nayaindia Sangh Parivar संघ परिवार : ब्राह्मण-विरोध की धार

संघ परिवार : ब्राह्मण-विरोध की धार

जातियाँ बेशुमार नहीं थी। ई.पू. चौथी सदी में ग्रीक कूटनीतिज्ञ मेगास्थनीज से लेकर हुएन सांग, अल बरूनी, और हाल की सदी तक विदेशियों ने यहाँ गिनती की जातियाँ देखी थीं। सब से पहले 1891 ई. की जनगणना में अंग्रेज अधिकारियों ने असंख्य जातियाँ लिखीं। अगले दो दशक में ब्रिटिश प्रशासक हर्बर्ट रिसले ने तो लगभग ढाई हजार जातियाँ और दर्जनों नस्लोंतक की सूची बना दी! इस प्रकार, अनेक जातियों, ‘नस्लों’, और कुछ रिलीजनोंतक का निर्माण किसी हिन्दू पंडित/विद्वान ने नहीं, बल्कि अंग्रेज शासकों ने किया!

संघ-भाजपा के नेता मैकॉले, मिशनरी, और मार्क्स को दशकों से कोसते रहे। पर वह सब ‘शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा…’ जैसी तोता-रटंत थी। क्योंकि जब-जब उन्हें परिवर्तन या निर्माण करने का अवसर मिला, वे अपने वचन-कर्म में हू-ब-हू मिशनरियों, मैकॉलेवादियों और मार्क्सवादियों की ही नकल करते हैं। नेहरूवादियों और लोहियावादियों की भी।

ठीक धर्म और जाति संबंधी बयानों में यह सर्वाधिक है। जो झूठी, कुटिल बातें चर्च-मिशनरियों ने शुरू की थी, वही आज संघ नेता दुहराते हैं। जब कि इन्होंने शुरू से ही अध्ययन, विमर्श आदि को हिकारत से ‘किताबी’ कहकर उस से दूरी रखी थी। वे आज भी ठसक से कहते हैं कि उन्होंने अमुक ग्रंथ नहीं पढ़े। परन्तु उन के छुटभैये भी सब को निर्देश देने में उतावले रहते हैं।

इस तरह, संघ नेता एक हानिकारक गतिविधि में मशगूल हैं। भाजपा सत्ताधीशों ने उन्हें कुछ क्षेत्रों में विशेषाधिकार दे रखा है। इस बल से वे एक से एक ऊटपटाँग कर रहे हैं। जानकारों का मजाक उड़ाने में गाँधीजी को मात दे रहे हैं! जबकि बौद्धिक, शैक्षिक मुद्दों पर किसी ठोस प्रश्न का सामना नहीं करते। उस जमीन पर ही नहीं उतरते जहाँ वास्तविक वैचारिक लड़ाई होती है। केवल अपने सुरक्षित मंचों, यानी संगठन-पार्टी के बुलबुले में जिस किसी को कोस कर, जुमले बोल कर इतिश्री समझते हैं।

हाल में ब्राह्मणों, पंडितों, विद्वानों, और शास्त्रों पर उन की बातें इसी का उदाहरण हैं। एक नेता ने जातियों के ‘निर्माण’ का दोष पंडितों/विद्वानों को दिया। वह भी जाति को हर हाल में बुराई मान कर! जब कि हिन्दू इतिहास या परंपरा में ऐसा कुछ नहीं मिलता। अतः संघ नेताओं ने केवल हिन्दू-समाज के शत्रुओं का दुष्प्रचार दुहरा दिया है।

वस्तुतः, पिछला सवा-सौ साल भी दिखाता है कि अनेक जातियों का नामकरण, सूची बनाकर उन्हें स्थाई श्रेणियाँ देना शासकों ने किया। पहले ब्रिटिश, फिर देसी शासकों ने। न कि ब्राह्मणों/पंडितों ने। यहाँ जातियाँ मूलतः सामाजिक एकता और संगठन का आधार थीं। वह अपने-अपने समूह को सुरक्षा देती थी। हरेक व्यक्ति के पास जन्म लेते ही रोजगार का एक क्षेत्र सुनिश्चित रहता था। यह उस की विवशता भी न थी, क्योंकि वह अन्य क्षेत्र में भी काम करने के लिए स्वतंत्र था। जर्मन मिशनरी बार्थोलोमियस जिगेनबाग ने 17वीं सदी में लिखा कि यहाँ कम से कम एक तिहाई लोग अपनी जाति से भिन्न काम कर रहे थे। उस के शब्दों में, ‘‘पद संबंधी और राजकीय क्रियाकलाप – जैसे सभासद, शिक्षक, पुरोहित, कवि और यहाँ तक कि राजा होना भी किसी विशेष समूह का अधिकार न था, बल्कि सब के लिए खुला था।’’

दूसरे, यूरोपीययों ने भी जातियों को कोई बुराई जैसा नहीं पाया था। विश्वप्रसिद्ध चिंतक जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपनी पुस्तक ‘पोलिटिकल इकॉनोमी’ (1848) में भारतीय जातियों को यूरोप में तब विविध रोजगारों में लगे समूहों जैसा बताया था। इन में कोई ऊँच-नीच या विद्वेष किसी ने नहीं पाया था।

तीसरे, यहाँ जातियाँ बेशुमार नहीं थी। ई.पू. चौथी सदी में ग्रीक कूटनीतिज्ञ मेगास्थनीज से लेकर हुएन सांग, अल बरूनी, और हाल की सदी तक विदेशियों ने यहाँ गिनती की जातियाँ देखी थीं। सब से पहले 1891 ई. की जनगणना में अंग्रेज अधिकारियों ने असंख्य जातियाँ लिखीं। अगले दो दशक में ब्रिटिश प्रशासक हर्बर्ट रिसले ने तो लगभग ढाई हजार जातियाँ और दर्जनों ‘नस्लों’ तक की सूची बना दी! इस प्रकार, अनेक जातियों, ‘नस्लों’, और कुछ ‘रिलीजनों’ तक का निर्माण किसी हिन्दू पंडित/विद्वान ने नहीं, बल्कि अंग्रेज शासकों ने किया!

चौथे, विदेशियों ने भी भारत में ब्राह्मणों का कोई दबदबा नहीं देखा था। केवल ब्राह्मणों के प्रति सम्मान सब ने नोट किया। जर्मन लेखक युर्गेन एंडरसन ने अपने ‘प्राच्य यात्रावृतांत’ (1669) में लिखा कि गुजरात में सब से प्रभावशाली वैश्य थे।

पाँचवें, सदियों से तमाम अवोलकनकर्ताओं ने भारत में जातियों के बीच कोई हीन-भाव नहीं पाया। विभिन्न जातियों की अपनी भावना आत्म-सम्मान की थी। वे संतुष्ट थीं और कोई किसी अन्य की तरह दिखना नहीं चाहता था। किसी जाति को लेकर ईर्ष्या भाव न था, झगड़ा तो दूर रहा। 13वीं सदी के तमिल कवि कंबन की एक कविता में हल चलाने की प्रशंसा में लिखा है कि ‘किसी जन्मजात ब्राह्मण को भी वह श्रेष्ठता नहीं, जो वेल्लाला (कृषक) परिवार में जन्मे हुए को हासिल है।’ यहाँ 19वीं सदी तक अंग्रेज भी केवल बाहरी हाव-भाव या वेश-वूशा से किसी आम भारतीय की हैसियत का अनुमान नहीं लगा पाते थे।

वस्तुतः, यहाँ उच्चता की भावना सदैव केवल ज्ञानी, सत्यभाषी, ब्रह्मवादी होने से जुड़ी थी। इसीलिए महान ज्ञानी, कवि, संत यहाँ सभी जातियों में होते रहे हैं। 15वीं सदी के संत रैदास ने लिखा कि उन की जाति के लोग बनारस में मृत पशु उठाते हैं, किन्तु सब से प्रतिष्ठित ब्राह्मण भी रैदास का भारी सम्मान करते हैं।

अतः हिन्दू समाज में जातियाँ कोई बुराई नहीं, बल्कि समर्थ ईकाइयाँ थी। उन में गतिशीलता और स्वतंत्रता थी। केवल इस्लामी आक्रमणों के बाद उन्हें अभूतपूर्व दबाव, एक अस्तित्व का संकट महसूस हुआ। जब हिन्दू शासकों की राज्यशक्ति विफल हो गई तो जातियों ने कमान सँभाली। इन्होंने जैसे-तैसे प्रतिरोध किया। इसी प्रक्रिया में अवांछित दुर्गुण भी पैदा हुए। आपसी दूरी बनने लगी। वरना, 10-11वीं सदी में अल बरूनी ने लिखा कि हिन्दुओं में चार जातियाँ थीं किन्तु अस्पृश्यता नहीं थी। बरूनी के शब्दों में, ‘‘इन जातियों में जो विभिन्नताएं हो, किन्तु वे नगरों और गाँवों में, समान घरों, बस्तियों में साथ-साथ रहते हैं।’’

अतः इस्लामी हमलों के सामने किसी तरह बचाव की चिन्ता में हिन्दुओं में अलगाव और जड़ता आरंभ हुई। बंगाल सिविल सर्विस के अधिकारी विलियम क्रुक्स ने लिखा है कि ‘‘भंगी जाति की उत्पत्ति आरंभिक मुस्लिम शासन में हुई।’’ पुराने हिन्दू साहित्य में भंगियों का कोई उल्लेख नहीं है। केवल मुगल और ब्रिटिश शासनों में गंदगी उठाने के काम से जुड़े उन के विवरण मिलते हैं। ध्यान दें, कि 1901 की जनगणना में भंगियों की सब से बड़ी संख्या पंजाब और युक्त प्रांत में मिली जो मुस्लिम शासन के केंद्रीय इलाके थे।

पंजाब में रहे ब्रिटिश अधिकारी होरेस आर्थर रोस ने ‘पंजाब की जातियों और जनजातियों की सूची’ (1911) में लिखा कि मुस्लिम शासन में अनेक राजपूतों का पतन हुआ, और वे हीन समूहों में बदले गए। जॉर्ज ब्रिग्स ने अपनी पुस्तक ‘द चमार्स’ (1920) में ऐसे विवरण दिए। प्रो. किशोरी शरण लाल ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों पर अपने शोध-ग्रंथ में इस पर विस्तार से लिखा है।

निस्संदेह, हिन्दुओं के पतन का ब्रिटिश शासकों और मिशनरियों ने उपयोग किया। भेद-भाव बढ़ाया। क्योंकि हिन्दू समाज ही भारत की शक्ति और निरंतरता का आधार था। हिन्दू धर्म ही भारत की सब से पुरानी परिभाषा था। इसी ने भारत को एक रखा था। इसे चर्च-मिशनरियों ने समझा और हिन्दुओं में द्वेष भरने की कोशिशें की जो आज भी जारी हैं। बल्कि तमाम किस्म के हिन्दू नेताओं की कृपा से अब वे अधिक सफल हैं।

अन्यथा, इतिहास यह है कि पारंपरिक भारत में जातियाँ सहकारी सांस्कृतिक मूल्यों से चलती थी। आज भारत में जातियों को आपसी लड़ाई से जोड़ दिया गया है, जो वस्तुतः विभिन्न दलों की सत्ता-प्रतिद्वंदिता है। पहले जातियाँ धर्म का पालन करती थीं। उन्हें मर्यादाओं का ज्ञान था। आज जातियों को अपने-आप में स्वतंत्र मूल्य देकर सामाजिक संबंध विकृत किए गये हैं। विभिन्न दलीय नेताओं ने उन्हें लोभ-ईर्ष्या की प्रतियोगिता में डाला। जैसा दार्शनिक राम स्वरूप ने देखा: ‘‘सामाजिक न्याय के स्वयंभू बौद्धिकों और दलों को जाति-विहीन भारत नहीं चाहिए। वे केवल धर्म-विहीन जातियाँ चाहते हैं।’’

वही अब संघ-परिवार के नेता भी चाहते हैं। ब्राह्मणों/पंडितों के विरुद्ध बयानबाजियों से उन्हें चाहे तत्काल दलीय लाभ हो रहा हो, किन्तु यह हिन्दू समाज के लिए घातक होगा।

By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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