुसलमानों ने खुद को पूरी तरह ‘सुरक्षित’ माना था? क्या गांधीजी और पं।नेहरू के समय हालात अलग थे? आखिर इस ‘असुरक्षा’ की जड़ें कहां है? पिछले दिनों दो घटनाओं ने इस चर्चा को फिर से तेज कर दिया कि ‘मुस्लिम असुरक्षा’ का नैरेटिव कितना भ्रामक, विभाजनकारी और दोहरे मानदंडों पर टिका है।

गत 5 दिसंबर को मुस्लिम गर्भवती सुनाली खातून अपने एक बेटे के साथ मानवीय आधार पर भारत लौट आई। 18 जून को उसे दिल्ली में अवैध अप्रवासी के रूप में परिवार सहित बांग्लादेश भेज दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद सुनाली की भारत वापसी संभव हुई। स्वयंभू सेकुलरवादी और वाम-उदारवादी इस घटनाक्रम से उत्साहित है और इसे “ऐतिहासिक” बता रहे है। इस दौरान शीर्ष अदालत में यह भी मुकदमा चल रहा है कि रोहिंग्या शरणार्थी हैं या राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा पैदा करने वाले अवैध घुसपैठिए।

गर्भवती खातून भारत में बच्चे को जन्म देना चाहती है और स्वघोषित सेकुलर कुनबा इसे मुसलमानों के ‘भारत-प्रेम’ से जोड़ रहा है। इसी जमात की यही सहानुभूति अवैध रूप से देश में बसे रोहिंग्याओं और बांग्लादेशियों के लिए भी झलकती है। विडंबना देखिए— यही तबका पिछले एक दशक से दुनियाभर में भारत को “मुस्लिम-विरोधी”, “असुरक्षित” और “असहिष्णु” बताकर बदनाम कर रहा है। यदि भारत मुसलमानों के लिए इतना ‘खतरनाक’ है, तो गर्भवती सुनाली खातून की भारत में बच्चे पैदा करने की इच्छा को क्यों सराहा जा रहा है? क्यों अवैध रूप से घुसे रोहिंग्या-बांग्लादेशी मुस्लिमों को भारत में बसाने की मांग उठाई जा रही है?

वास्तव में, यह औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त वर्ग की प्रधानमंत्री मोदी के प्रति गहरी नफरत है, जिसमें यह सच ढकने का प्रयास किया जा रहा है कि इस भूक्षेत्र के मुसलमानों में ‘असुरक्षा’ की भावना लगभग 300 वर्षों से व्याप्त है। वर्ष 1707 में औरंगजेब की मौत पश्चात इस्लामी ताकतों का हिंदुओं-बौद्ध-जैन-सिख आदि गैर-मुस्लिमों पर अत्याचार करने का राजनीतिक सामर्थ्य घट गया। इससे बेचैन मौलवी शाह वलीउल्लाह, जिसकी प्रेरणा से तालिबान का जन्म हुआ— उसने अफगान शासक अहमद शाह अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने का बुलावा भेजा, ताकि ‘काफिर’ मराठों पर ‘इस्लामी राज’ फिर से कायम हो सके। पानीपत की तीसरी लड़ाई (1761) में अब्दाली को स्थानीय मुस्लिमों का समर्थन मिला और मराठा हार गए। इसके बाद पहले से कमजोर मराठा दिल्ली (1803) में अंग्रेजों से भी पराजित हो गए। यदि वलीउल्लाह के निमंत्रण पर अब्दाली भारत पर हमला नहीं करता, तो इतिहास शायद अलग होता।

अंग्रेजों ने 1857 जैसी क्रांति से बचने और अपने शासन को शाश्वत बनाने के लिए ‘बांटों और राज करों’ की नीति अपनाई। मुस्लिम नेतृत्व, जो अपना पुराना प्रभुत्व पाना चाहता था— वह मजहबी कारणों से अंग्रेजों का रणनीतिक सहयोगी बन गया। जब दोनों विश्वयुद्ध के बाद ब्रितानियों का बल घटा और उसका भारत से जाना अपरिहार्य हुआ, तो मुस्लिम पक्ष में फिर से ‘इस्लामी राज’ स्थापित करने की इच्छा प्रबल हुई। इसके लिए अंग्रेजों-वामपंथियों के सहयोग से नैरेटिव गढ़ा कि ‘हिंदू’ कांग्रेस के राज में “इस्लाम खतरे में” पड़ जाएगा।

1938 की पीरपुर समिति की रिपोर्ट में कांग्रेस को “मुसलमान-विरोधी” घोषित किया गया। आज यही जुमला कांग्रेस जैसी पार्टियां वामपंथियों और मुस्लिम रहनुमाओं के साथ मिलकर भाजपा-संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों के लिए इस्तेमाल करती हैं। गांधीजी, पं।नेहरू, सरदार पटेल और आचार्य कृपलानी— कोई भी मुस्लिमों की इस ‘असुरक्षा’ को दूर नहीं कर पाया और पाकिस्तान के रूप में भारत का खूनी विभाजन हो गया।

क्या पाकिस्तान, जिसे उसके सेना प्रमुख असीम मुनीर “मदीना के बाद कलमा की बुनियाद पर बनी दूसरी रियासत” कहते है— वहां मुसलमान ‘सुरक्षित’ है? देवबंदी ‘तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान’ और बरेलवी ‘तहरीक-ए-लब्बैक’ जैसे इस्लामी संगठन दीन के नाम पर ऐसी हिंसा पर उतर आते हैं, जिसमें मुसलमान ही मुसलमानों के हाथों मारे जाते हैं। शिया मस्जिदों पर बम धमाके आम हैं। अहमदिया मुसलमानों को मुस्लिम नहीं माना जाता। इसी तरह अफगानिस्तान में हजारा शियाओं का दमन और चीन में उइगर मुसलमानों का राजकीय उत्पीड़न जगजाहिर है।

इस पृष्ठभूमि में भारत में सभी प्रकार के मुसलमानों को समान और कुछ मामलों में अधिक संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। देश में लगभग 22 करोड़ मुसलमान हैं। पिछले सात दशक में उनकी आबादी सर्वाधिक— सात गुना से अधिक बढ़ चुकी है। अगर भारत सच में मुसलमानों के लिए ‘असुरक्षित’ है, उनकी आबादी कैसे बढ़ी? म्यांमार में तथाकथित उत्पीड़न झेलने वाले रोहिंग्या मुस्लिम क्यों भारत आ रहे है, जिन्हें बसाने की वकालत स्वयंभू सेकुलरवादी कर रहे है।

क्या भारत की यह उदार छवि ‘सेकुलर’ संविधान और उसके प्रावधानों की वजह बनी है? यदि हां, तो वही संविधान 1980-90 के दशक में मुस्लिम बहुल कश्मीर में हिंदुओं की रक्षा क्यों नहीं कर पाया? वर्ष 2019 में धारा 370-35ए हटने के बाद भी कश्मीरी पंडित क्यों घाटी में सुरक्षित महसूस नहीं करते? दरअसल, वर्तमान भारत में समरसता का कारण उसका अनादिकालीन बहुलतावादी हिंदू चरित्र है, तभी सदियों के कालखंड में भारतीय हिंदू-बौद्ध शासकों और जनता ने अपने-अपने देशों में प्रताड़ित सीरियाई ईसाइयों, यहूदियों, पारसियों का स्वागत किया। 629 ईस्वी में पैगंबर मोहम्मद के जीवित रहते अरब के बाहर भारत में बनी पहली मस्जिद (केरल स्थित चेरामन जुमा)— सह-अस्तित्व का एक बड़ा प्रतीक है।

वर्तमान भारत का सांप्रदायिक सौहार्द तब बिगड़ता है, जब मुस्लिम समाज का बड़ा वर्ग गजनवी, गौरी, बाबर, औरंगजेब, टीपू सुल्तान जैसे क्रूर आक्रांताओं को अपना नायक बताता है। अभी प।बंगाल में क्या हुआ? 6 दिसंबर को तृणमूल के निलंबित विधायक हुमायूं कबीर ने विदेशी मौलवियों और हजारों मुस्लिमों की मौजूदगी में उन्मादी नारों के बीच मुर्शिदाबाद में “बाबरी मस्जिद” का शिलान्यास किया। भारत में कानून-सम्मत किसी भी पूजास्थल से कोई आपत्ति नहीं है। परंतु मस्जिद की प्रेरणा बाबर से क्यों, जिसने राम मंदिर ध्वस्त कराया, हिंदू राणा सांगा को ‘काफिर’ कहकर जिहाद छेड़ा और स्वयं को ‘गाजी’ घोषित किया। जबतक मुस्लिम समाज का प्रभावी वर्ग इस्लामी आक्रांताओं को अपना आदर्श मानता रहेगा, तबतक मुस्लिमों में सदियों पुरानी ‘असुरक्षा’ की भावना बनी रहेगी।

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By बलबीर पुंज

वऱिष्ठ पत्रकार और भाजपा के पूर्व राज्यसभा सांसद। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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