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द्वारपाल-मुक्त कांग्रेस की स्थापना का समय

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आपस में ही एक-दूसरे को नेस्त-ओ-नाबूद करने में लगे हुए अपने अगलियों-बगलियों की असलियत अगर राहुल-प्रियंका को ठीक से मालूम हो जाए तो, मुझे लगता है कि, वे ख़ुद ही बैरागी हो जाएं। क़रीब चार साल पहले राहुल अर्द्ध-संन्यासी कोई ऐसे ही नहीं हो गए थे। तब उन्होंने खुल कर कहा था कि 2019 के आम चुनाव में कई बार उन्हें गहरा अहसास हुआ कि वे तक़रीबन अकेले ही यह युद्ध लड़ रहे थे और उनकी पार्टी तक पूरे मन से उनके साथ नहीं थी। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि दुनिया-जहान की ख़बरें रखने वाले और बचपन से सियासी पेंचोख़म की आंच देख-देख कर बड़े हुए राहुल-प्रियंका ख़ुद से लिपटी अमरबेलों से इतने अनभिज्ञ कैसे हैं?

मैं हर दिन और ज़्यादा आश्वस्त होता जा रहा हूं कि अगर 2024 में या उसके बाद कभी भी राहुल गांधी और प्रियंका गांधी मिल-मिला कर कांग्रेस को केंद्र की सत्ता में आने लायक बना भी देंगे तो कांग्रेसी-धूर्तों की मंडली वह दिन न आने देने के लिए अपनी तरफ़ से तो कोई कोशिश बाकी नहीं रखेगी कि कांग्रेस सत्ता संभाल ले। अगर जन-मन एकदम पलट ही जाए और उसके चलते ऐसा जन-सैलाब आ जाए कि कांग्रेस सब को रौंदती-रांदती रायसीना पर्वत पर पहुंच जाए तो बात अलग है, वरना आप तय जानिए कि राहुल-प्रियंका के आसपास इकट्ठे हो गए बहुत-से राजनीतिक और लिपिकीय द्वारपालों के चलते मोशा-युग के अभी केंद्र में तो अरसे तक बने रहने का दुर्भाग्य हमें झेलना ही है।

आपस में ही एक-दूसरे को नेस्त-ओ-नाबूद करने में लगे हुए अपने अगलियों-बगलियों की असलियत अगर राहुल-प्रियंका को ठीक से मालूम हो जाए तो, मुझे लगता है कि, वे ख़ुद ही बैरागी हो जाएं। क़रीब चार साल पहले राहुल अर्द्ध-संन्यासी कोई ऐसे ही नहीं हो गए थे। तब उन्होंने खुल कर कहा था कि 2019 के आम चुनाव में कई बार उन्हें गहरा अहसास हुआ कि वे तक़रीबन अकेले ही यह युद्ध लड़ रहे थे और उनकी पार्टी तक पूरे मन से उनके साथ नहीं थी। राहुल इन चार बरस में बदले हैं, लेकिन मैं पूरे यक़ीन के साथ कह सकता हूं कि कांग्रेस आज भी कतई नहीं बदली है। जिसे राहुल अपना सैन्य-दल समझते हैं, उसके नाभिकीय-घेरे में दरअसल एक ऐसा रेवड़ मौजूद है, जिसमें कई काली भेड़ें छुपाछिपी खेल रही हैं।

मैं आज तक नहीं समझ पाया कि दुनिया-जहान की ख़बरें रखने वाले और बचपन से सियासी पेंचोख़म की आंच देख-देख कर बड़े हुए राहुल-प्रियंका ख़ुद से लिपटी अमरबेलों से इतने अनभिज्ञ कैसे हैं? ऐसा क्यों होता है कि उनकी दीवार पर चढ़ी एक अमरबेल का स्थानापन्न दूसरी अमरबेल ही बनती है? उनकी क्यारियों में उगी गाजर-घास की जगह दूसरी गाजर-घास ही क्यों लेती है? उनकी दीवारों पर रसभरी और अंगूर की बेलें क्यों नहीं पनपतीं? उनकी क्यारियों में मोगरा और बोगनवेलिया क्यों नहीं खिलते? उन्हें पनपने और खिलने से कौन रोकता है? राहुल-प्रियंका तो राकते नहीं होंगे। वे क्यों रोकेंगे? किसे अच्छा नहीं लगता कि उसका घर साफ-सुथरा और हरा-भरा रहे?

लेकिन घर की हरियाली पिछले एक दशक में इसलिए सूखी है कि बीजों और पौधों के चयन का ज़िम्मा राहुल-प्रियंका ने गफ़लत में उन बौने मालियों के हवाले कर दिया है, जिन्होंने बागवानी का कंटक-शास्त्र कंठस्थ कर रखा है। सो, हर बौना अपने से भी और बौने को अपना हमजोली बना कर ख़ुद से चिपटाए रखने में लगा हुआ है। हर बौना अपने से भी और बौने को अपनी विरासत सौंपने में जुटा हुआ है। साल-दर-साल से यह तमाशा चल रहा है। सोचिए कि बौनों का कद घिस-घिस कर कहा पहुंच गया होगा! चीड़ और देवदार जंगल में उगते हैं। आपने उन्हें कभी गमलों में उगते देखा है?  फ़सल खेतों में लहलहाती है। उसे कभी गमलों में लहलहाते आपने देखा है? बौने जंगल और खेतों में नहीं, गमलों में उगा करते हैं। इसलिए उन्होंने कांग्रेस के व्यापक अभ्यारण्य को गमले में तब्दील कर दिया है। इसलिए उन्होंने कांग्रेसी खेत का गमलाकरण कर दिया है।

ये हालात तब सुधरेंगे, जब राहुल-प्रियंका चौबारे पर बैठ कर ख़ुद बीज चुनेंगे और धरती पर उतर कर बुआई भी ख़ुद करेंगे। वरना वे हल में जुत कर सिर्फ़ कांग्रेसी खेत की गुड़ाई करते रहेंगे और बिचौलिए उसमें अपनी मर्ज़ी के बीज बिखेरते रहेंगे। पसीना राहुल का बहेगा, पंजीरी आढ़ती खाते रहेंगे। इस मध्यस्थ-गिरोह की कलाबाज़ियों पर राहुल जब तक काबू नहीं पा लेते, तब तक उनकी हर मेहनत पर पानी फिरता रहेगा। उन्हें जल्दी-से-जल्दी खुर्दबीन ले कर यह देखना चाहिए कि कांग्रेस की ज़मीन पर आम के बाग़ की जगह बबूल का जंगल कैसे खड़ा हो गया? अगर उनके पट्टेदार ईमानदारी से अमृतफल के रोपे रोप रहे थे तो इस कीकर-वन ने कैसे आकार ले लिया? राहुल को यह तो मालूम करना ही चाहिए कि आख़िर उनके गांव में बौने इतने विराट कैसे बन गए? प्रियंका को भी यह तो पता करना ही चाहिए कि उनके गांव में बगुले ऐसे सम्राट बने कैसे घूम रहे हैं?

जिस दिन राहुल-प्रियंका इस रहस्यलोक की सैर कर लेंगे, दूसरों की आंखों से देखने के बजाय खुद की आंखों से सब देख लेंगे, दूसरों के कान से सुनने के बजाय ख़ुद के कानों से सब सुन लेंगे; उस दिन से कांग्रेस का भाग्य बदल जाएगा। कांग्रेस के हाथ पर यह भाग्य-रेखा उकेरने का काम अगर राहुल नहीं करेंगे तो और कौन करेगा? अगर वे इस गफ़लत में ही रहेंगे कि जिस-जिस के हाथ में उन्होंने अपने विश्वास का फूल सौंपा है, वे सब इतने सत्यनिष्ठ और धर्मनिष्ठ हैं कि निष्कपट भाव से कांग्रेस के नियति-निर्माण में अपना सर्वस्व दे देंगे तो जैसा गच्चा अब तक खाते रहे हैं, खाते रहेंगे। मैं जानता हूं कि राहुल-प्रियंका मेरी इस बात का कभी बुरा नहीं मानेंगे कि उन्हें अपने तालाब के जल का काफी हिस्सा नए सिरे से बदलने की दरकार है और बिना ऐसा किए उनका वैयक्तिक श्रमजल आगे भी निरर्थक जाने के ही आसार बनेंगे।

मैं फिर कहता हूं कि नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह की भारतीय जनता पार्टी को ललकारने और मत-कुरुक्षेत्र में अंततः परास्त करने की कूवत सिर्फ़ राहुल गांधी में ही है। देश भर के कांग्रेसियों का एक बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है, जो बिना किसी निजी आस के राहुल का अनुगामी है। राहुल उनका चेहरा नहीं जानते। वे चेहरे शक़्ल-दिखाऊ स्पर्धा के मैदान की तरफ़ आते ही नहीं हैं। हर प्रदेश में ऐसे सैकड़ों मजबूत और अर्थवान चेहरे मौजूद हैं। वे चूंकि बिचौलियों की परिक्रमा नहीं करते हैं, इसलिए जाने-माने नहीं हैं। लेकिन वे हैं और गिलहरी-भाव से अपने काम में लगे रहते हैं। वे राहुल की असली शक्ति हैं। कांग्रेस की बुनियादी ताक़त भी वे ही हैं। वे परे ठेले जाने का अपमान झेल कर भी वैचारिक विचलन को अपने पास फटकने नहीं देते हैं। जब वे हल्ला बोलेंगे तो बीच की बागड़ ऐसी ढहेगी कि बिचौलिए छाती पीट-पीट बेहाल हो जाएंगे। मुझे लगता है, वह दिन आने वाला है। इसीलिए प्रतिहारों की कसमसाहट इतनी तेज़ी से बढ़ती जा रही है।

कुछ मक्कार दरबानों के दायरे से अगर राहुल-प्रियंका बाहर आ गए तो रायसीना पर्वत के रास्ते में कांग्रेस के लिए फूल खिलने लगेंगे। कोई हैरत नहीं कि तब हम मोशा-युग को झेलने के श्राप से 2024 में मुक्त हो जाएं। विपक्ष ने अगर लोकसभा के 450 निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा के ख़िलाफ़ हर जगह एक उम्मीदवार उतारने में सफलता हासिल कर ली तो नरेंद्र भाई के विदा गीत की धुन पर थिरकता देश देखना असंभव नहीं है। ऐसे में केंद्र की मौजूदा हुकूमत का अपने सिंहासन पर बने रहना तमाम हथकंडों के बावजूद भी संभव नहीं होगा। लेकिन अगर द्वारपाल-मुक्त कांग्रेस की स्थापना के प्रयासों में राहुल-प्रियंका कामयाब नहीं हुए तो अपने अभिशप्त नसीब को अश्रुदान देने के लिए अपनी आखों को तैयार रखिए। उम्मीद तो बहुत-सी पाले हुए हूं, लेकिन मैं नहीं जानता कि मेरी आखों को क्या-क्या देखना बाकी है!

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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