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नक्कालों की नाली में बहता राहुल का पसीना

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राहुल की जनसभा

कांग्रेस आज जन-विश्वास के नहीं, परस्पर-विश्वास के संकट से जूझ रही है। जन-जन का भरोसा कांग्रेस से उठा नहीं है। नरेंद्र भाई के राजकाज की शैली ने दरअसल उसे कांग्रेस के प्रति पिछले कुछ बरस में बढ़ाया ही है। लेकिन कांग्रेस के भीतर एक-दूसरे पर भरोसा तक़रीबन ढह गया है। जितना नरेंद्र भाई कांग्रेसियों को नहीं मार रहे हैं, उस से ज़्यादा तो कांग्रेसी आपस में एक-दूसरे के सिर फोड़ रहे हैं।

या तो कांग्रेसी अपने को पूरी तरह राहुल गांधी पर छोड़ दें या राहुल गांधी ख़ुद को पूरी तरह कांग्रेस पर छोड़ दें – इसके अलावा कांग्रेस के उद्धार का कोई और तरीका नहीं है। अभी हालत यह है कि न तो कांग्रेसी अपने को पूरे मन से राहुल के यज्ञ की आहुति बना पा रहे हैं और न राहुल का मन कांग्रेसियों की सड़ियल गोद में समाने को हो रहा है। इस ऊहापोह ने राहुल की सारी पुण्याई और कांग्रेसियों के रहे-सहे परिश्रम को क्षणभंगुर बना रखा है। 

राहुल चार महीने तक चार हज़ार किलोमीटर पैदल चलते रहे। भारत जोड़ने की यात्रा में हर जगह हज़ारों का सैलाब उमड़ता रहा। कांग्रेसियों के साथ आम लोगों का ज़ोश देख कर अनुचर-मंडली के होश फ़ाख़्ता हो गए। सब-कुछ करवट लेता-सा लगा। मगर यात्रा ख़त्म होने के बाद अभी तीन ही महीने बीते हैं और उस से उपजी सारी ऊर्जा के क्षरण की रफ़्तार देख कर मैं तो घक्क हूं। ठीक है कि नरेंद्र भाई मोदी के सारे संयंत्र राहुल की यात्रा के दौरान उसे किसी-न-किसी तरह नाकाम बनाने और बाद में उस की यादों के निशां मिटाने के लिए दिन-रात कैंचियों की धार तेज़ करने के अपने काम में लगे हैं, लेकिन सवाल तो यह है कि कांग्रेस के उस बुनियादी जज़्बे को क्या हो गया है, जो ज़रा-सी आहट होते ही कमर कस लिया करता था?

जिसे बुरा मानना है, माने, मगर मैं यह कहने से अपने को नहीं रोक सकता कि मौजूदा कांग्रेस संगठन हर मामले में महज़ रस्म-अदायगी कर रहा है। उसे राहुल के भावभीनेपन से, सोनिया गांधी की वाजिब चिंताओं से और प्रियंका के विकट क्षोभ से कोई लेना-देना नहीं है। ज़्यादातर कांग्रेसी अपने चक्कर में हैं। वे सिर्फ़ शक़्ल-दिखाऊ हैं। उनके पास कोई दीर्घकालीन रणनीति नहीं है। उनका सारा उत्साह ओढ़ा हुआ है। वे भीतर से टूटे-फूटे हैं। वे दर्शन-विद्या साध रहे हैं। वे राजनीति शास्त्र और समाजशास्त्र के गंभीर अध्येता नहीं हैं। वे आग लगने के बाद कुंआ खोदने निकलते हैं। यह कुंआ भी अब वे ठीक से नहीं खोद पाते हैं।

इसीलिए हम ने देखा कि राहुल-प्रसंग में अदालती फ़रमान के बाद आयोजित संकल्प-सत्याग्रह की गरमाहट उथली थी। घर खाली करने के लिए जानबूझ कर भेजे गए तौहीनी ख़त के बाद निकले मशाल जुलूसों की लौ बेहद मद्धम थी। दो-चार प्रदेशों को छोड़ दें तो बाकी राज्यों में औपचारिक कर्मकांड चल रहा था। कांग्रेसी क्षत्रप अपने-अपने श्रेय की घनचक्करी में मशगूल थे। राहुल के लिए 19 विपक्षी दल सब भूल-भाल साथ आ गए, मगर कांग्रेसी द्वारपालों की धक्कामुक्की के दृश्य मेरी आंखों के सामने टपकते रहे। शहर-शहर संवाददाता सम्मेलन संबोधित करने को ले कर अपना-तेरी और मारामारी चलती रही। उनसे कोई नई धारा नहीं बही। वे सिर्फ़ फोटो-फ्रेम बन कर रह गए। 

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि अगर कोई अदालत नरेंद्र भाई को किसी मामले में दो साल तो क्या, दो दिन की भी सज़ा कभी सुना दे, तो क्या होगा? क्या आप को अंदाज़ भी है कि 44 साल पहले 1978 में जब इंदिरा गांधी को जेल भेजने का हुक़्म सरकार ने सुनाया था तो उस 20 दिसंबर के दिन देश भर में क्या हुआ था? वक़्त आने पर कुछ कर गुज़रने का कांग्रेसी भाव अब इतिहास की चीज़ हो गया है। कांग्रेस आज जन-विश्वास के नहीं, परस्पर-विश्वास के संकट से जूझ रही है। जन-जन का भरोसा कांग्रेस से उठा नहीं है। नरेंद्र भाई के राजकाज की शैली ने दरअसल उसे कांग्रेस के प्रति पिछले कुछ बरस में बढ़ाया ही है। लेकिन कांग्रेस के भीतर एक-दूसरे पर भरोसा तक़रीबन ढह गया है। जितना नरेंद्र भाई कांग्रेसियों को नहीं मार रहे हैं, उस से ज़्यादा तो कांग्रेसी आपस में एक-दूसरे के सिर फोड़ रहे हैं। 

आज अगर नरेंद्र भाई के अनुचर यह सवाल उठा रहे हैं कि सूरत की अदालत का मसला सुलझाने में कांग्रेस ने अपने दिग्गज वकीलों को समय रहते क्यों नहीं लगाया था तो कौन-सा ग़लत सवाल कर रहे हैं? अगर देश भर में यह बात तैर रही है कि राहुल-प्रसंग में क़ानून के दरवाज़ों को खटखटाने में ढील क्यों हो रही है तो कौन-सी ग़लत बात तैर रही है

हर मामले में टालमटोल, हर मामले में लेटलतीफ़ी, हर मामले में गोलमोलपन जिस राजनीतिक दल का मूल स्वभाव बनने लग जाए, उस से अगर मित्र-शक्तियों को भी कचवाहट होने लगे तो इस में ग़लती किस की है? मल्लिकार्जुन खड़गे को कांग्रेस का अध्यक्ष बने साढ़े पांच महीने हो गए हैं। उन्हें कार्यसमिति के गठन का अधिकार मिले एक महीने से ज़्यादा का वक़्त बीत चुका है। हर रोज़ दो-चार, दो-चार नियुक्तियों की मतलबी रस्म अदा की जा रही है, मगर क्या कांग्रेस की संरचना में कोई ठोस और बुनियादी बदलाव किसी को कहीं नज़र आ रहा है? बदलाव तो छोड़िए, क्या ऐसा करने की कोई नीयत भी दूर-दूर तक आप को कहीं नज़र आती है

तो ऐसी गिलगिली कांग्रेस से राहुल के पसीने के प्रतिदान की उम्मीद कोई क्या करे? मगर प्रश्न यह भी तो है कि ऐसी कांग्रेस का निर्माण, चाहे-अनचाहे ही सही, हुआ किन की छत्रछाया में है? आप के आसपास काठ की तलवारें क्या आप की मर्ज़ी के बिना इकट्ठी हो गईं? फिर भी मैं एक बात कहना चाहता हूं और जिन्हें इसे परिवार की वंदना मानना है, मान लें, लेकिन सच्चाई यही है कि कांग्रेस के प्राण तो परिवार-त्रयी में ही बसे हैं। वह न हो तो सोवियत संघ की तरह कांग्रेस के भी कभी के पंद्रह टुकड़े हो जाएं! सोवियत संघ, जब सोवियत संघ था, तब भी वह भीतर से 15 फांकों में बंटा हुआ था। मगर एक सोवियत-खोल उसे एकजुट संतरा बनाए हुए थी। यही हाल कांग्रेस का है। परिवार-त्रयी वह छिलका है, जिस को छीलते ही सारी फांकें तितर-बितर हो जाएंगी। यह छिलका, बावजूद तमाम कोशिशों के, फांकों को एक-दूसरे में विलीन कराने में शायद ही कभी कामयाब हो, मगर वह उन्हें एक खोल के भीतर बनाए रखने का काम जब तक करता रह सकेगा, प्रासंगिक रहेगा। 

यह प्रासंगिकता ही असली बीज-मंत्र है। उसी में सेध लगाने की कोशिश नरेंद्र भाई कर रहे हैं। वे राजनीतिक-सामाजिक सैन्य-बलों की मध्य-कमान को बहला कर, फुसला कर, रिझा कर, धमका कर अपनी गठरी में समेटने की विद्या जानते हैं। वे इस झाड़-फूंक का निर्लज्ज उपयोग कर संगठनों, सरकारों और संस्थानों की केंद्रीय-कमान को अप्रासंगिक बना देने का हुनर हासिल कर चुके हैं। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से ले कर भारतीय जनता पार्टी तक पर इसे आज़मा चुके हैं। वे क्षेत्रीय दलों की सरकारों पर इसका प्रयोग दिन-रात कर रहे हैं। वे देश की संवैधानिक संस्थाओं पर इस टोटके के नतीजे देख चुके हैं। इसलिए आज की कांग्रेस उन के लिए चूं-चूं का मुरब्बा भले न हो, लेकिन लोहे के चने भी नहीं रह गई है। 

यही वज़ह है कि कांग्रेस को, उस के शीर्ष-नेतृत्व को, और सबसे ज़्यादा उस की सर्वोच्च परिवार-त्रयी को आने वाले दिनों में उस तलवार की धार पर दौड़ना है, जिस के एक तरफ़ कुंआ है और दूसरी तरफ़ खाई। जिस के एक छोर पर भी अपने ही नक्कालों का ज़खीरा है और दूसरे छोर पर भी अपने ही मक्कारों की टोली। इन में से सार-सार को चुन लेने और थोथा-थोथा उड़ा देने की मशक्क़त में खड़गे का सक्रिय सहारा बनने का ज़िम्मा अगर सोनिया गांधी ने अब भी नहीं निभाया तो सब किया-कराया भाड़ में जाने में कोई देर थोड़े ही है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।)

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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