फिलहाल किसी ठोस नतीजे पर पहुंचना कठिन है कि नए वक्फ़ बोर्ड कानून से सचमुच क्या जमीनी फर्क पड़ेगा। मगर इस पहल के जरिए भाजपा ने अपने दो मकसद कानून पर अमल के पहले ही हासिल कर लिए हैं।
लोकसभा में संख्या बल को देखते हुए वक्फ़ बोर्ड संशोधन बिल के पारित होने को लेकर पहले भी कोई शक नहीं था। 288-232 के बहुमत से इसे मंजूरी मिली, तो यह सदन में पक्ष- विपक्ष की ताकत के अनुरूप ही है। बहस के दौरान विपक्ष ने बिल को संविधान को कमजोर करने, अल्पसंख्यक समुदायों को बदनाम करने, भारतीय समाज में बंटवारा करने और अल्पसंख्यकों को उनके अधिकारों से वंचित करने की कोशिश बताया।
जबकि सत्ता पक्ष ने विपक्ष पर तुष्टीकरण और विभाजन पैदा करने की कोशिश का इल्जाम मढ़ा। गृह मंत्री अमित शाह ने आश्वासन दिया कि इस पहल से मुसलमानों के धार्मिक मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं होगा और वक्फ़ की कोई जमीन नहीं छीनी जाएगी।
तो फिलहाल इस बारे में किसी ठोस नतीजे पर पहुंचना कठिन है कि नए कानून से सचमुच क्या जमीनी फर्क पड़ेगा। मगर यह साफ है कि ये पहल सत्ताधारी पार्टी की राजनीतिक परियोजना के हिस्सा है, जिसके तहत भाजपा ने अपने दो मकसद कानून पर अमल के पहले ही हासिल कर लिए हैं।
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आम चर्चा में हिंदू- मुस्लिम का मसला हावी रहे और उसके समर्थक जमात को लगातार संदेश मिले कि सरकार मुसलमानों को “ठीक कर रही है”, भाजपा की चुनावी सफलताओं का महत्त्वपूर्ण राज़ रहा है। इस नैरेटिव के जरिए लगातार जज्बाती माहौल गरम रखा गया है। इसके जरिए भाजपा ने विपक्ष और सिविल सोसायटी के सरकार विरोधी खेमों को लगातार अपनी पिच पर खेलने के लिए आमंत्रित करती रही है और ये खेमे उस जाल में फंसे रहे हैं।
इस रणनीति से रोजी-रोजी के सवालों को हाशिये पर बनाए में रखने में सत्ता पक्ष को लगातार कामयाबी मिली है। वक्फ़ बोर्ड का सवाल सिर्फ जज्बाती नहीं है। बेशक, इससे कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न जुड़े हैं। मसलन, किसी धर्म से संबंधित संस्था में अन्य महजबों के लोगों को क्यों प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए, और अगर यह अपेक्षित है तो ऐसा सभी धर्मों के मामलों में क्यों नहीं होना चाहिए, इस बारे में कोई विवेकपूर्ण तर्क पेश करने में सरकार विफल रही है। मगर ऐसे सवाल फिलहाल उसकी राह में कोई रुकावट नहीं हैं, यह फिर साफ हुआ है।
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