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ठूंठ-राज के अनंत प्रतीक्षालय में

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सुनते-देखते आए हैं कि साहित्य-संस्कृति-संगीत राजाश्रय में फलते-फूलते हैं। लेकिन तब, जब राजा में अर्थपूर्ण शिद्दत हो। जिस राजा को गोटियां बिठाते रहने और गोटियां गिराते रहने की कलियुगी तिकड़मों से ही फ़ुर्सत न हो, वह शब्द, स्वर और नृत्य की देव-भाषा कैसे समझेगा? बावजूद इसके, हमारी शास्त्रीय श्वांस नरेंद्र भाई के राज में भी शायद कुछ-कुछ चलती रहती, लेकिन वे बेचारे राजा हैं ही कहां? जब रहे होंगे, रहे होंगे। इसलिए अब ठूंठ-राज से शास्त्रीय विधाओं के लालन-पालन की उम्मीद मत पालिए। हम-आप एक अनंत प्रतीक्षालय में बैठे हैं। बैठे रहिए।

सियासत बहुत हो ली। नए साल में ज़रा ज़िंदगी से जुड़े बाकी आयामों पर भी नज़र डालें। एक राजनीति को ही राजनीतिकों ने रसातलगामी नहीं बना दिया है। क्या साहित्यकारों ने साहित्य का कचूमर नहीं निकाल रखा है? क्या संस्कृतिकर्मी संस्कृति का सुहाग उजाड़ने में कोई कसर बाकी रख रहे हैं? क्या कलाकारों ने लोक-कलाओं में भुस नहीं भर दिया है? क्या चित्रकारों का हाल देख कर पिकासो से ले कर सूज़ा तक बुक्का फाड़ कर नहीं रो रहे होंगे? क्या रंगकर्मियों ने महामंचनों और नुक्कड़ नाटकों का मरुस्थल नहीं रच दिया है? क्या संगीतकारों के दादरा-ठुमरी फटे बांसों के वन में नहीं खो गए हैं? तो फिर सिर्फ़ सियासतदांओं को ही लानत क्यों भेजना? जो जहां भी है, वतन के काम पर है। और, वतन के प्रति हमारा फ़र्ज़ अब महज़ इतना बचा है कि चरमराती दीवारों को हम एक धक्का और कितनी जल्दी देते हैं?

हमारे दशकों-दशक मुंबइया फ़िल्मों के ज़रिए बंधाई जा रही इस आस के सहारे बीत गए कि मेरे देश की धरती सोना और हीरे-मोती उगल रही है। उस सोने का एक तोला भी हमारे पल्ले नहीं पड़ा। हीरा-मोती तो झोली में आ गिरने का सवाल ही दूर-दूर तक नहीं था। फिर भी कपूरों, कुमारों, दत्तों, खन्नाओं, बच्चनों, खानों वग़ैरह की फैंकी रस्सी को पकड़ कर हम अपने-अपने सैलाब पार करते रहे। मगर  लगता है कि अब मुंबई फ़िल्म उद्योग को श्रद्धांजलि देने का वक़्त भी बहुत नज़दीक आता जा रहा है। पिछले दिनों अक्षय कुमार की ‘बच्चन पांडे’, आमिर खान की ‘लाल सिंह चड्ढा’ और रणवीर कपूर की ‘शमशेरा‘ ने जैसी धूल चाटी है, उस से अच्छे-अच्छों के होश फ़ाख़्ता हो गए हैं। रणवीर की ‘ब्रह्मास्त्र’ ने तो बांस ऐसे उलटे बरेली की तरफ़ लाद डाले कि दो सब से बड़ी सिनेमाघर कंपनियों का दीवाला निकलते-निकलते बचा।

2010 से पांच-छह साल के लिए जब दो बार मैं शर्मिला टैगोर और लीला सैमसन की अगुआई वाले केंद्रीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड – सेंसर बोर्ड – में था तो दक्षिण भारत के फ़िल्म उद्योग के हाल पर तरस-सा खाया करता था। दक्षिण के निर्माता कितनी ही अच्छी फ़िल्म बना लें, निर्देशक कितने ही हुनर बिखेर दें, अभिनेता-अभिनेत्रियां कितने ही प्रतिभाशाली हों, मुंबई के धुरंधर उन्हें दोयम दर्ज़े का ही मानते थे। लेकिन अब तेलुगु में बनी दो फ़िल्मों की कामयाबी देख वे सब मुंह छुपाए घूम रहे हैं। महाकाव्य आधारित ‘आरआरआर’ और एक्शन ड्रामा ‘पुष्पा’ के हल्ले ने सारी गुल्लकें फोड़ दी हैं। ‘आरआरआर’ तो अब तक की सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली तीसरी भारतीय फ़िल्म बन गई है। उस ने तक़रीबन 1300 करोड़ रुपए कमाए हैं। तमिल और कन्नड़ फ़िल्मों ने भी कमाई के नए कीर्तिमान बनाए हैं।

मुंबई फ़िल्म उद्योग के धम्म से नीचे गिरने की वज़ह है सिनेमा-संसार में लोकतंत्रीकरण की ताज़ा लहर। पिछले दो-तीन साल में ओटीटी मंचों ने चित्रपट-दुनिया की तसवीर पूरी तरह बदल डाली है। अब दर्शक लचर कथानकों, कमज़ोर संवादों और लुंजपुंज दृश्यावलियों को झेलने के लिए मजबूर नहीं है। जब ओटीटी मंचों के झरने में बहुत बेहतर विषयों, गहन कथावस्तुओं, चुस्त संवादों और कसावटी नज़ारों वाली लघु-फ़िल्में और वेब-श्रंखलाएं बह रही हैं तो किसे पड़ी है कि नीरस मुंबई-तलैया में डुबकी लगाए? सो, अगर मुंबई फ़िल्म जगत ने अपने विमर्श का दायरा नहीं बढ़ाया और अपने को लेखकों, निर्देशकों, चलचित्रकारों और नायक-नायिकाओं की घिसपिट गई मंडली से बाहर निकाल कर नई प्रयोगधर्मिता का दामन नहीं पकड़ा तो वह अपनी प्रार्थना सभाओं के आयोजन से बच नहीं पाएगा।

भारत की कलादीर्घाओं का भी हाल कई साल से बेहाल है। कोरोना-काल की बदहाली को अपवाद मानिए, मगर उसके पहले से कलाकृतियों का कारोबार नीचे लुढ़क रहा था और अब भी उसने सीढ़ियां चढ़ना शुरू नहीं किया है। एक तिहाई से ज़्यादा कलादीर्घाएं या तो बंद हो कई हैं या नाम के लिए चल रही हैं। उनकी आमदनी में 60 प्रतिशत तक की गिरावट आ चुकी है। कला-जगत में घूम-फिर कर वही चेहरे मंडरा रहे हैं। पिछले कई साल से भारत ने किसी वैश्विक नाम को जन्म नहीं दिया है। न अब वैसे कला-रचयिता रहे और न वैसे कला-पारखी। दुकानदारी के दुर्गुणों ने कला की दुनिया को आख़िरकार तक़रीबन लील ही लिया है।

ख्यात संगीत समारोह अब बीते दिनों की बात हो गए हैं। तानसेन समारोह में अमज़द अली खान जैसों को बुलाने की परंपरा समाप्त हो गई है और उसके मंच पर अब हंसराज हंस जैसों के पैर पसरे दिखाई देने लगे हैं। खजुराहो के नृत्य समारोह में थिरकते पांव अब ऐसे चिह्न नहीं बनाते, जिन पर चलने की इच्छा लिए कोई कत्थक, भरतनाट्यम या कुचिपुड़ी की अभ्यास-शालाओं में प्रवेश ले। सकल कलारूपों की महतारी – रंगकर्म – के वस्त्र भी चिर-चिर हो गए हैं। भरत मुनि के नाट्य शास्त्र की 36 पुस्तकों के पन्ने जर्जर हैं। विक्रम गोखले, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, लिटिल दुबे और रत्ना पाठक की बस यादें शेष हैं। रंगकर्म के प्रसूतिगृह में अब उन्होंने जन्म लेना बंद कर दिया है। महाराज कृश्ण रैना और लोकेंद्र त्रिवेदी की कोशिशें बेतरह हांफ रही हैं।

हिंदी के साहित्य और साहित्यकारों की दशा पर तो दया अरसा पहले से आने लगी थी, अब बांग्ला, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगु और कन्नड़ के कंगूरे भी भुरभुरे हो गए हैं। भारतीय अंग्रेज़ी लेखकों के मामले में भी हम आर. के. नारायण, रस्किन बांड, डॉम मोरेस और खुशवंत सिंह के चश्मे-शाही बगीचे को सूखता देख चुके हैं। ग़नीमत है कि अभी शशि थरूर और अरुंधति रॉय के चार चिनार बाग की ख़ुशबू हमारे साथ है, लेकिन पूरी तरह चेतन भगत की शरण में चले जाने की हमारी नियति अपने अदरक-पंजों के साथ सामने खड़ी है।

सो, ऐसे युग में राजनीति और राजनीतिकों के पतन पर क्या छाती पीटना? पीटना है तो इस समूचे अधोगमन पर पीटें। बहाना है तो विज्ञान-जगत की लुढ़कन पर आंसू बहाएं। रोना है तो शिक्षाविदों और समाज-विज्ञानियों के बांझपन पर रोएं। विलाप करना है तो सैन्यविदों की समझ पर करें। क्रंदन हो तो न्यायविदों की पुंसत्वहीनता पर हो। रुलाई फूट रही है तो ‘जय जगदीश हरे’ कर रही नौकरशाही पर फूटे। अश्रुपात करना है तो भांडगिरी की होड़ में आगे निकलने की हाड़मारी कर रहे मीडिया पर करें। आप के आंसू अनमोल हैं। उन्हें आमतौर पर जुमलेबाज़ी के लिए ही जन्म लेने वाले राजनीतिकों पर बर्बाद न करें। आप के आंसुओं के अमृत की ज़रूरत दूसरे परिसरों को ज़्यादा है। शास्त्रीय विधाओं की तेज़ी से बढ़ती मृत्यु-दर के ज़माने में अपने आंसुओं को सहेज कर रखिए। अभी तो आप को उन की बहुत दरकार होगी।

सुनते-देखते आए हैं कि साहित्य-संस्कृति-संगीत राजाश्रय में फलते-फूलते हैं। लेकिन तब, जब राजा में अर्थपूर्ण शिद्दत हो। जिस राजा को गोटियां बिठाते रहने और गोटियां गिराते रहने की कलियुगी तिकड़मों से ही फ़ुर्सत न हो, वह शब्द, स्वर और नृत्य की देव-भाषा कैसे समझेगा? बावजूद इसके, हमारी शास्त्रीय श्वांस नरेंद्र भाई के राज में भी शायद कुछ-कुछ चलती रहती, लेकिन वे बेचारे राजा हैं ही कहां? जब रहे होंगे, रहे होंगे। अब तो राजा असल में गौतम भाई हैं। वे कब नरेंद्र भाई की कुंडली में वक्री हो कर इस तरह बैठ गए, ख़ुद नरेंद्र भाई को भी अंदाज़ नहीं हुआ। इसलिए अब ठूंठ-राज से शास्त्रीय विधाओं के लालन-पालन की उम्मीद मत पालिए। हम-आप एक अनंत प्रतीक्षालय में बैठे हैं। बैठे रहिए। (लेखक न्यूज-व्यूज़ इंडिया और ग्लोबल इंडिया इनवेस्टिगेटर के संपादक हैं।)

By पंकज शर्मा

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स में संवाददाता, विशेष संवाददाता का सन् 1980 से 2006 का लंबा अनुभव। पांच वर्ष सीबीएफसी-सदस्य। प्रिंट और ब्रॉडकास्ट में विविध अनुभव और फिलहाल संपादक, न्यूज व्यूज इंडिया और स्वतंत्र पत्रकारिता। नया इंडिया के नियमित लेखक।

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