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नई सुरक्षा रणनीति और ट्रंप के दिवास्वप्न

ट्रंप के अनुयायी और अर्जेंटीना के धुर-दक्षिणपंथी राष्ट्रपति हैवियर मिलेय ने कुछ समय पहले कहा था कि दुनिया आज एक अलग ढांचे की ओर बढ़ रही है, जिसमें अमेरिका, रूस और चीन के नेतृत्व में अलग-अलग गुट होंगे। ट्रंप समझते हैं कि उस विश्व व्यवस्था में संयुक्त राज्य का समूह अमेरिका महाद्वीप है। ट्रंप प्रशासन की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति मिलेय के इस आकलन की पुष्टि करती दिखी है।

यह खबर दो-ढाई महीने पहले आई थी कि डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन ने नई राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति तैयार की है, जिसमें चीन से हटा कर अमेरिका का ध्यान प्रमुखतः पश्चिमी गोलार्द्ध (western hemisphere) पर केंद्रित करने की बात कही गई है। फिर मीडिया में चर्चा हुई कि इस रणनीति को लेकर प्रशासन के अंदर गहरे मतभेद हैं। बताया गया कि प्रशासन का एक बड़ा हिस्सा चीन को घेरने और उसका उदय रोकने की लगभग डेढ़ दशक से जारी रणनीति को आगे बढ़ाने की वकालत कर रहा है। शायद इसी ऊहापोह में कई हफ्ते गुजरे। नवंबर 2025 में जाकर इसे अंतिम रूप दिया जा सका। मगर उसे जारी करने में कुछ रोज और लगे। आखिरकार बीते पांच दिसंबर को इसे सार्वजनिक किया गया।

इस दस्तावेज पर गौर करें, तो मोटे तौर पर इससे ये सुर्खियां निकलती हैः

-ट्रंप प्रशासन का पश्चिमी गोलार्द्ध को सर्वोच्च प्राथमिकता देने और वहां ध्यान केंद्रित करने का संकल्प

-चीन को घेरना अब अमेरिका की प्राथमिकता नहीं, ट्रंप प्रशासन ने बताया उसे अपना प्रमुख प्रतिस्पर्धी

-ट्रंप की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में रूस के साथ रणनीतिक रिश्ता कायम करने पर जोर, यूक्रेन की बलि चढ़ाने को तैयार अमेरिका

-ट्रंप प्रशासन ने कहाः राजनीतिक अस्थिरता से ग्रस्त यूरोप में लोकतांत्रिक सिद्धांतों का उल्लंघन, यूरोपीय सभ्यता विलोप की ओर

-ट्रंप प्रशासन की नई राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में भारत को किया गया नजरअंदाज

(https://www.whitehouse।gov/wp-content/uploads/2025/12/2025-National-Security-Strategy।pdf)

हमारे लिए जो बात सबसे अहम है, वह सबसे आखिरी हेडलाइन है। दरअसल, विश्लेषकों ने कहा है कि ट्रंप प्रशासन की नई सुरक्षा रणनीति का सबसे बुरा प्रभाव क्रमशः यूरोप और भारत पर पड़ेगा। यूरोप की बात हम बाद में करेंगे। पहले अपने देश पर ध्यान दें। याद करें कि ट्रंप ने बतौर राष्ट्रपति अपने पहले कार्यकाल में जब 2017 में अपनी पहली राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति जारी की, तो उस समय भारत के बारे में उसमें क्या कहा गया था। 2017 में भारत को अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति में प्रमुख स्थान दिया था। कहा गया था: “हम भारत के एक अग्रणी वैश्विक शक्ति और मज़बूत रणनीतिक एवं रक्षा साझेदार के रूप में उभरने का स्वागत करते हैं।”

अब जारी रणनीति दस्तावेज में केवल इतना कहा गया है- अमेरिका को “भारत से व्यापारिक (और अन्य) संबंधों को सुधारते रहना चाहिए, ताकि भारत इंडो-पैसिफिक की सुरक्षा में योगदान दे सके, जिसमें क्वॉड भी शामिल है। पूरे दस्तावेज़ में क्वॉड यानी क्वाड्रैंगुलर सिक्युरिटी डॉयलॉग का केवल यही छोटा-सा उल्लेख है। मतलब यह कि अमेरिकी रणनीति में क्वॉड का महत्त्व भी गिर गया है। जबकि क्वॉड की सदस्यता ने ही यह इस धारणा को पुख्ता किया था कि भारत अब अमेरिकी सुरक्षा धुरी से जुड़ गया है।

वैसे ट्रंप प्रशासन की निगाह में क्वॉड की अहमियत घटने की बात पहले से जाहिर थी। भारत यात्रा के लिए ट्रंप के समय ना निकालने के कारण इस वर्ष क्वॉड शिखर सम्मेलन नहीं हुआ, जिसका मेजबान फिलहाल भारत है।

निष्कर्ष यह कि नए अमेरिकी दस्तावेज में भारत की रणनीतिक महत्ता को कम कर दिया गया है। फिर 2017 की रणनीति के विपरीत नए दस्तावेज़ में पाकिस्तान पर कोई कड़ी टिप्पणी नहीं है। 2017 में ट्रंप प्रशासन ने कहा था- हम पाकिस्तान पर दबाव डालेंगे कि वह अपने आतंकवाद विरोधी प्रयासों को तेज़ करे, क्योंकि कोई भी सहभागिता उस देश के साथ बनी नहीं रह सकती, जो साझेदार देश के ही सैनिकों और अधिकारियों को निशाना बनाने वाले उग्रवादियों और आतंकवादियों की मदद करता हो। मगर नए दस्तावेज में ऐसा कुछ नहीं कहा गया है। बेशक, यह भारत के नजरिए से एक निराशाजनक बात है।

फिर चीन का सवाल है। दरअसल, अमेरिकी आकलन में चीन को सबसे बड़ा खतरा या चुनौती मानना उसकी रणनीति में भारत के महत्त्व से जुड़ा पहलू रहा है। 2011 के बाद अमेरिका की निगाह में भारत का महत्त्व बढ़ा, तो इसी वजह से कि अमेरिका ने चीन को घेरने और उसका उदय रोकने के मकसद से ‘इंडो-पैसिफिक’ की नई रणनीति अपनाई।

मगर ट्रंप की नई राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में फिलहाल अमेरिका ने चीन को घेरने या उसका उदय रोकने को अपनी प्राथमिकता सूची में नीचे कर दिया है। इसकी वजह संभवतः उसका यह आकलन है कि चीन का उदय अब हो चुका है, जिसे रोकना फिलहाल संभव नहीं है। अगर अमेरिका को दुनिया पर वर्चस्व बनाए रखना है, तो इसके लिए उसे पहले अपनी औद्योगिक एवं उत्पादक आर्थिक शक्ति वापस पानी होगी। साथ ही उसके सामने चुनौती उस क्षेत्र में अपना प्रभाव बचाए रखने की है, जिसे तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जेम्स मनरो ने अमेरिका का प्रभाव क्षेत्र घोषित किया था। यह क्षेत्र लैटिन अमेरिका (और अब कैरीबियन द्वीप भी) हैं।

जेम्स मनरो ने 1823 में एलान किया था कि पूरा अमेरिका महाद्वीप संयुक्त राज्य का प्रभाव क्षेत्र है। उन्होंने यूरोपीय शक्तियों को चेतावनी दी थी कि वे उस इलाके में हस्तक्षेप ना करें, वरना उसे अमेरिका के खिलाफ शत्रुतापूर्ण कदम माना जाएगा। इसे ही Monroe Doctrine के नाम से जाना जाता है। लेकिन आज हकीकत यह है कि उस पूरे क्षेत्र में चीन ने अपने कदम पसार लिए हैँ। तो ट्रंप ने Monroe Doctrine में अपना पूरक सिद्धांत जोड़ा है, जिसे उन्होंने Trump Corrolary कहा है।

बहरहाल, अमेरिकी प्रशासन का आकलन है कि आज वह चीन के साथ व्यापार या अन्य युद्ध में शामिल रहते हुए Trump Corrolary के जरिए Monroe Doctrine की रक्षा की स्थिति में नहीं है। इसलिए फिलहाल चीन के साथ ‘युद्ध विराम’ कर लेना उसके हित में है। तो नई राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में चीन के प्रति द्वि-मार्गी (dual-track) नजरिया अपनाया गया है। इसके तहत चीन के साथ आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देना, लेकिन उसके सैन्य विस्तार को रोकना लक्ष्य घोषित किया गया है।

रणनीति पत्र में कहा गया है कि अमेरिका चीन के साथ सच्चे रूप से पारस्परिक लाभकारी आर्थिक संबंध बनाने की ओर बढ़ेगा। लेकिन धीरे-धीरे चीन पर निर्भरता कम की जाएगी। चीन पर बनी निर्भरता के लिए दस्तावेज में ट्रंप के पहले के राष्ट्रपतियों को दोषी ठहराया है। कहा गया है कि तब अमेरिका ने बाजार खोलकर, निवेश प्रोत्साहित कर और मैनुफैक्चरिंग आउटसोर्स करके चीन को “नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था” का हिस्सा बनाने की गलती की। वह नीति विफल रही।

ताइवान पर चीन के हमले को रोकना नई रणनीति में भी प्राथमिकता है। कहा गया है कि अमेरिका अपनी लंबे समय से चली आ रही नीति पर कायम रहेगा और ताइवान जलडमरूमध्य में यथास्थिति को एकतरफा बदलने की कोशिशों का समर्थन नहीं करेगा। दक्षिण चीन सागर में संघर्ष रोकने के लिए अमेरिका और सहयोगियों की सैन्य क्षमता बढ़ाने की बात कही गई है।

मगर अधिक ध्यानार्थ पहलू पश्चिमी गोलार्ध में चीन का विस्तार रोकने का जताया गया इरादा है। कहा गया है कि अमेरिका पश्चिमी गोलार्ध (खासकर लैटिन अमेरिका) में अपनी प्रभुता बहाल करेगा, ताकि चीन (और रूस, ईरान) जैसे “गैर-क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धियों” को पैर जमाने से रोका जा सके। चीन के लैटिन अमेरिका में 2020-2024 के दौरान बढ़े चार गुना निर्यात को अमेरिका के लिए खतरा बताया गया है।

दरअसल, Trump Corrolary ना सिर्फ चीन, बल्कि लैटिन अमेरिका में रूस के बढ़े आर्थिक एवं रणनीतिक प्रभाव को भी रोकने का प्रयास है। ट्रंप प्रशासन ने लैटिन अमेरिका में इस सदी में वामपंथ को मिली सफलता को अमेरिकी हितों के लिए खतरा माना है और इस परिघटना को पलटने का इरादा उसने जताया है। इसका पहला निशाना वेनेजुएला बना है, जिसके खिलाफ गुजरे ढाई- तीन महीनों से अमेरिकी नौसेना ने घेराबंदी कर रखी है। मादक पदार्थों के तस्करों पर कार्रवाई के नाम पर वहां युद्ध का माहौल बनाए रखा गया है। वेनेजुएला पर अमेरिकी हमले का खतरा लगातार मंडरा रहा है। इसी क्रम में वेनेजुएला से कच्चा तेल ले जा रहे एक टैंकर पर अमेरिकी सैनिकों ने डाका डालने के अंदाज में कब्जा कर लिया।

ब्राजील में राष्ट्रपति लुइस इनासियो लूला दा सिल्वा का ट्रंप के टैरिफ का सक्रिय विरोध, मेक्सिको में वामपंथी राष्ट्रपति क्लाउडिया शिनबॉम द्वारा राष्ट्रीय संप्रभुता की रक्षा और कोलंबिया के राष्ट्रपति गुस्तावो पेत्रो के ट्रंप को सीधे चुनौती देने के साहस ने हाल में यह दिखाया है कि लैटिन अमेरिका में संयुक्त राज्य अमेरिका का सिक्का आज उस तरह नहीं चलता, जैसा जेम्स मनरो के युग से लेकर पिछली सदी तक चलता था। मगर ट्रंप प्रशासन इस स्थिति को सहज स्वीकार करने को तैयार नहीं है। उसका आकलन है कि चीन और रूस से मिली सहायता के कारण इन देशों के नेता अमेरिका को आंख दिखा रहे हैँ।

दरअसल, अभी कुछ समय पहले तक बोलिविया, होंडूरास और अर्जेंटीना में भी ऐसी सरकारें थीं, जो अमेरिकी नुस्खे के मुताबिक नहीं चलती थीं। 2022 में पेरू में भी कम्युनिस्ट नेता पेद्रो कास्तियो राष्ट्रपति चुने गए थे, हालांकि बाद में तख्ता पलट के जरिए उन्हें हटा दिया गया। इसी पृष्ठभूमि में मनरो डॉक्ट्रीन को फिर से लागू करने के लिए ट्रंप ने अपना पूरक सिद्धांत पेश किया है। इसके तहत अर्जेंटीना और होंडूरास के चुनावों में ट्रंप प्रशासन ने सीधे दखल दिया, जिससे वहां धुर दक्षिणपंथी पार्टियों को निर्णायक मदद मिली। अब अमेरिका वही रास्ता कोलंबिया में अपनाने की तैयारी में है। ब्राजील के अंदरूनी मामले में दखल देते हुए ट्रंप ने पूर्व राष्ट्रपति जायर बोल्सेनारो के खिलाफ मुकदमा रुकवाने की कोशिश की थी। ब्राजील पर उन्होंने ऊंचा टैरिफ थोपा, तो उसका एक कारण उन्होंने बोल्सेनारो को हुई सजा को भी बताया। ठोस संकेत हैं कि ट्रंप के पूरक सिद्धांत के तहत ब्राजील के अगले चुनाव में अमेरिका खुल कर दखल देगा।

जहां ऐसे दखल से काम नहीं चलेगा, वहां संभव है कि वेनेजुएला की तर्ज पर अमेरिका सीधे सैन्य दखल देने की कोशिश करे। इस क्रम में क्यूबा पर भी ट्रंप की कार्रवाई हो सकती है। दरअसल, ट्रंप प्रशासन की ऐसे कदम इतने बेपर्द हैं कि इन्हें सीधे संप्रभुता की धारणा को चुनौती बताया जा रहा है। 1648 में वेस्टफालिया की संधि के तहत संप्रभुता की अवधारणा सामने आई, जिसके तहत किसी देश के अंदरूनी मामले में दखल स्वीकार्य नहीं माना जाता। मगर डॉनल्ड ट्रंप ऐसे किसी सिद्धांत की परवाह करते नहीं दिख रहे हैँ। ना ही वे समुद्री परिवहन या किसी अन्य क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय कायदों की परवाह कर रहे हैं।

इसे देखते हुए लैटिन अमेरिका और कैरीबियन क्षेत्र के कई देश अपने पड़ोसी देशों के खिलाफ अमेरिकी कार्रवाई में ट्रंप की सहायता करने को तैयार होते दिखे हैं। फिर भी यह सवाल कायम है कि क्या ट्रंप प्रशासन सचमुच चीन, रूस और ईरान के उस क्षेत्र बने कारोबारी रिश्तों पर विराम लगा पाएगा? क्या उसके पास समृद्धि और संपन्नता की आस जगाने वाली वैसी योजनाएं हैं, जैसी चीन ने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के जरिए वहां जगाई हैं। गौरतलब है कि उस क्षेत्र के 33 देशों में से 24 बीआरआई का हिस्सा हैं।

बहरहाल, ट्रंप के पूरक सिद्धांत का क्या परिणाम होगा, यह बाद में जाहिर होगा। फिलहाल ट्रंप प्रशासन ने इस क्षेत्र में अपना वर्चस्व बहाल करने और उसके बाद वैश्विक वर्चस्व को बहाल करने की दिशा में क्रमिक रूप से चलने की नीति अपनाई है। इसी नीति के तहत रूस के साथ ‘रणनीतिक संबंध’ फिर से कायम करने का इरादा उसने जताया है। इसके लिए यूक्रेन, और यहां तक कि यूरोप की “बलि” चढ़ाने से उनके इनकार नहीं है। उसकी नई सुरक्षा रणनीति में यूरोपीय नेताओं की तीखी आलोचना की गई है। कहा गया है कि वे यूक्रेन युद्ध के बारे में अवास्तविक अपेक्षाएं रखते हैं। कई यूरोपीय देशों में अस्थिर और अल्पमत सरकारें हैं, जिनमें से कई विपक्ष को दबाने के लिए लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों को रौंद रही हैं। इसी क्रम में सुरक्षा रणनीति दस्तावेज में चेतावनी दी गई है कि यूरोपीय सभ्यता विलोप के कगार पर है।

ट्रंप के अनुयायी और अर्जेंटीना के धुर-दक्षिणपंथी राष्ट्रपति हैवियर मिलेय ने कुछ समय पहले कहा था कि दुनिया आज एक अलग ढांचे की ओर बढ़ रही है, जिसमें अमेरिका, रूस और चीन के नेतृत्व में अलग-अलग गुट होंगे। ट्रंप समझते हैं कि उस विश्व व्यवस्था में संयुक्त राज्य का समूह अमेरिका महाद्वीप है। ट्रंप प्रशासन की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति मिलेय के इस आकलन की पुष्टि करती दिखी है। मगर इसका यह अर्थ नहीं है कि अन्य क्षेत्रों से अमेरिका अपने कदम बिल्कुल वापस खींच लेगा। इसका अर्थ यह है कि वहां फिलहाल वह अपनी उपस्थिति बनाए रखेगा और अपने सहयोगी देशों को मजबूर करेगा कि वे अमेरिकी हितों की रक्षा करें।

रणनीति पत्र में भारत के बारे में जो यह कहा गया है कि “अमेरिका को भारत से व्यापारिक (और अन्य) संबंधों को सुधारते रहना चाहिए, ताकि भारत इंडो-पैसिफिक की सुरक्षा में योगदान दे सके”, उसका यही अर्थ है। ऐसी ही बातें अमेरिका के अन्य सहयोगी देशों के सिलसिले में भी कही गई हैं। अब यह सहयोगी देशों को तय करना है कि वे इस रूप में अमेरिका का मोहरा बने रहते हैं या नहीं। उन्हें यह बात अवश्य ध्यान में रखनी होगी कि ट्रंप प्रशासन की उनके हितों के अनुरूप कुछ करने में कोई रुचि नहीं है। इस नजरिए का शिकार ही भारत और यूरोप बने हैं। इससे लाभार्थी चीन और रूस हैं, जो फिलहाल युद्ध की आशंका से एक हद तक मुक्त होकर अपनी उन्नति एवं विकास पर ध्यान केंद्रित करने की स्थिति में होंगे।

जाहिर है, इस रणनीति से अमेरिका अपने पहले जैसे विश्व वर्चस्व को वापस नहीं पा सकेगा। चीन की ना सिर्फ सुरक्षा संबंधी ताकत बढ़ी है, बल्कि वह तकनीक, व्यापार एवं अन्य महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में अब प्रतिमान भी तय कर रहा है। सवाल है कि क्या अमेरिका ने इस सच को स्वीकार कर लिया है कि उसे अब एक और महाशक्ति के साथ जीना होगा? अगर ऐसा नहीं है और नई सुरक्षा रणनीति के जरिए उसने क्रमिक रूप से वर्चस्व बहाली का सपना देखा है, तो यही कहा जाएगा कि यह उसका दिवास्वप्न है।

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By सत्येन्द्र रंजन

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता में संपादकीय जिम्मेवारी सहित टीवी चैनल आदि का कोई साढ़े तीन दशक का अनुभव। विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के शिक्षण और नया इंडिया में नियमित लेखन।

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