हाल ही में ऑस्ट्रेलिया ने एक साहसिक प्रयोग शुरू किया है। 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर तालाबंदी। 10 दिसंबर से। दुनिया का पहला देश, जिसने सोशल मीडिया के प्रकोप से बचपन को बचाने की कोशिश की है। मुकम्मल तरीके से। लिहाजा दुनिया भर की निगाहें इस छोटे से महाद्वीप पर हैं। मानों किसी असाध्य मर्ज पर, किसी नई दवा का असर देखने की प्रतीक्षा कर रहे हो। सवाल यह नहीं कि यह क़ानून कितना सख़्त है। सवाल तो यह है कि इस सख़्ती के पीछे छिपा दर्द, डर और दुविधा किसकी है? बच्चों की, माता-पिता की या उस समाज की, जिसने अपने ही बच्चों को एल्गोरिद्म के हवाले कर दिया?
डॉ. देवेन्द्र नाथ तिवारी
यह फैसला किसी सामान्य नीति-बहस से नहीं, बल्कि दर्दनाक घटनाओं की शृंखला से निकला। इस साल की शुरुआत में 14 वर्षीय ओली बेनिस्टर ने आत्महत्या कर ली। टिकटॉक पर ‘परफेक्ट बॉडी’ के वीडियो देख देखकर उसे अपने ही शरीर से नफ़रत होने लगी थी। खाने से डर। शरीर से घृणा। सोशल मीडिया पर लगातार मिलने वाले अपमान ने उसे निगल लिया। ‘स्नैपचैट’ पर उसके लाल बालों का मज़ाक उड़ाने वालों में शायद किसी ने सोचा भी न होगा कि एल्गोरिद्म किस हद तक मनोवैज्ञानिक दबाव बना सकता है? ओली की मौत पर पूरी ऑस्ट्रेलिया द्रवित हुई। नई बहस शुरु हुई। प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीज़ ने सोशल मीडिया प्रतिबंध का जब ऐलान किया, तो मंच पर ओली की मां मिया बेनिस्टर उनके साथ थीं। उन्होंने कहा, “अब परिवार कंट्रोल वापस ले रहे हैं”। यह सामूहिक अपराधबोध की स्वीकृति है। अब आधुनिक समाज मान रहा है। बच्चों की परवरिश का ठेका उसने चुपचाप बाजार और स्क्रीन को सौंप दिया था।
ऑस्ट्रेलिया की सरकारी रिपोर्ट बताती है कि 10 से 15 वर्ष के 96 प्रतिशत बच्चे किसी न किसी सोशल प्लेटफ़ॉर्म पर हैं। उनमें से अधिकांश ने हिंसा, नफ़रत, शारीरिक हीनता और आत्महत्या को बढ़ावा देने वाला कंटेंट देखा है। लगभग हर दूसरे बच्चे ने ‘साइबर बुलिंग’ झेली है। हर सातवां बच्चा ‘ग्रूमिंग’ का शिकार हुआ है। जहां कोई वयस्क ऑनलाइन मीठी बातों में फंसाकर बच्चों से शोषण की कोशिश करता है।
ये आंकड़े सिर्फ़ डेटा नहीं, बल्कि उस अदृश्य रुदन की आवाज़ हैं, जिनमें एक पूरी पीढ़ी रात के सन्नाटे में मोबाइल की रोशनी के नीचे अकेली पड़ती जा रही है। डॉक्टरों का कहना है कि सोशल मीडिया ने किशोरों की भावनात्मक सेहत को गहरी चोट दी है। उनका ध्यान भटक रहा है। क्रोध-गुस्सा बढ़ रहा है। तुलना की बीमारी हर रिश्ते को निगल रही है। विशेषज्ञ मानते हैं कि शायद यह बैन बच्चों का बचपन लौटा सके। घरों में संवाद फिर से शुरू हो। पर मनोचिकित्सक चेता रहे हैं। यह प्रतिबंध तभी कारगर होगा जब इसके साथ भावनात्मक सहारा और संवाद भी जोड़ा जाए, वरना यह झटका बच्चों को और भीतर से तोड़ सकता है।
ऑस्ट्रेलिया का यह कानून ख़ास है। क्योंकि यह सीधे बच्चों पर नहीं, बल्कि कंपनियों पर जिम्मेदारी डालता है। ‘फेसबुक’, ‘इंस्टाग्राम’, ‘टिकटॉक’, ‘एक्स’ और ‘यूट्यूब’ जैसे प्लेटफॉर्म अब 16 से कम उम्र वालों के अकाउंट बंद करेंगे। नए अकाउंट बनने नहीं देंगे। यदि वे ऐसा करने में विफल रहे, तो उन्हें 4.95 करोड़ ऑस्ट्रेलियाई डॉलर तक का जुर्माना भरना पड़ सकता है।
लेकिन असल चुनौती है, आयु की जांच कैसे हो? टेक कंपनियां, ‘वॉटरफॉल सिस्टम’ अपनाने के बारे में सोच रही हैं। जहां एआई सेल्फ़ी का विश्लेषण कर चेहरे से उम्र का अनुमान लगाएगी। ज़रूरत पड़ने पर सरकारी आईडी या बैंक डाटा से पहचान की पुष्टि करेगी। निजता के पक्षधर इसे ‘हनीपॉट’ खतरा बता रहे हैं। एक ऐसा डेटा-भंडार, जो पूरी आबादी को स्थायी निगरानी के जाल में फंसा सकता है। बच्चों को बचाते-बचाते हम नागरिक स्वतंत्रता की नई कब्र न खोद दें, यह आशंका बेबुनियाद नहीं है।
दरअसल ऑस्ट्रेलियाई मानवाधिकार आयोग और मानसिक स्वास्थ्य संस्थाएं कह रही हैं कि यह कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार है। दो किशोरों ने तो सरकार के खिलाफ मुकदमा भी दायर किया है। उनका तर्क है कि सोशल मीडिया सिर्फ मनोरंजन नहीं, आत्म-अभिव्यक्ति और सामाजिक जुड़ाव का माध्यम भी है। खासकर एलजीबीटीक्यू समुदाय के युवाओं या दूरदराज इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए, जिनके पास जुड़ने का यही एक जरिया है।
सरकारी सर्वे में भी एक दिलचस्प तथ्य सामने आया। तीन-चौथाई बच्चों ने कहा कि वे किसी भी हाल में सोशल मीडिया नहीं छोड़ेंगे। कई बच्चों ने वैकल्पिक ऐप्स ढूंढना शुरू कर दिया है, जो प्रतिबंध की सूची में नहीं हैं। संकेत स्पष्ट है। यदि समाज बच्चों को विश्वास और संवाद के बजाय केवल निगरानी और दंड से नियंत्रित करना चाहेगा, तो बच्चे रास्ता बदलेंगे, मंज़िल नहीं।
ऑस्ट्रेलिया अकेला नहीं है। ब्रिटेन का ‘ऑनलाइन सेफ्टी एक्ट’ हानिकारक कंटेंट हटाने पर केंद्रित है। पर, उम्र सीमा तय नहीं करता। फ्रांस ने 15 वर्ष से कम बच्चों के लिए माता-पिता की अनुमति अनिवार्य की है। जर्मनी में 13-16 वर्ष के बीच के बच्चों को अभिभावक की मंज़ूरी जरूरी है। जबकि इटली में यह सीमा 14 वर्ष है। यूरोपीय संघ एक समान 16 वर्ष की डिजिटल उम्र तय करने की दिशा में बढ़ रहा है।
एशिया में चीन पहले ही ‘माइनर मोड’ लागू कर चुका है, जो स्क्रीन टाइम सीमित करता है। मलेशिया भी इसी दिशा में बढ़ रहा है। अमेरिका में फ्लोरिडा और यूटा जैसे राज्यों के क़ानून अदालतों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम सुरक्षा के प्रश्न पर अटके हैं। हर देश की दुविधा एक ही है। किसी भी अति से बचते हुए किशोरों के हित की रक्षा कैसे की जाए?
भारत के सामने परिदृश्य अलग है। यहां 40 करोड़ से अधिक बच्चे हैं। सोशल मीडिया मनोरंजन के साथ-साथ रोज़गार और पहचान का साधन भी बन चुका है। छोटे शहरों और कस्बों का ‘क्रिएटर इकोनॉमी’ उसी स्क्रीन से खड़ा हुआ है, जिसने दुनिया को भारत की नया डिजिटल सामर्थ्य दिखाया। ऐसे में ऑस्ट्रेलिया जैसी सख़्ती यहां असंभव लगती है।
फिलहाल भारत डिजिटल साक्षरता, ऑनलाइन सुरक्षा और मीडिया शिक्षा पर ज़ोर दे रहा है। यानी बच्चों को ‘डर से नहीं, समझ से’ सुरक्षित बनाने का रास्ता अपना रहा है। यही लोकतांत्रिक तरीका है। सरकार, परिवार, स्कूल और कंपनियां साझा ज़िम्मेदारी निभाएं, न कि एक-दूसरे पर दोष डालें।
ऑस्ट्रेलिया में प्रतिबंध लागू होने से पहले किशोरों ने अपने आख़िरी पोस्ट में लिखा, “अब हम दूसरी दुनिया में मिलेंगे”। किसी ने प्रधानमंत्री को अनफ़ॉलो करते हुए लिखा, “हम वापस आएंगे, जब वोट देने की उम्र होगी”। यह केवल किशोरों की जिद नहीं, लोकतंत्र की नई पीढ़ी की प्रतिक्रिया है, जो यह समझ रही है कि उसकी डिजिटल ज़िंदगी पर निर्णय कोई और ले रहा है।
दरअसल समस्या सोशल मीडिया नहीं, वह समाज है जिसने बच्चों के लिए घर से बड़ा वर्चुअल घर बना दिया। स्क्रीन का घर। जहां कोई जिम्मेदार नहीं, केवल मुनाफ़ाखोर बाज़ार है। बैन कुछ बच्चों की जान बचा सकता है, परिवारों को संवाद का अवसर दे सकता है। पर असली समाधान वहीं से शुरू होगा, जहां माता-पिता मोबाइल छीनने से पहले अपने बच्चे का हाथ थामें। सरकार निगरानी से पहले शिक्षा को मज़बूत करे। कंपनियां व्यसनी डिज़ाइन से जिम्मेदार तकनीक की ओर लौटें।
बच्चों के सामने आज दो दुनिया खड़ी हैं, एक वह, जो एल्गोरिद्म ने उनके लिए बना दी, और दूसरी वह, जिसे हम अपने मानवीय विवेक से फिर से बना सकते हैं। सवाल सिर्फ़ ऑस्ट्रेलिया का नहीं, पूरे मानव समाज का है। क्या हम इस प्रयोग को सिर्फ़ ‘बैन’ मानेंगे या इसे एक चेतावनी की तरह लेकर अपने घरों, स्कूलों और विधानसभा-संसद में बच्चों के लिए एक नई, संवेदनशील और ज़िम्मेदार डिजिटल संस्कृति की शुरुआत करेंगे? (लेखक संचार-संस्कृति अध्येता व दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक आचार्य हैं।)


