हिरोशिमा में शिखर बैठक के दौरान रूस से होने वाले हीरे के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने का फैसला हुआ।.. जी-7 शिखर बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पश्चिमी देशों के इस कदम पर एतराज नहीं जताया जबकि भारतीय हीरा उद्योग और उसके कारीगरों पर विनाशकारी असर होगा।… निष्कर्ष है कि मोदी सरकार ने यूक्रेन युद्ध के दौर में जिस तरह भारतीय धनिक वर्गों के हितों को आगे बढ़ाया है, उसकी उम्मीद सूरत और दूसरी जगहों के हीरा कामगार नहीं कर सकते। यूरोपीय देश बैकडोर से तेल हासिल करने के लिए बेसब्र रहे हैं पर वैसी बेसब्री शायद हीरे के लिए ना हो। तेल के बिना काम चलना असंभव है, जबकि हीरे के साथ ऐसी बात नहीं है।
जी-7 समूह की जापान के हिरोशिमा में शिखर बैठक के दौरान रूस से होने वाले हीरे के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने का फैसला हुआ। उसके बाद यह खबर आई कि जी-7 ने यह प्रतिबंध लागू किया, तो गुजरात में सूरत के हीरा उद्योग में दस लाख नौकरियां खतरे में पड़ जाएंगी। रूस की समाचार एजेंसी स्पुतनिक की एक रिपोर्ट में तो भारत में जाने वाली नौकरियों की संख्या एक करोड़ तक बताई गई है।
रफ़ डायमंड की दुनिया भर में होने वाली तराशी और पॉलिशिंग का 90 प्रतिशत काम भारत में होता है। इस कुल कारोबार में गुजरात का हिस्सा 50 प्रतिशत से ज्यादा है। गुजरात डायमंड वर्कर्स यूनियन के अध्यक्ष रमेशभाई जिलरिया ने स्पुतनिक को बताया कि डायमंड की तराशी और पॉलिंशिंग के काम से 25 लाख मजदूर जुड़े हुए हैं, जिनमें से ज्यादातर कमजोर तबकों से आते हैँ। अब इन लोगों के रोजगार पर खतरा मंडरा रहा है। रोजगार जाने पर उन श्रमिकों और उनके परिजनों की जिंदगी पर क्या परिणाम होगा, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।
अब यह गौर करने की बात है कि जी-7 शिखर बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विशेष आमंत्रित शासन-प्रमुख की हैसियत से शामिल हुए। लेकिन ऐसी कोई खबर देखने को नहीं मिली है कि उन्होंने पश्चिमी देशों के उस कदम पर कोई एतराज जताया हो, जिसका भारतीय हीरा उद्योग और उसमें काम करने वाले श्रमिकों पर विनाशकारी असर होगा।
अब इसकी तुलना 15 महीने पहले यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद पश्चिमी देशों की तरफ से रूस पर लगाए गए ऊर्जा (कच्चे तेल और गैस) प्रतिबंधों से करें। भारत ने हालांकि इन प्रतिबंधों पर भी सैद्धांतिक आपत्ति नहीं जताई है, लेकिन व्यवहार में उसने इसका खुला उल्लंघन किया है। बल्कि इस दौरान रूस से भारत के कच्चे तेल के आयात में दस गुना बढ़ोतरी हुई है। रक्षा क्षेत्र में रूसी सहयोग पर भारत की निर्भरता पुरानी है। कच्चे तेल को लेकर भारत की ऐसी कोई निर्भरता नहीं थी। असल में यूक्रेन युद्ध के पहले तक भारत में कच्चे तेल का होने वाले आयात में रूसी तेल का हिस्सा सिर्फ दो फीसदी था, जो अब 20 प्रतिशत तक पहुंच चुका है।
अब गौर करने की बात है कि भारत ने पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों की जो नाफरमानी की, उसका लाभ किसे मिला है? साथ ही यह भी भारत ऐसा करने में क्यों सफल और सक्षम बना हुआ है?
जहां तक लाभ की बात है, तो कम से कम आम उपभोक्ताओं को तो कोई राहत नहीं मिली है। अधिक से अधिक वे इतनी गनीमत मना सकते हैं कि इस अवधि में पेट्रोल और डीजल के दाम जहां तक पहुंच चुके थे, वहां से और नहीं बढ़े। मगर दूसरी तरफ रिलायंस इंडस्ट्रीज का तेल कारोबार चमक उठा है। पिछले 31 मार्च को खत्म हुए वित्त वर्ष में 2021-22 की तुलना में रिलायंस इंडस्ट्रीज के कारोबार के मुनाफे में 23 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। इसे संभव बनाने में रूसी तेल का बड़ा योगदान रहा।
रूस पर लगाए गए सख्त प्रतिबंधों के बावजूद आखिर भारत की इस नाफरमानी का पश्चिमी देशों ने बर्दाश्त क्यों किया है? जाहिरा तौर पर इसकी एक वजह उनका (खासकर यूरोपीय देशों का) अपना स्वार्थ है। पिछले सवा साल में हुआ यह है कि रूसी सस्ते कच्चे तेल का जो आयात भारत ने किया, उसमें प्राइवेट कंपनियों का हिस्सा तीन चौथाई रहा। रिलायंस ने गुजरात के जामनगर तीन दशक पहले जो बड़ी रिफाइनरी लगाई थी, वह इस मौके पर उसके बड़ा काम आई। रूसी कच्चे तेल का शोधन करने के बाद रिलायंस और अन्य ऐसी कंपनियों ने वह तेल यूरोप को महंगी दरों पर निर्यात किया।
रूसी तेल की यह बैकडोर एंट्री यूरोप की जनता देशों को भारी पड़ी, लेकिन अमेरिका की मिलटरी-इंडस्ट्रियल-माइनिंग कॉम्पलेक्स और फाइनेंस-इंश्योरेंस-रियल एस्टेट इकॉनमी से नियंत्रित वहां के शासक वर्ग को यह सौदा शायद वाजिब मालूम पड़ा है। आखिर इसमें हर जगह के धनी वर्ग को फायदा है।
अब प्रश्न है कि क्या यूरोप और अमेरिका हीरे की ऐसी ही बैकडोर एंट्री के लिए राजी होंगे? और क्या भारत सरकार इस उद्योग से जुड़े अपेक्षाकृत छोटे कारोबारियों और उन पर निर्भर श्रमिकों के हित की चिंता करेगी? हालांकि इस बारे में निश्चित रूप से कुछ कहने के लिए अभी हमें इंतजार करना होगा, लेकिन इसकी संभावना ज्यादा नजर नहीं आती। क्यों?
यह एक सर्व स्वीकृत (well accepted) सिद्धांत है कि किसी सरकार/राज्यतंत्र की विदेश नीति असल में उसकी गृह नीति का ही विस्तार होती है। इसलिए अगर राज्यतंत्र (polity) या सरकार की political economy (अर्थव्यवस्था के वह हिस्सा जो राजनीति को नियंत्रित करता है) की अगर समझ हो, तो उसकी विदेश नीति के बारे में सटीक अनुमान लगाया जा सकता है। अगर यह समझ ठीक है कि भारतीय राज्यतंत्र पर इजारेदार पूंजीपति घरानों और धनी-मानी तबकों का पूरा नियंत्रण बन गया है (और इस रूप में भारत असल में एक plutocracy यानी धनिक-तंत्र) में तब्दील हो गया है, तो सरकार की विदेश नीति को समझना आसान हो जाता है।
दरअसल, political economy का जो economy पार्ट (हिस्सा) है, उसका स्वरूप oligopoly (एक ऐसी अर्थव्यवस्था जिसमें प्रतिस्पर्धा बेहद सीमित हो चुकी हो और जहां बाजार पर उत्पादकों और विक्रेताओं एक छोटे समूह- यानी इजारेदारों- का नियंत्रण बन गया हो) के रूप में ठोस शक्ल ले चुका है। जब oligopoly देश की polity को नियंत्रित कर रही हो, उस समय उस देश की सरकार वैसी ही विदेश नीति पर चल सकती है, जिस पर नरेंद्र मोदी सरकार चल रही है।
लेकिन democracy के आवरण में व्यवस्था के असल में plutocracy हो जाने की यह परिघटना भारत तक सीमित नहीं है। नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के दौर में अमेरिका से लेकर यूरोप और अन्य उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों का सिस्टम यही रूप ले चुका है। अगर इन सब जगहों की अर्थव्यवस्था पर गौर किया जाए और उनका ठोस विश्लेषण किया जाए, तो इसमें कोई शक नहीं बचेगा कि वे असल में oligopoly हैं। पूंजीवाद का वह दौर गुजर चुका है, जब खुली प्रतिस्पर्धा को उसकी खास पहचान बताया जाता था और कहा जाता था कि मांग एवं आपूर्ति के सिद्धांत से कीमतें तय होती हैँ।
इजारेदारी (monopoly) ने प्रतिस्पर्धाओं को आज लगभग हर जगह कुचल दिया है। अनेक अनुसंधानों ने दिखाया है कि कैसे आज बाजार में कीमतें इजारेदार उत्पादक और विक्रेता तय कर रहे हैं, जिससे महामारी और युद्ध जैसे मुश्किल दौर में भी उनका मुनाफा बढ़ता चला गया है।
पिछले साढ़े तीन दशक में वित्तीय पूंजी और इजारेदार पूंजीपतियों ने सारी दुनिया को अपनी जद में लेने के मकसद भूमंडलीकरण (globalization) की आक्रामक नीतियों पर अमल किया। इसकी परिणाम यह हुआ है कि हर छोटे-बड़े देश के Oligarchs (अल्पसंख्यक शासक वर्ग) और plutocrats (धन तंत्र के प्रतिनिधियों) के बीच स्वार्थ का संबंध जुड़ गया है। इस रूप में एक वैश्विक शासक वर्ग का उदय हुआ है। इसका व्यावहारिक स्वरूप यह है कि रिलायंस इंडस्ट्रीज और पश्चिम की तेल वितरक कंपनियों के हित जुड़े हुए हैं और जब तक इस संबंध में दोनों का मुनाफा है, तब तक इन देशों की धन-तंत्र नियंत्रित सरकारें उन्हें फायदा पहुंचाने का उपकरण बनी रहेंगी। इसीलिए पिछले सवा साल में भारत पर प्रतिबंध की चर्चा शायद ही कभी सुनने को मिली है।
हिंडनबर्ग खुलासे के बाद अडानी प्रकरण पर लोकसभा में दिए अपने बहुचर्चित भाषण में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने मोदी सरकार की विदेश नीति को कुछ खास कारोबारी घरानों को लाभ पहुंचाने के मकसद से संचालित बताया था। इस सिलसिले में उन्होंने खास कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ऑस्ट्रेलिया, श्रीलंका और बांग्लादेश यात्राओं का जिक्र कर दावा किया था कि उस दौरान मोदी ने अडानी समूह को सौदे दिलवाने के विशेष प्रयास किए।
बहरहाल, नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में उदय और उनके नेतृत्व में भाजपा के राज्य-व्यवस्था (polity) पर पूरा नियंत्रण बन जाने की परिघटना से परिचित लोगों को राहुल गांधी ने कोई नई बात नहीं बताई है। बल्कि इससे ऐसे लोगों के मन में सहज ही यह बात आई होगी कि इजारेदार पूंजीवाद के उदय का मार्ग प्रशस्त करने में मोदी से पहले की सरकारों की भी खास भूमिका रही थी। यह जरूर है कि मोदी के दौर में यह परिघटना अपने चरम बिंदु पर पहुंच गई है।
अगर गुजरे साढ़े तीन दशक के इतिहास पर गौर करें, तो साफ होगा कि इस दौरान सत्ता में रहीं भारत की लगभग तमाम सरकारें उद्योग जगत और धनी तबकों के साथ मिल कर एक इकाई के रूप में काम करती रही हैं। जैसे इन वर्गों के हित अंतरराष्ट्रीय plutocracy और oligopoly से जुड़ते गए हैं, सरकारों की भूमिका उसी के अनुरूप बदलती चली गई है। और इसी के साथ देश की विदेश नीति उस रूप में ढलती चली गई है।
भारत की आजादी उपनिवेशवाद विरोधी एक लंबे आंदोलन का परिणाम थी। उस दौरान उपनिवेशवाद विरोधी चेतना का व्यापक प्रसार जनता में हुआ था। इस ऐतिहासिक परिघटना का परिणाम ब्रिटिश शासन से मुक्ति के बाद भारत में उपनिवेशवाद विरोधी राज्य के उदय के रूप में हुआ। इसीलिए आजादी के बाद लगभग तीन-साढ़े तीन दशकों तक भारत की विदेश नीति में उपनिवेशवाद विरोधी रुझान देखने को मिलता रहा। स्वाभाविक था कि तब भारत ने अफ्रीका और एशिया में विभिन्न देशों के स्वतंत्रता संघर्ष का मुखर समर्थन किया, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर वह फिलस्तीनी अधिकारों का प्रवक्ता बना रहा और दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी शासन के विश्व अभियान में भारत ने खास भूमिका निभाई। जबकि आज वह ऐसे तमाम मुद्दों पर वह मुक्ति विरोधी आंदोलनों के विरोध में खड़ा नजर आता है।
असल में जब उपनिवेशवाद विरोधी रुख मौजूदा था, तब कमजोरी यह रही कि उपनिवेशवाद विरोधी रुझान को नए संदर्भों में साम्राज्यवाद विरोधी तेवर नहीं दिया जा सका। पूंजी के नए उभरते अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन को समझने और उसके खिलाफ जरूरी जन-गोलबंदी आधरित राजनीति देश में मुख्यधारा नहीं बन सकी। नतीजतन, लोकतंत्र और मानव अधिकारों की वकालत के नकाब तले पश्चिमी व्यवस्था का जो असली साम्राज्यवादी रूप था, उसको लेकर वैसी जन चेतना नहीं बनी, जो वास्तविक लोकतंत्र और जन अधिकारों के लिए संघर्ष का आधार बनती।
पश्चिमी देशों ने लोकतंत्र का आवरण सोवियत संघ की उपस्थिति, अपने यहा उभरते मजदूर आंदोलन और दुनिया कई हिस्सों में फैल रही समाजवादी चेतना के बरक्स अपनी जन-वैधता (legitimacy) बनाए रखने के मकसद से ओढ़ा था। जैसे ही ये चुनौतियों कमजोर पड़ीं, उनका वास्तविक plutocrat रूप सामने आ गया। भारत जैसे देशों में इस परिघटना के बारे में जागरूकता का भारी अभाव है। इसीलिए जो लोग मोदी सरकार पर अडानी-अंबानी के हित में विदेश नीति को चलाने का आरोप लगाते हैं, उनमें से भी अधिकांश ऐसे होते हैं, जो इस विदेश नीति के व्यवस्थागत चरित्र को समझ नहीं पाते।
इस व्यवस्थागत चरित्र में यह बात अंतर्निहित है कि मोदी सरकार उन मामलों में पश्चिमी देशों की मर्जी से अलग नीति नहीं अपना सकती, जिनका संबंध श्रमिक हितों से है। श्रमिक और आम जन के हितों की रक्षा करने का मतलब देश और विदेश के plutocrats और Oligarchs के हितों के खिलाफ जाना होगा। मोदी सरकार की विशेषता ही यही है कि वह इनके हितों की रक्षा करते हुए और श्रमिक एवं आम जन के हितों को लगातार चोट पहुंचाते हुए भी अपने लिए राजनीतिक बहुमत जुटाए रखने में अब तक कामयाब है। उसके पास हिंदू पहचान और अल्पसंख्यक द्वेष का एक ऐसा फॉर्मूला है, जो समाज के एक बहुत तबके को भटकाए रखने में सफल है। इस भटकाव में रोजी-रोटी के मुद्दे कम-से-कम उसके समर्थक तबकों के लिए अप्रासंगिक बने हुए हैँ।
मोदी काल की यही विशेषता वह कारण है, जिससे भाजपा भारतीय plutocrats और Oligarchs की पसंदीदा पार्टी बनी हुई है और उसके ऊपर उन्होंने पूरा दांव लगा रखा है। वैसे इस राजनीतिक स्वरूप के नजारे आज दुनिया के उन तमाम देशों में देखे जा सकते हैं, जो अपने को लोकतांत्रिक कहते हैँ। वहां भी राजनीतिक दल और राजनेता पहचान (identity) के प्रश्नों को राजनीति में सर्व प्रमुख बनाए रख कर रोजी-रोटी के प्रश्नों और वर्ग संघर्ष की राजनीति को हाशिये पर धकेले रखने का उपकरण बने हुए हैँ। इस रूप में आर्थिक नीतियों पर (जो निर्विवाद रूप से plutocracy और Oligopoly के हित में हैं) राजनीतिक बहस केंद्रित नहीं हो पाती है।
कथित लोकतांत्रिक देशों में आज यह कॉमन फैक्टर (समान पहलू) है कि सत्ता में चाहे कोई भी पार्टी आए, वह घरेलू और विदेश नीतियों plutocracy के हितों को आगे बढ़ाती हैँ। यही काम भारत सरकार भी कर रही है। नरेंद्र मोदी के काल में इस काम को बिना किसी परदा के आगे बढ़ाया गया है।
बहरहाल, जिस संदर्भ में हमने इस मुद्दे की चर्चा की, उसमें इस ट्रेंड का निष्कर्ष यह है कि मोदी सरकार ने यूक्रेन युद्ध के दौर में जिस तरह भारतीय धनिक वर्गों के हितों को आगे बढ़ाया है, उसकी उम्मीद सूरत और दूसरी जगहों के हीरा कामगार नहीं कर सकते। उनके लिए उम्मीद धूमिल होने की एक वजह यह भी है कि यूरोपीय देश बैकडोर से तेल हासिल करने के लिए जितना बेसब्र रहे हैं, उनमें वैसी बेसब्री शायद हीरे के लिए ना हो। तेल के बिना काम चलना असंभव है, जबकि हीरे के साथ ऐसी बात नहीं है।